24 जून का यह दिन इसलिए महान हो गया क्योंकि, भारतीय संवत कलेंडर के अनुसार ज्येष्ठ ( जेठ ) महीने की पौर्णमासी (पूर्णिमा) और इसी तिथि पर सन 1398 में भारत के महान संत और आध्यात्मिक कवि कबीर दास का जन्म हुआ था।कबीर के जन्म वार्ष को लेकर दो तरह की बातें कही जाती हैं कुछ लोगों का कहना है कि कबीर का जन्म 1398 में नहीं बल्कि 1440 में हुआ था। कबीर के जन्म वर्ष को लेकर चाहे जो भी विवाद हो लेकिन उनकी जन्म तिथि को लेकर कोई विवाद नहीं है दोनों ही तरह के मानने वालों का मानना है कि कबीर चाहे जिस साल पैदा हुए हों लेकिन वो पैदा तो ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि को ही हुए थे। इस्लाम की मान्यता के अनुसार महान व्यक्ति को कबीर कहा जाता है। इसलिए अपने कर्म के साथ ही अपने नाम के अनुरूप भी कबीर महान ही थे।
ऐसे महान व्यक्ति को याद करने की आज एक ख़ास वजह भी है और वह वजह यह है कि जिस कबीर ने जाति , धर्म , क्षेत्र और सम्प्रदाय की दकियानूसी और संकुचित सीमाओं से दूर रहते हुए हमेशा ही मानवता के लिए ही सोचा , गाया , बुना और सृजित किया आज उसी के देश में मानवता का कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं जाति , क्षेत्र , रंग और सम्प्रदाय के नाम पर तिरस्कार हो रहा है .कबीर क्या थे कोई नहीं जानता। कोई उन्हें हिन्दू तो कोई उन्हें मुसलमान कहता है लेकिन कबीर न हिदू थे और न ही मुसलमान, वह तो बस एक इंसान थे। इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि उनके असली माता-पिता कौन थे लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनका लालन-पालन एक गरीब मुस्लिम दंपत्ति ने किया था ।कबीर और नानक भक्ति कालीन परंपरा के दो ऐसे साधक कवि , संत , समाज सुधारक और महान व्यक्तित्व हैं जिनका समय एक न हो पर दोनों में गजब का वैचारिक साम्य था। दोनों के जन्म के बीच करीब आधी सदी से अधिक का फासला था लेकिन मानवता को लेकर दोनों की सोच एक जैसी थी।
कबीर और नानक के बीच इस वैचारिक साम्य की एक वजह शायद यह भी हो सकती है कि दोनों ही पूर्णिमा के दिन ही पैदा हुए थे। कबीर ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को पैदा हुए थे और नानक का जन्म कार्तिक माह की पूर्णिमा को हुआ था। महीने के हिसाब से देखें तो कबीर का जन्म नानक से पांच महीने पहले हुआ था।
कबीर और नानक के अनुयायियों ने हमेशा ही मानव मात्र के कल्याण के लिए ही काम किया है। कबीर पंथियों का अलग से ऐसा कोई धार्मिक संगठन नहीं है जिसे वैश्विक स्तर पर जाना जाता हो। अपने सीमित दायरे में कबीरपंथी अपने स्तर पर जितना हो सकता है मानवता के लिए उतना करते ही रहते हैं। इस अर्थ में मानवता की सेवा करने वाला हर एक इंसान कबीरपंथी ही है। नानक के अनुयायी जो सिख धर्म नामक सामाजिक और धार्मिक संगठन से अपने को जुड़ा हुआ मानते हैं वो सही अर्थों में कबीरपंथी ही हैं। बाबा नानक ने जिस गुरु ग्रन्थ साहब की रचना की है उसमें कबीर समेत अनेक सिद्ध पुरुषों के उदगार ही संकलित किये गए हैं। इन उद्गारों में केवल मानव कल्याण की बात कही गई है। जब हम धार्मिक संगठनों के कामकाज की तुलना करते हुए हिन्दू , मुस्लिम , सिख , बौद्ध इसाई या ऐसे ही असंख्य दूसरे धार्मिक संगठनों की बात करते हैं तो हमें सिख धर्म के अनुयायी सबसे आगे खड़े दिखाई देते हैं। अतीत में भी ऐसे कई अवसर आये जब यह देखने को मिला कि सिख धर्म के अनुयाई आपात स्थिति में जरूरतमंदों की मदद करने कहीं भी और कभी भी पहुँच जाते हैं।
कोरोना महामारी के दौर में सिखों के सेवाभाव को हर किसी ने देखा भी है। एक साल से उपर होने को आया। कोरोना नामक संक्रामक रोग लोगों का पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा है लेकिन केवल सिख धर्म के अनुयायियों को छोड़ कर दुनिया के किसी धर्म के अनुयायियों ने आगे बढ़ कर इस जटिल समस्या के समाधान की दिशा में गंभीरता से कुछ भी नहीं सोचा। तकलीफदेह बात तो यह है कि हमारे देश में जिस तबके को धार्मिक बहुसंख्यक यानी हिन्दू कहा जाता है उसके किसी उपासना स्थल में ऐसा कोई स्थान नहीं बन पाया है जहां कोरोना से पीड़ित गरीब लोगों को समुचित उपचार दिया जा सके ।
इस मामले में सिख धर्म ने न केवल आगे बढ़ कर कोरोना पीड़ितों के उपचार की वैकल्पिक व्यवस्था की है बल्कि गरीबों के लिए निशुक्ल दवा भी उपलब्ध कराई है। देश की राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहाँ के चांदनी चौक स्थित गुरुद्वारे में सभी धर्मों के लोगों को जेनरिक दवाइयां निशुल्क वितरित की जाती हैं। इसी शहर के गुरुद्वारा बंगला साहिब में एमआरआई जैसा महंगा टेस्ट बहुत ही मामूली कीमत पर गरीबों के लिए उपलब्ध है। इसी तरह दिल्ली के सराय काले खान स्थित अंतर्राष्ट्रीय बस अड्डे के पास वाले गुरुद्वारे में डेढ़ सौ बिस्तरों का विशेष कोविड हस्पताल बहुत जल्दी ही बन कर तैयार होने वाला है। ये सारी तैयारियां इसलिए हो रही हैं ताकि कोरोना की संभावित तीसरी लहर का सामना करने में किसी तरह की ख़ास दिक्कतों का सामना न करना पड़े और कोरोना की तीसरी लहर में मरने वालों का आंकड़ा शून्य से आगे न बढ़े। कबीर की जन्मतिथि के सन्दर्भ में सिख धर्म का पालन करने वाले उनके कबीरपंथी अनुयायियों की संवेदनाओं को गंभीरता से समझने की जरूरत है।
कबीर का बचपन जिस तरह के अभावों में बीता था और जीवन पर्यंत उन्होंने अभावों के साथ ही गुजारा भी किया था। इन्हीं अभावों ने उनके दर्शन को मजबूत आधार दिया था। कबीर का यही दार्शनिक आधार सिख धर्म की बुनियाद बना और नानक ने भी कबीर की तरह मानवता के लिए सब कुछ समर्पित कर दिया। मौजूदा परिप्रेक्ष्य में कबीर और नानक के संबंधों को इसी प्रकाश में देखने की जरूरत है . कबीर दास के अनुसार, जीवन जीने का तरीका ही असली धर्म है जिसे लोग जीते है ना कि वे जो लोग खुद बनाते है। उनके अनुसार कर्म ही पूजा है और जिम्मेदारी ही धर्म है। कबीर ने लोगों को विशुद्ध तथ्य दिया कि इंसानियत का क्या धर्म है. कबीर न हिन्दू थे , न मुसलमान , वो तो सभी धर्मों को मानने वाले एक नेक दिल संत, महात्मा और समाज सुधारक इंसान थे। दोनों ही धर्मों के लोग उनकी इज्जत किया करते थे इसलिए उनकी मृत्यु के बाद किसी ने अपनी धार्मिक आस्था के अनुरूप मंदिर में स्थापित कर याद किया तो किसी ने उनकी याद में मस्जिद बनवाई।