मोहनदास करमचंद गांधी यानि महात्मा गांधी (02 अक्टूबर 1869 : 30 जनवरी 1948 ) भारतीय संविधान में वर्णित “हम भारत के लोग ” ही नहीं पूरी दुनिया में सत्य और अहिंसा के ‘मेटाफर’ हैं जिसे हिंदी में सर्वनाम या पर्याय कह सकते हैं। बहुतेरों ने हाड़-मांस के इंसान के रूप में महात्मा गांधी को कभी न देखा, न सुना है। फिर भी वे महात्मा गांधी को नित दिन देखते हैं। केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय की अधीनस्थ कंपनी, सिक्योरिटी प्रिटिंग एंड मीटिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एसपीएमसीआईएल) के होशंगाबाद और देवास (मध्य प्रदेश) , नासिक (महाराष्ट्र), सालबोनी (पश्चिम बंगाल) और मैसूर (कर्नाटक) अवस्थित प्रिंटिंग प्रेसों में छपे करेन्सी नोटों के मुखपृष्ठ और मुंबई, हैदराबाद, कोलकाता, नोएडा के टकसालों में ढले सिक्कों के ‘हेड‘ पर महात्मा गांधी की ही छवि क्यों अंकित है? उत्तर ये मिल सकता है कि भारत में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 8 नवम्बर 2016 की अर्धरात्रि से लागू नोटबंदी के पहले और उसके बाद भी लोगों के लिए गांधी को सत्य का अंतरदेशीय, सर्वदेशीय और सर्वकालिक सर्वनाम मानने के कारण मरे नहीं अभी जिंदा हैं।
‘गांधी जिंदा हैं ‘,ये तीन शब्द उतने ही जिंदा हैं, जितनी जिंदा हमारी दुनिया है। मोदी राज की नोटबंदी के बाद पाँच सौ रुपये से ज्यादा के समपार मूल्य के प्रचलित सारे करेंसी नोट राज आज्ञा से अवैध घोषित कर दिए गये। उनकी जगह छपे नये मुद्रित करेंसी नोटों पर महात्मा गांधी की ही छ्वि बनी रही। क्यों?
नोटबंदी से आक्रोषित लोगों के बीच चुटकुले चले और ऐसे कार्टून भी सामने आये जिनमें मोदी जी को ये कहते दर्शाया गया था: बापू, तुम थक गये हो पुराने जमाने के नोट को ढोते-ढोते। अब आराम करो। अब न्यू इंडिया है। अब आपकी जगह लेने के लिए हम हैं ना।लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया जा सका। मोदी राज में निकले करेंसी नोटों पर गांधी जी की जगह मोदी छवि अंकित करने का साहस कोई नहीं जुटा सका। मोदी जी के ‘अहम ब्रम्हाष्मि ‘ भाव एवं भंगिमा पर नैतिक और सत्य बल भारी पड़ गया।
“न्यू इंडिया “ में गांधी-
कुछ अंधभक्त मंडली में महात्मा गांधी की जगह, हिंदू राष्ट्र के महानायक मान लिये गये मोदी जी को उसकी शक्ति के रूप में प्राण प्रतिष्ठापना की मुहिम, भारत के संप्रभुता-सम्पन्न लोकतांत्रिक, समाजवादी, सेक्युलर भारत में 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद उनके प्रधानमंत्री बन जाने के नौ बरस से ज्यादा समय से चल रही है। उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की भोपाल से लोक सभा सदस्य प्रज्ञा सिंह ठाकुर ही नहीं बल्कि ‘ संतई के नाम पर गुंडई ‘ करने उत्तर प्रदेश के हरिद्वार के हालिया तथा कथित धर्मसंसद में और अन्यत्र भी जब-तब महात्मा गांधी के अदालत से दोष सिद्ध हत्यारे और फांसी पर चढ़ाए गए भारत के पहले आतंकवादी, नाथूराम गोड्से (19 मई 1910 :15 नवंबर 1949) का जयकारा लगाये जा रहे हैं। प्रज्ञा सिंह ठाकुर आतंकियों का सक्रिय साथ देने के गंभीर आपराधिक आरोपों से घिरी हुई हैं। 29 सितंबर, 2008 की रात 9 बजकर 35 मिनट पर मालेगांव में हुए बम विस्फोट में 6 व्यक्तियों की जान चली गई थी और 101 लोग घायल हुए थे। इस मामले में मुंबई के स्पेशल नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) कोर्ट में 28 दिसंबर, 2021 को एक और गवाह होस्टाइल हो गया। 15 गवाह इस मामले में कोर्ट के समक्ष दिए अपने बयान से मुकर चुके हैं। 30 सितंबर, 2008 को मालेगांव के आजाद नगर पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज हुआ था। मामला आतंकवादी था इसलिए महाराष्ट्र सरकार के आदेश पर बाद ’महाराष्ट्र एंटी- टेररिस्ट एस्कायड (एटीएस) ने उसकी जांच अपने हाथ में ले ली और 21 अक्टूबर 2008 को दाखिल एफआईआर में आरोपियों के खिलाफ मकोका और यूएपीए की धारायें लगाई। एटीएस ने अदालत में 20 जनवरी, 2009 को पहली चार्जशीट दाखिल की थी।
इनमें से 11 यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। तीन लोगों को फरार बताया गया। एटीएस ने अदालत में 21 अप्रैल 2011 को सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल की थी। एनआईए ने अपनी जांच के आधार पर 13 मई, 2016 को अलग से चार्जशीट दाखिल की। लेकिन मोदी सरकार ने 1 अप्रैल 2011 को मालेगांव बम विस्फोट की जांच एनआईए को सौंप दी। एनआईए की 13 मई, 2016 को दाखिल चार्जशीट में जिन 6 आरोपियों के खिलाफ सबूत नहीं मिलने का उल्लेख है उनमें प्रज्ञा सिंह ठाकुर का भी नाम था। आरोपियों की जमानत अर्जी पर प्रज्ञा सिंह ठाकुर और कर्नल प्रसाद पुरोहित समेत छह को जमानत मिल गई। प्रज्ञा सिंह ठाकुर और कर्नल पुरोहित के खिलाफ मकोका और यूएपीए की धारा 17, 29, 23 और आर्म्स एक्ट की धारा हटा दी गई। लेकिन उनके खिलाफ यूएपीए की धारा 18, हत्या और हत्या की साजिश के आरोप विशेष अदालत ने फ्रेम कर दिए गए हैं। अब कोर्ट ट्रायल चल रहा है। अदालत के समक्ष अब तक 220 गवाहों के बयान दर्ज हुए हैं। इनमें से 15 अपनी गवाही से पलट चुके हैं।
प्रज्ञा सिंह ठाकुर को महाराष्ट्र के मालेगांव में 2008 में बम विस्फोट घटना के षड्यन्त्रकारी होने के आरोप में महाराष्ट्र आतंक–विरोधी दस्ता (एटीएस) के आला अधिकारी रहे हेमंत करकरे (अब दिवंगत) द्वारा गिरफ्तार कर जेल भेजा गया था। मुंबई में पाकिस्तानियों के 26 नवंबर, 2011 के कई घंटे चले आतंकी हमले के मुख्य निशाना,छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (विक्टोरिया टर्मिनस) रेल स्टेशन से बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी ), टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग और मुंबई प्रेस क्लब से ट्राइडेंट (ओबेरॉय) होटल की तरफ जाने वाली सड़क पर सरकारी कार में सवार हेमंत करकरे एके 47 राइफलों की गोलियों की बौछार में शहीद हुए थे।
बाद में एनआईए की विशेष कोर्ट ने प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर लगी मकोका की धाराएं हटा दी। लेकिन इसी कोर्ट ने ही उन पर गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) संशोधन अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामला जारी रखने का आदेश दिया। 2017 में कैंसर के ‘मेमोटोनी‘ उपचार के लिए स्वास्थ्य आधार पर उनकी जमानत अर्जी मंजूर कर दी। 2019 के प्रयाग राज कुम्भ के मौके पर उन्हें ‘भारत भक्ति अखाड़ा‘ का आचार्य घोषित कर ‘महामण्डलेश्वर स्वामी पूर्णचेतनानन्द गिरी ‘ पदनाम से भी सुशोभित कर दिया गया।
उनके पिता आरएसएस के ही स्वयंसेवक एवं आयुर्वेदिक डॉक्टर थे। भिंड के लाहार कॉलेज से इतिहास में एमए की पढ़ाई कर चुकी प्रज्ञा भड़काऊ गैर कानूनी भाषण देने के लिए भी चर्चित रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने प्रज्ञा को अवैध रूप से लंबे अर्से तक हिरासत में रखने के उनके दावे खारिज कर दिये है। प्रज्ञा सिंह ठाकुर अप्रैल 2019 में भाजपा सदस्य बनी तो उन्हें उस बरस के लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस प्रत्याशी दिग्विजय सिंह के खिलाफ भोपाल सीट पर बतौर पार्टी प्रत्याशी खड़ा कर दिया गया।
गौरतलब है कि निर्वाचन आयोग ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के बारे में प्रज्ञा सिंह ठाकुर की टिप्पणी के लिए उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था। ऐसा कहा जाता है कि 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस में उन्होंने भी भाग लिया था। निर्वाचन आयोग ने प्रज्ञा को आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने के कारण प्रचार करने से 72 घंटे के लिए प्रतिबंधित किया था।
प्रज्ञा ठाकुर सांसद ही नहीं हैं रक्षा मंत्रालय की अहम संसदीय कमेटी की सदस्य भी हैं। मोदी जी ने प्रज्ञा ठाकुर को ‘दिल से कभी माफ नहीं करने ‘ के अपने ट्वीट के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।मामला भाजपा की अनुशासन कमेटी को सुपुर्द किया गया जहां इसे रफा- दफा कर दिया गया।
संसद में प्रज्ञा ठाकुर-
अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे विनायक सावरकर ( 28 मई 1883 : 26 फरवरी 1966) ‘ हिंदूत्व‘ की अवधारणा के पैरोकार थे। उन्होंने अंडमान निकोबार द्वीप समूह के सेल्युलर जेल में कारावास की अपनी सजा से छूटने स्वतंत्रता संग्रामियों का कोई साथ नहीं देने के लिए ब्रिटिश हुक्मरानी को कई बार लिखित माफीनामा दिया था। इसके एवज में ब्रिटिश हुक्मरानी ने उन्हें बतौर इनाम पहली अगस्त 1929 से प्रति माह 60 रुपये की पेंशन मंजूर की थी।
सावरकर, गांधी हत्याकांड में अभियुक्त थे। वे अभियोजन पक्ष के तत्काल साफ सबूत नहीं जुटा पाने के कारण ‘संदेह के लाभ‘ में छूट गये। हाल में कुछ सबूत उभरे हैं जिनका जिक्र इस विशेष आलेख में करेंगे। सबसे पहले ये अकाट्य तथ्य रेखांकित की जानी चाहिए कि गांधी की हत्या से भी पहले 1945 में ही “ अग्रणी “ नामक मराठी पत्रिका में उनको दशानन रूपी रावण दर्शा कर मारने का निशाना साधने का रेखाचित्र (कार्टून) छपा था। कार्टून में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बाद में स्थापित हुए राजनीतिक दल, भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और स्वयं सावरकर को भी भगवान राम के रूप में गाँधी जी, वल्लभभाई पटेल, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, मौलाना अबुल कलाम आजाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, आचार्य जेबी (जीवटराम भगवानदास) कृपलानी, गोविंद वल्लभ पन्त और जवाहरलाल नेहरू पर निशाना साधते दर्शाया गया था। सावरकर ने यह पत्रिका निकालने के लिए नाथूराम गोडसे को 15 हजार रुपये भी दिए थे, जो तब बहुत बड़ी रकम थी। आरएसएस ने इस कार्टून का किसी तरह से भी विरोध नहीं किया था।
सावरकर 1937 में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अहमदाबाद में 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये थे। इसके बाद वह फिर सात बरस के लिये हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये। ये वही हिन्दू महासभा है जिसके उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके धर्मपिता एवं गोरखपुर के गोरखनाथ मठ के महंत अवैद्यनाथ सदस्य रहे थे। महंत अवैद्यनाथ कई बार हिन्दू महासभा के लोकसभा सदस्य रहने के बाद भाजपा में औपचारिक रूप से शामिल हो गए थे।
गाँधीज असेसिन-
आरएसएस का दावा है कि उसने गांधी की हत्या से पहले ही नाथूराम गोडसे से संबंध तोड़ लिया था। लेकिन गोडसे पर अपनी अंग्रेजी किताब ‘ गाँधीज असेसिन ‘ में वरिष्ठ पत्रकार धीरेंद्र झा ने लिखा है कि गोडसे आरएसएस का ‘ प्रमुख स्वयंसेवक ‘ था। उसे आरएसएस से निकालने का कोई साक्ष्य नहीं है। गोडसे ने अदालत के समक्ष अपने बयान में कहा था कि वह आरएसएस छोड़ने के बाद हिंदू महासभा में शामिल हो गया। लेकिन गोडसे ने यह नहीं बताया उसने कब ऐसा किया। अमेरिकन शोधकर्ता जेए कर्रन जूनियर के अनुसार गोडसे ने 1930 में आरएसएस की सदस्यता ली और चार साल बाद उसे छोड़ दिया।
धीरेन्द्र झा की किताब के मुताबिक कर्रन के कथन की पुष्टि में कोई भी सबूत नहीं मिलता है। कोर्ट ट्रायल शुरू होने से पहले पुलिस को दिए बयान में गोडसे ने माना था कि वह दोनों संगठनों के लिए एक साथ काम कर रहा था। नाथूराम गोडसे के 2005 में दिवंगत हुए भाई गोपाल गोडसे ने भी कहा था कि नाथूराम ने आरएसएस कभी नहीं छोड़ा। गोडसे के प्रपौत्र ने 2015 में एक पत्रकार को भेंटवार्ता में बताया कि गोडसे 1932 में आरएसएस में शामिल हुआ था। उसे आरएसएस से न तो निकाला गया, न ही उसने कभी यह संगठन छोड़ा। 15 नवंबर, 1949 को फांसी पर चढ़ाए जाने से पहले गोडसे ने आरएसएस प्रार्थना की शुरुआती चार पंक्तियों का वाचन किया जिससे पुष्टि होती है वह अंत तक इसका सदस्य था।
हालिया साक्ष्य-
मोदीराज में एक तरफ गांधी के खिलाफ घृणा फैलाने का अभियान चल रहा है और दूसरी तरफ गोडसे और सावरकर का स्तुतिगान भी चल रहा है। महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे शरद अरविंद बोबडे के नागपुर स्थित आवास की सुरक्षा के लिए 1.77 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है।इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक जस्टिस बोबडे ने एक सितंबर, 2021 को नागपुर में आरएसएस के मुख्यालय जाकर उसके प्रमुख मोहन भागवत से भेंट की। जस्टिस बोबडे आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार का वह पैतृक घर भी देखने गए। जिसमें हेडगेवार (1889-1940) का जन्म हुआ था।
सावरकर नागपुर में जिस घर में ठहरते थे उसी घर से गोड्से को महात्मा गांधी की हत्या के लिये रिवाल्वर देने का संदेह है। गांधी जी की हत्या के कुछ दिन बाद 17 फरवरी, 1948 को अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के नागपुर नगर संस्करण में इस सम्बंध में गिरफ्तारी की खबर पुलिस हवाले से छपी थी।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेंद्र फड्णवीस के ट्वीट (देखें स्कैन कॉपी) किया था कि सावरकर, नागपुर जाने पर जिस घर में ठहरते थे वह जस्टिस बोबडे का हैं। वह भारत के 47 वें चीफ जस्टिस बनने से पहले मध्य प्रदेश हाई कोर्ट और बॉम्बे हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे थे। उनका जन्म नागपुर में ही 24 अप्रैल 1956 को हुआ था। उन्होने मुम्बई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ में 21 बरस वकालत की थी। जस्टिस बोबडे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पद से 24 अप्रैल, 2021 को रिटायर हुए। नागपुर जाने पर वह अपने उसी पुश्तैनी मकान में ठहरते हैं। इंडियन एक्सप्रेस में पुलिस के हवाले से छपी उपरोक्त पुरानी खबर के बारे में बाद में किसी तरह की कोई जांच की रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है।
द गोडसे कनेक्शन-
2022 में प्रख्यात वकील, इतिहासविद और लेखक एजी नूरानी की अंग्रेजी में लिखी किताब, ‘द गोडसे कनेक्शन‘ नए सिरे से छप कर सामने आई है। सुप्रीम कोर्ट और बॉम्बे हाई कोर्ट में बरसों वकालत करते रहे नूरानी ने अपनी किताब में लिखा है कि भाजपा ने बरसों की दुविधा के बाद अन्तत: सार्वजनिक रूप से सावरकर को अपना लिया है। भाजपा, गांधी जी को भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में हटा कर उनकी जगह सावरकर को राष्ट्रीय वीर के बतौर स्थापित करना चाहती है। लेकिन इसमें सत्य के खुल कर बाहर आ जाने का खतरा है क्योंकि सावरकर ने क्षेत्रीय राष्ट्रवाद की सेक्युलर अवधारणा को खारिज कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की साम्प्रदाईक अवधारणा की परोकारी की थी। नूरानी ने अनेक दस्तावेजी साक्ष्य को उद्धृत कर लिखा है कि सावरकर सिर्फ एक हत्या से आगे की बातों से भी प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए रहे। और यह बात महात्मा गांधी की हत्या की साजिश का नेतृत्व है।
सत्य बल से बड़ा कोई बल नहीं-
दुनिया के लोगों के बीच महात्मा गांधी की कही इस बात में बाद में और बल आ गया कि बाहुबल, धनबल और सत्ताबल से अधिक बड़ा सत्य बल है। गाँधी जी ने 1942 में कहा था: अगर आपको लगता है कि यह मौहाल जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है तो उस माहौल को छोड़ कर भागिए मत। बल्कि उस माहौल में संघर्ष कीजिए। निर्भय बनकर संघर्ष कीजिए। सिविल नाफरमानी के लिए तैयार होइये।
बहरहाल, ये सोचने की बात है कि गांधी को गोली मारने वाले कांग्रेस नेता राहुल गांधी के उपनाम के खिलाफ अभियान चला कर क्या साबित करना चाहते हैं? यही ना कि घृणा की सियासत करने वाले इन लोगों को गांधी किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं हैं और उन्हें गांधी, गांधीवाद नहीं बल्कि पप्पू और पप्पूवाद ही चाहिए? उन्हें राहुल के नाम में लगे गाँधी उपनाम से चिढ़ होती है। लेकिन उन्हें परेशानी गांधी से ही है। राहुल से उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। राहुल के दिवंगत पिता, राजीव और दादी , इंदिरा का भी उपनाम गांधी ही था। उनकी मां सोनिया और चाची मेनका ने भी अपने विवाह उपरांत यही उपनाम धारण किया।
उनकी बड़ी बहन प्रियंका ने अपने ब्याह बाद पति का उपनाम वाढेरा जोड़ लिया। राहुल ने गांधी को लेकर आरएसएस पर जितने वैचारिक हमले किए उनके परिवार के शायद और किसी ने नहीं किया है। मुंबई के पास भिवंडी की एक अदालत में आरएसएस ने राहुल को इसलिए घेरा कि वह आरएसएस के गांधी हत्या षड्यन्त्र में शामिल होने के अपने बयान से पीछे हटने को राजी नहीं हुए। उस केस में आरएसएस बुरी तरह उलझ गई। अदालत ने मानहानि का वह मामला अन्तत: खारिज कर दिया। संदेश निकला कि इस देश में गोडसेवाद का नहीं बल्कि गाँधीवाद के वर्चस्व का है। निश्चय ही आज हमें भय के माहौल में निर्भय खड़े रहने की और भी ज्यादा दरकार है।
राष्ट्रपिता-
ब्रिटिश हुक्मरानी की गुलामी से भारत की आजादी के पहले ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने गांधी जी को राष्ट्रपिता कहा था। इसका आधार महात्मा गांधी का ‘ सत्य के पुजारी , सजग नागरिक और मानवता प्रेम ‘ ही था। हम भारत के लोग जानते हैं कि महात्मा गांधी का जन्म दो अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था। स्वतंत्र भारत की राजधानी , नई दिल्ली में 30 जनवरी 1948 की सुबह एक प्रार्थना सभा में नाथूराम गोडसे ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। गांधी जी की हत्या जिस प्रार्थना सभा में की गई उसके सामने की नई दिल्ली की सड़क को अब 30 जनवरी मार्ग कहा जाता है।
दिल्ली में यमुना नदी के तट पर जहां गांधी की अंत्येष्टि की गई वह राजघाट कहलाता है। भारत के विभिन्न भागों से दिल्ली की दूरी राजघाट से ही नापी जाती है। हर बरस देश-विदेश के विभिन्न धर्मों और भाषा के लाखों लोग महात्मा गांधी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने राजघाट जाते हैं। सभी राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष भारत की राजकीय यात्रा पर दिल्ली पहुँचने के बाद राजघाट जरूर जाते हैं। हर सियासी दल के नेता गांधी जयंती के दिन उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देने दो अक्टूबर को राजघाट जाते हैं। उस दिन पूरे भारत में अनिवार्य सार्वजनिक अवकाश रहता है। दुनिया के लगभग सभी देशों में गांधी जयंती मनायी जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र ने दो अक्टूबर का दिन अरसे से अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित कर रखा है। ये सब क्यों होता है?
गांधी जी कभी भी भारत की सरकार में किसी पद पर विराजमान नहीं रहे। लेकिन वह एक सौ बरस से ज्यादा से जन-जन के दिल में हैं। इसका कारण अगर एक पंक्ति में पूछा जाए तो कोई स्कूली बच्चा भी कह सकता है गांधी जी ने भारत को औपनिवेशिक दासता से सत्य और अहिंसा के बल पर राजनीतिक स्वतंत्रता दिलाई। वे सत्य के पुजारी थे और मानवता प्रेम के विश्व भर में अप्रतिम उदाहरण हैं।
गांधी के ‘ सत्य के प्रयोग ‘ की खिल्ली उड़ाने वाले भी ऐसे कुछ लोग हैं जो ‘ असत्य के प्रयोग ‘ की सियासत करते हैं। इन लोगों का बरसों से प्रचारित असत्य यह है कि गांधी जी के कारण ही अविभाजित भारत का विभाजन कर मुस्लिम -बहुल पाकिस्तान का गठन हो संभव हो सका था। ये बोगस दावा घृणा की राजनीति करने वाले गांधी हत्या के पहले से करते रहे हैं। तथ्य यह है कि 7 मई, 1947 को कांग्रेस ने तय किया कि हिंदुस्तान के बंटवारे की मुस्लिम लीग की मांग मान ली जाए। उसी शाम गांधी जी ने जो कहा वह इतिहास में दर्ज है। उन्होंने कहा था : जिन्ना (मुस्लिम लीग नेता ) पाकिस्तान चाहते हैं। कांग्रेस भी तैयार हो गई है। लेकिन मुझे मंजूर नहीं है। मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैं इसमें शरीक नहीं हो सकता। मैं हिंदू , मुस्लिम , सिख , ईसाई सबका ट्रस्टी हूं। मैं पाकिस्तान बनने में हाथ नहीं बंटा सकता। गांधी जी का तर्क था कि महाभारत युद्ध में पांडवों को जीत कर भी कुछ नहीं मिला। उनको अंततः स्वर्गारोहण करना पड़ा। भाइयों की लड़ाई में कोई नहीं जीतता है।
कांग्रेस ने भारत विभाजन की मुस्लिम लीग की मांग औपचारिक रूप से 3 जून, 1947 को एक प्रस्ताव पारित कर स्वीकार की थी। कांग्रेस ने यह प्रस्ताव गांधी जी की घोर असहमति के बावजूद पारित कर दिया था। तथ्य है गांधी कहते रहे : देश का बंटवारा मेरी लाश पर होगा। भारत विभाजन की मांग पर कांग्रेस की मंजूरी मिल जाने के अगले ही दिन गांधी जी ने कहा : मैं इस फैसले को गलत मानता हूं। और लोग भी इसे गलत मानें तो इसे सुधारा जा सकता है। उन्होंने कहा: मैंने बहुत समझाया पर ‘ लीग वालों ‘ को कुछ और समझ में ही नहीं आ रहा है। वे कहते हैं कि हम वहां रह ही नहीं सकते जहां ज्यादा हिंदू हों। इसमें नुकसान है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह इस नुकसान से बचा ले।
गांधी ने ये सत्य इंगित किया था : बंटवारा लीग ने मांगा। कांग्रेस ने तो मांगा नहीं था। लेकिन हिंदू भी , और खालसा भी , यही चाहते हैं। गांधी बोले : मेरी बात न हिंदू सुन रहे हैं ना मुसलमान सुन रहे हैं। मैं कांग्रेस से भी अपनी बात नहीं मनवा सकता। जब बहुमत मुझे नहीं सुन रहा है तो भलाई इसी में है कि सब शांति से हो और दोनों एक दूसरे के दुश्मन न बन जाएं। जब गाँधी बंटवारा नहीं रोक पाए तब वह भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बहाली के प्रयास में यह कहते हुए जुट गए कि लड़ो मत , वरना मिट जाओगे। सुख से रहो। शांति-बहाली की गांधी जी कोशिश पर कट्टर हिंदू कहने लगे कि गांधी मुसलमानों का पक्ष ले रहे हैं। ऐसे लोगों के दिमाग में आज भी जहर की तरह ये बात भरी हुई है कि भारत बंटवारे के लिए गांधी दोषी हैं। सत्य यह है कि गांधी जी अंतिम दम तक हिंदुस्तान के बंटवारा के विरोध में थे। गांधी जी का तर्क था कि आपस में लड़ोगे तो जिन्ना की यह बात सही साबित हो जाएगी कि हिंदू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं और वे एक साथ नहीं रहे सकते हैं। हिंदू राष्ट्र के पक्षधर लोगों की मूल समस्या थी कि वे खुद द्विराष्ट्र का सिद्धांत मानते रहे। उनकी शिकायत जिन्ना की नफरत की सियासत से नहीं थी बल्कि गांधी के साम्प्रदायिक सद्भाव और मानवता प्रेम से थी।
महात्मा गांधी दोनों धर्मों के कट्टरपंथी लोगों के इस मिथ्या धारणा को असत्य सिद्ध करने में लगातार जुटे रहे कि द्विराष्ट्रवाद ही भारत की समस्या का समाधान है। इसलिए दोनों तरफ के कट्टरपंथी गाँधी के विरोध में थे। जब बंटवारे के साथ देश आजाद हो गया और जश्न मनाया जाने लगा तब गांधी ने कहा : मैं खुशी नहीं मना सकता। वह देश में साम्प्रदायिक दंगा शुरू कर चुके सनकी हिंदू और मुसलमानों को समझाने बंगाल के नोआखली चले गए।
बीबीसी-
हिंदुस्तान टाइम्स ने गांधी से भारत की आजादी पर प्रतिक्रिया मांगी तो गांधी जी ने कहा कि वह अंदर से खालीपन महसूस कर रहे हैं। बीबीसी ने प्रतिक्रिया मांगी तो गाँधी जी ने कुछ भी कहने से मना कर दिया। बीबीसी के पत्रकार ने जब गांधी जी की प्रतिक्रिया लेने की जिद से कहा कि उनकी बात अनूदित होकर पूरी दुनिया में प्रसारित होगी तो गाँधी जी ने कहा : दुनिया वालों से कह दो गांधी , अंग्रेजी नहीं जानता है। भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान जश्न मना रहे थे। लेकिन गाँधी जी , सत्ता सुख को लात मारकर लोगों को मानवता के गुण सिखा रहे थे।
गांधी जी को मारने वालों की यही समस्या थी। गांधी ने खुद बार-बार कहा कि यह प्रेम और नफरत की लड़ाई है। गांधी जी के प्रेम ने कभी अपशब्द का इस्तेमाल नहीं किया। लेकिन गांधी से नफरत करने वालों ने उनकी हत्या कर दी। घृणा की सियासत करने वाले ये लोग आज भी गांधी का नाम सुनते ही बौखला उठते हैं। ये नफरती लोग आज भी अफवाहों के जरिए गांधी जी के अप्रतिम सत्य के प्रयोग को अपने असत्य के प्रयोग से मारते रहते हैं। जाहिर है कि एक तरफ गांधी जी के सत्य और मानव प्रेम का विशव्यापी गुणगान चल रहा है तो दूसरी तरफ भारत में संकुचित मानसिकता से सियासत करने वाले लोगों द्वारा उनके खिलाफ घृणा फैलाने का अभियान अभी तक रुका नहीं है। लेकिन जगजाहिर बात यह है कि सत्य बल से बड़ा कोई भी बल नहीं होता ।
महात्मा गांधी की मृत्यु-
30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के तुरंत बाद, असत्य का महाभियान शुरू किया गया। यह अभियान आरएसएस और हिंदू महासभा द्वारा चलाया गया। आधिकारिक तौर पर गांधी को नकारना संभव नहीं है इसलिए श्रद्धा का ढकोसला किया जाता है। पंजाब हाई कोर्ट में गांधी हत्याकांड के दोषियों की अपील पर सुनवाई करने वाले पीठासीन न्यायाधीशों में से एक जस्टिस खोसला ने सुनवाई की लिखी अपनी स्मृतियाँ में उल्लेख किया कि जब नाथूराम ने अदालत में अपना बयान समाप्त किया, तो अदालत में एक जोड़ी आँख भी ऐसी नहीं थीं, जो नम न हो। नाथूराम गोडसे के संरक्षक वीडी सावरकर, नारायण आप्टे और विष्णु करकरे तीन मुख्य आरोपी थे, जिन्हें गांधी हत्याकांड में दोषी ठहराया गया था। बाद में सावरकर को छोड़ दिया गया, क्योंकि उसके खिलाफ अदालत को पर्याप्त साक्ष्य नहीं मिले।
बाद में 60 के दशक के उत्तरार्ध में गठित जस्टिस कपूर कमीशन ऑफ इन्क्वायरी की जांच में साबित हुआ गांधी जी की हत्या एक बड़ी देशव्यापी साजिश के परिणामस्वरूप की गई ।
अमेरिकी पत्रकार विन्सेंट शीन ने साफ शब्दों में कह दिया था कि महात्मा गांधी की कभी भी हत्या हो सकती है। यह बात उन्होंने प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार और लेखक विलियम एल शरर से कही और उसके बाद वे गांधी से मिलने अमेरिका से चल निकले। विलियम शरर वे चर्चित पत्रकार और लेखक हैं जिन्होंने `राइज एंड फाल आफ थर्ड रीच’ के अलावा ` गांधी अ मेमोयर ’ किताब भी लिखी है। विन्सेंट शीन ने गांधी जी पर लीड काइंडली लाइट और महात्मा गांधी अ ग्रेट लाइफ इन ब्रीफ शीर्षक दो किताबें लिखी हैं।
विन्सेंट शीन ने लिखा है , “ मैं उस आखिरी प्रार्थना स्थल पर था। शाम 5.12 बजे हो रहे थे। उन्हें 5.00 बजे आना था। सरकारी बयान कहता है कि वे 5.05 पर पहुंचे थे। वे प्रार्थना स्थल पर चढ़ ही रहे थे कि नाथूराम गोडसे उनके आगे झुका और उन्हें गोली मार दी। हत्यारा मानता था कि भारत और पाक में युद्ध होने वाला है और गांधी उसे रोक रहे हैं।
विन्सेंट शीन पाकिस्तान होते हुए भारत आए थे और बाद में भी पाकिस्तान होते हुए अमेरिका गए। उन्होंने लिखा है, “ मुझसे पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में पूछा गया कि गांधी कैसे मारे गए। मुझे कुछ कठोर लोगों की आंखों में भी आंसू दिखे। शांति के इस देवदूत की हत्या पर सारे भारत और पाक में शोक मनाया गया। अगर उस समय भारत और पाक में युद्ध हुआ होता तो उसमें पूरी दुनिया को शामिल होना पड़ता। गांधी के बलिदान ने उसे बचा लिया; दिल्ली, भारत और विश्व को। जैसी उन्होंने प्रार्थना की थी उनकी मृत्यु ने उनके जीवन के उद्देश्य को पूरा कर दिया। हमारे समय में इस व्यक्ति का कोई मुकाबला नहीं है। वह वैसा व्यक्ति था जो सभी को बराबर मानता था। जिस तरह सुकरात के बारे में पुराने दिनों में कहा जाता था वैसे ही इस व्यक्ति के बारे में कहा जा सकता है कि हम जितने लोगों को जानते हैं वह उनमें सबसे बुद्धिमान था और सबसे अच्छा था।’’
विन्सेंट शीन ने सुकरात से गांधी की तुलना करते हुए लिखा, “ सुकरात ने कहा था कि एथेंसवासियों मैं आपका सम्मान करता हूं और आपको प्यार करता हूं, पर मैं आपके मुकाबले ईश्वर के आदेश का पालन करूंगा। जब तक मेरे पास शक्ति है मैं दर्शन पढ़ाने और उसका आचरण करने से नहीं हटूंगा।’’
विन्सेंट शीन लिखते हैं कि गांधी ने पूरी दुनिया की आत्मा को छू लिया था। गांधी पर 1927 में रेने फुलम मिलर ने लेनिन एंड गांधी शीर्षक किताब लिखी। तब गांधी जी को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। शीन ने लिखा है कि उन्हें पहला गंभीर झटका तब लगा जब गांधी ने नमक सत्याग्रह छेड़ा। उनके नमक सत्याग्रह ने पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया और कुछ समय के लिए उससे पूरी दुनिया अभिभूत हो गई। “मैं ईश्वर के समुद्र तट पर जा रहा हूं। वहां मैं अपने हाथ से नमक बनाऊंगा और विदेशी सरकार मुझे गिरफ्तार कर लेगी और जेल में डाल देगी। लेकिन यह मेरा सच है और मैं इसके लिए अपनी जान दे दूंगा।’’ गांधी ने ऐसा कहा था।
विन्सेंट शीन की 27 जनवरी को गांधी से भेंट हुई। उनके साथ फोटोग्राफर हेनरी कार्टर भी थे। उनकी गांधी से एक घंटे बातचीत हुई। यह बातें दार्शनिक और आध्यात्मिक ज्यादा थीं। गांधी ने ईश्वर, सत्य और अहिंसा के बारे में अपनी सोच को साझा किया। गांधी ने कहा, “ सच ही ईश्वर है। अहिंसा सत्य का अंतिम पुष्प है। ईश्वर आंतरिक चेतना है, वह कानून और कानून निर्माता है। मैं अब तक सोचता था कि ईश्वर ही सच है लेकिन अब मैं यह कहना चाहता हूं कि सत्य ईश्वर है। मेरे पिछले उपवास के दौरान सारे तर्क उसके विरुद्ध थे लेकिन कानून सारे तर्कों से ऊपर था (जो मेरे भीतर से बोलता था)। कानून (ईश्वरीय) तर्क को संचालित कर रहा था।’’
गांधी से जब पूछा गया कि क्या निश्चितता त्याग से पहले आती है? उनका जवाब था कि नहीं, पहले त्याग आता है तब निश्चितता आती है। गांधी कहते हैं कि त्याग अपने में जीवन का कानून है।
नेहरू जब दिल्ली के पुलिस प्रमुख, राज्यों के मुख्यमंत्रियों, देश के गृह और देश के भावी राष्ट्रपति को आरएसएस और हिंदू महासभा के खतरे से आगाह कर रहे थे तब एक शख्स नेहरू को इस खतरे की गंभीरता की जानकारी दे रहे थे। वह संयुक्त प्रांत ( अब उत्तरप्रदेश ) सरकार के मंत्री था थे जो नेहरू के बाद देश का प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री थे। राष्ट्रपिता की हत्या से दो दिन पहले 28 जनवरी, 1948 को नेहरू ने सरदार पटेल को लिखे पत्र में यह बात बताई। नेहरू ने लिखा: संयुक्त प्रांत सरकार के मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मुझे बताया है कि आरएसएस के लोगों को भरतपुर में हथियारों की ट्रेनिंग दी जा रही है। संयुक्त प्रांत से बहुत से लोग ट्रेनिंग के लिए या अन्य दूसरी वजह से इन शिविरों में गए हैं। ये लोग वहां से हथियारों के साथ लौटे हैं। हमने पहले भी सुना है कि भरतपुर रियासत में इस तरह के ट्रेनिंग कैंप चलाए जा रहे हैं। यह बात साफ़ है कि इस तरह की चीजें अभी भी चल रही हैं और संयुक्त प्रांत की सरकार इस बारे में काफ़ी चिंतित है।’ (पत्र के नीचे की टिप्पणी : मई-जून, 1947 में भरतपुर और अलवर में आरएसएस के शिविर और रैलियां आयोजित किए गए और इन राज्यों में आरएसएस के स्वयंसेवकों को मिलिट्री ट्रेनिंग भी दी गई।)
लाल बहादुर शास्त्री से मिली सूचना ने नेहरू को व्यथित कर दिया था। वे श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तरफ़ मुड़े। मुखर्जी उस समय नेहरू सरकार में उद्योग मंत्री थे और उन्होंने तब तक जनसंघ की स्थापना नहीं की थी। वे उस हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे जिसकी सांप्रदायिक गतिविधियों पर नेहरू निगाह रखे हुए थे। बहरहाल, सरदार पटेल को शास्त्री जी की तरफ से बताए गए ख़तरे से आगाह करने के बाद नेहरू ने मुखर्जी को समझाया: “पिछले कुछ समय से हिंदू महासभा की गतिविधियों से मैं बेहद दुखी हूं। इस समय यह न सिर्फ भारत सरकार और कांग्रेस के लिए मुख्य विपक्ष है, बल्कि यह एक ऐसा संगठन है जो लगातार हिंसा को भड़का रहा है। आरएसएस ने तो इससे भी बुरी तरह काम किया है, उसकी करतूतों और दंगों और अशांति में इसके जुड़े होने के बारे में हमने सूचना इकट्ठा की है।
इसके अलावा जो मैंने ऊपर लिखा है, जो चीज़ मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ़ दे रही है, वह है हिंदू महासभा के मंच से बेहद अश्लील और असभ्य भाषा का प्रयोग। गांधी मुर्दाबाद उनके विशेष नारों में से एक हैं। हाल ही में हिंदू महासभा के एक प्रमुख नेता ने कहा कि नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आजाद को फांसी पर टांगने के बारे में लक्ष्य साधा जाना चाहिए। सामान्य तौर पर किसी व्यक्ति को दूसरों की राजनीतिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, भले ही वह उसे कितना ही नापसंद क्यों न करता हो। लेकिन इन चीज़ों की भी कोई हद है। मुझे लग रहा है कि अब पानी गले तक पहुंच गया है। मैं आपको इसलिए लिख रहा हूं, क्योंकि आप खुद भी हिंदू महासभा से क़रीब से जुड़े हैं। हमसे हमारी पार्टी में, संविधान सभा में और दूसरी जगहों पर लगातार पूछा जाता है कि इस बारे में आपकी स्थिति क्या है, मैं आपका बहुत आभारी रहूंगा, यदि आप मुझे यह बताएं कि इन हालात से निबटने क्या सोच रहे हैं। क्योंकि यह हालात उसी तरह आपको भी शर्मिंदा कर रहे होंगे, जिस तरह मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं।”
(पत्र के नीचे नेहरू-वांग्मय के संपादक की टिप्पणी: हिंदू महासभा ने पुणे, अहमदनगर और दिल्ली में निषेधाज्ञा का उल्लंघन कर सभाएं आयोजित की। इस तरह के भाषण दिए गए जिनमें कहा गया कि महात्मा गांधी एक बाधा हैं और वह जितनी जल्दी भर जाएं, देश के लिए उतना अच्छा है। 15 अगस्त 1947 के बाद से आरएसएस के लोगों पर हथियार इकट्ठा करने, गांव पर हमला करने, लोगों से मारपीट करने के 700 के करीब मामले दर्ज किए गए थे। 24 जनवरी, 1948 कुछ लोग बिरला भवन के गेट के बाहर खड़े हो गए और गांधी मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे नेहरू महात्मा गांधी से मुलाकात के बाद बाहर आ रहे थे। जब उन्होंने यह सुने तो वह अपनी कार से नीचे उतर आए और चिल्लाए, ‘तुम्हारी यह बात कहने की हिम्मत कैसे हुई। आओ पहले मुझे मारो’।
(सीपी नाम से चर्चित लेखक, यूनाईटेड न्यूज औफ इंडिया के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से 2017 में रिटायर होने के बाद बिहार के अपने गांव में खेतीबाड़ी करने और स्कूल चलाने के साथ ही स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन भी करते हैं)
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