इटली की रोमन में लिखी एक पुरानी कथा के मुताबिक हर बरस का मई महीना कुदरती यानि प्रकृति से जुड़ा है। यूरोप में वसंत ऋतु की शुरुआत पहली मई से ही होती है। ब्रिटिश हुकमरानी की दासता से हिंदुस्तान के 14 और 15 मई की आधी रात आजाद होने के पहले हिन्दू-बहुल भारत ही नहीं मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान में भी पतझड़ के बाद वसंत मई माह के आसपास में शुरू होने पर फसल चक्र से जुड़ा है। ब्रिटिश हुकमरानी के देश इंग्लैंड के गांवों में इस कोई सुंदर लड़की को ‘ मे-क्वीन ‘ चुनकर ‘ मे-पोल ‘ बनया जाता है और स्थानीय लोग वहां नाचते-गाते हैं। यह संयोग नहीं है कि दुनिया भर के कामगारों ने मई दिवस को मजदूर दिवस माना है। मजदूरों के संघर्ष का जन्म 1886 में पहली मई को हुआ। तब तक औधोगिक क्रान्ति के प्रभाव दुनिया की आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक पूंजीवादी व्यवस्था पर शुरू हो गए थे। इंग्लैंड ने ऊपरी बर्मा को हड़प लिया था। उसकी संसद के निचले सदन यानि हाउस ऑफ़ कॉमन्स में आजाद हिंदुस्तान के लिए लाया गया होम रूल यानि स्वदेशी शासन का प्रस्ताव विफल हो गया था। इस बीच ‘ कैनेडियन पेसिफिक ‘ रेलवे का निर्माण पूरा हो गया था। दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल में सोना की खान मिली थी। अमेरिका में डालमर कंपनी ने पहली मोटर कार बना ली थी। अमेरिकी मज़दूरों के बड़े संगठन , अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ लेबर यानि एएफएल ने पहली मई 1886 से दिन में आठ घंटे का काम आठ घंटे आराम और आठ घंटे पढ़ने-लिखने और मनोरंजन की जिंदगी की मांग शुरू कर दीं। बेरोजगारी 1873 से 1883 की आर्थिक मंदी के बीच बेतहाशा बढ़ गई थी। मजदूरों को सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम करना पड़ता था। ऐसे में काम के घंटे नियत करने का आंदोलन जोर पकड़ता गया। इसका मुख्य केंद्र अमेरिका का शिकागो नगर था जहां साढे तीन लाख मजदूरों ने पहली मई 1886 को हड़ताल कर दी। अमेरिकी सरकार और पूंजीपतियों ने आन्दोलनकारी मजदूरों का दमन शुरू कर दिया। इसके विरोध में 4 मई को शिकागो में ‘ हे मार्केट ‘ चौराहा पर मजदूरों की शांति पूर्ण सभा हो रही थी कि उस पर किसी ने बम फेंक दिए। पुलिस ने भी हिंसा फैलाई और अचानक राएफलों से फायरिंग कर दी जिसमें सात आंदोलनकारी मारे गए। मेरिकी सरकार और पूंजीपतियों के गठजोड़ ने अल्बर्ट आर पासंस , आगस्त स्पाइज़ , अडोल्फ फिशर और जार्ज एंगेल नाम के चार मजदूर नेताओं को 11 नवम्बर 1887 को फांसी पर चढ़ा दिया गया। हे मार्केट की घटना ने अमेरिकी लोकतंत्र और न्याय तंत्र की कलई खोल दी। सरकार ने बाद में स्वीकार किया कि न्यायाधीशों का फैसला गलत था। अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन की 1889 में दूसरी बैठक में पहली मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाने के लिए सभी मजदूरों को उधोगपतियों से काम से छुट्टी देने की अपनी मांग बुलंद की।
कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार-
हिंदुस्तान में मई दिवस सबसे पहले चेन्नई में पहली मई 1923 से मनाना शुरू किया गया जिसकी अगुवाई मज़दूर किसान पार्टी के नेता , कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने की थी। उनके साथ के लोगों ने मद्रास हाईकोर्ट के आगे जुलूस निकाल कर प्रदर्शन कर संकल्प लिया कि यह दिन मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाये औरहार जगह सार्वजनिक अवकाश रहे। इसकी शुरुआत औपचारिक रूप से 1927 में हुईं जब ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस यानि एटक के दिल्ली में हुए उसके राष्ट्रीय स्तर के सत्र में मई दिवस मनाने की घोषणा कर दी गई। भारत समेत करीब 80 देशो में मज़दूरों के 8 घंटे ही काम करने के क़ानून लागू है। यह दिन उन सभी मजदूरों को समर्पित है जिन्होंने देश और दुनिया बनाने में कड़ी मेहनत की है।
महात्मा गांधी-
भारत के राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी ने कहा था कि किसी भी देश की तरक्की उसके मजदूरों और किसानों पर निर्भर है। पर उद्योगपति खुद को मालिक समझने लगे है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोग अपनी ऐसी सरकार चुनते हैं जो देश की बागडोर ट्रस्टी के रूप संभालती हैं। वह उद्योग के प्रबंध चलाने , कामगारों और किसानों की बेहतरी के लिए वचनबद्ध है। सरकार का काम औद्योगिक शान्ति के लिए उद्योगपतियों और मज़दूरों के बीच विवाद और कोई टकराव होने पर उनका समझौता करवाने , उनके मामलों को औद्योगिक ट्रिब्यूनल से सहज न्याय के सिद्धांत के अनुसार न्याय करना है।
गुरु नानक और भाई लालो-
दुनिया के सबसे नए धर्म के मानने वाले सिखों के पहले गुरु , बाबा नानक देव ने किसानों , मज़दूरों और कामगारों के हक में आवाज़ उठाकर काम करना , नाम जपना , बांट छकना और दसवंध निकालना का संदेश दिया था। गरीब मज़दूर और कामगार का राज स्थापित करने के लिए उन्होंने मनमुख से गुरमुख की यात्रा करने का भी संदेश दिया। सिक्ख समुदाय में पहली मई ‘ भाई लालो दिवस ‘ के रूप में मनाई जाती है।
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में राज्य की स्थापना के मौके पर पहली मई को ही मज़दूर दिवस भी मनाया जाता है। सभी कामगारों की छुट्टी रहती है।
मज़दूर दिवस के व्यक्तिगत संस्मरन-
अन्तराष्ट्रीय मजदूर दिवस की 1987 में शताब्दि के मौके पर विशेष रिपोर्ट लिखने के हमारे प्रस्ताव पर रविवारी जनसत्ता के तत्कालीन सम्पादक और अब दिवंगत हो चुके कवि मंगलेश डबराल तुरंत राजी हो गए। उन्होंने हमको भारत के सभी केंद्रीय मजदूर संगठनों के आला नेताओं का इंटरव्यू करने का सुझाव दिया था। तब जनसत्ता का ऑफिस दिल्ली के बहादुरशाह जाफ़र मार्ग पर इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में भूतल पर था। उसी मार्ग पर टाईम्स ऑफ इंडिया , नेशनल हेरल्ड आदि समाचार पत्रों के समूहों के अंग्रेजी , हिंदी और उर्दू के अखबारों के भी कार्यालय थे। संयोग से मेरी पत्नी , संध्या चौधरी के राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक यानि नाबार्ड का कार्यालय एक्सप्रेस बिल्डिंग के ही ऊपरी तल पर था। हम पत्नी से मिलने कभी कभार ही नाबार्ड के दफ्तर जाते थे। वही हमसे मिलने उस बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर आ जाया करती थी। जनसत्ता का दफ्तर ग्राउंड फ्लोर पर ही था जिसके मुख्य भाग में उसके अब दिवंगत हो चुके संपादक प्रभाष जोशी का केबिन था। एक अन्य भाग में मंगलेश डबराल का कक्ष था।
मंगलेश डबराल-
मंगलेश डबराल की बात कुछ और थी। उनसे फ्री-लानसिंग पत्रकारिता के काम अक्सर मिल जाते थे और वे उनका भुगतान भी तुरत करवा देते थे। उनके कक्ष में हमको चाय पीने का मौका मिल जाता था और वहां बैठने पर कई नामी कवियों , साहित्यकारों और पत्रकारों से मुलाकात हो जाती थी। मंगलेश डबराल ने हमको इंटरव्यू में सभी ट्रेड यूनियन लीडर से हमारी मांगे पूरी करो के बाद क्या सवाल जरूर पूछने कहा था। रविवारी जनसत्ता की उस लीड रिपोर्ट का शीर्षक भी यही सवाल था। उन इंटरव्यू के रिकॉर्ड किये ऑडियो कैसेट्स को हमने बाद में लिप्यांतरण और हस्तलिखित नोट्स के आधार पर 2019 में मई दिवस के उपलक्ष्य में छपने के लिए तैयार किया था जिसके कुछ अंश इस आलेख में हैं। जिनसे बातचीत हुई उनमें सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियंस यानि सीटू के अब दिवंगत हो चुके कामरेड बीटी रणदिवे , आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस यानि एटक के दिवंगत चतुरानन मिश्र , भारतीय मजदूर संघ यानि बीएमएस के राजकिशन भगत , इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस यानि इंटक के नेता एन के. भट्ट और हिन्द मजदूर किसान पंचायत यानि एचएमकेपी के दिवंगत नेता जॉर्ज फर्नाडीज शामिल थे। अधिकतर प्रश्न सबके लिए एकसमान थे पर कुछ भिन्न भी थे। मुख्य प्रश्न यही था: आपकी नज़र में मई दिवस की शताब्दि का क्या महत्व है?
भालचंद्र त्रिम्बक रणदिवे यानि बीटीआर ( 1904-1990 ) ने कहा था : हमारे देश में मई दिवस मुख्यतः तात्कालिक आर्थिक मांगों से जुड़ा रहा है। लेकिन यह दिवस अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा के बिरादराना भाव , पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे और मजदूर वर्ग द्वारा सत्ता पर अधिकार पाने के दृढ विश्वास से भी जुड़ा है। मई दिवस को सिर्फ आर्थिक मुद्दों से जुड़ी तात्कालिक मांगों तक सीमित रखने की प्रवृति हमें मजदूर आंदोलन के क्रांतिकारी लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा से विमुख करती है। पिछले सौ वर्ष के दौरान दुनिया के एक तिहाई हिस्से में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना मई दिवस की क्रांतिकारी परम्परा की उपलब्धि है। मई दिवस की शताब्दि हमें सन्देश देती है कि हम एकजुट होकर समाजवादी व्यवस्था कायम करने की दिशा में और आगे बढ़ें। अपने मतभेद ख़त्म कर सब एक संगठित सेना की तरह काम करें। हमारा सवाल था : भारतीय मजदूर आंदोलन अर्थवाद का शिकार हो गया और इसका राजनीतिक चरित्र नहीं उभर सका। इसकी वजह आप क्या मानते हैं ?
बीटीआर का जवाब था : यह सही है कि भारत का मजदूर आंदोलन अर्थवाद के संकीर्ण दायरे में सीमित हो गया है। इस तरह का आंदोलन अराजनीतिक हो जाता है। दुर्भाग्य की बात है कि राजनीतिक मुद्दों पर सक्रीयता कम है। मजदूर आंदोलन देश की मूलभूत समस्याओं , ख़ासकर किसानों की समस्याओं को भूल गया है और अपने अंतिम लक्ष्य से विमुख होता जा रहा है। इसकी वजह इतिहास की जड़ों में है। ब्रिटिश शासन के दौरान साम्राज्यवाद समर्थक और राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं की यह कोशिश रही कि मजदूर वर्ग प्रत्यक्ष राजनीति से जुड़ नहीं पाए। कम्युनिस्टों ने मजदूरों के बीच राजनीतिक चेतना बढ़ाने का प्रयास किया तो सरकार समेत कांग्रेसी नेताओं ने आरोप लगाया कि कम्युनिस्ट , मजदूरों का राजनीतिक शोषण कर रहे हैं। इंटक की स्थापना ही इसलिए की गई कि मजदूरों पर कम्युनिस्टों प्रभाव को रोका जाए और मजदूरों को सिर्फ आर्थिक मांगों के सीमित दायरे में रखा जा सके। ‘ ओनली इकोनॉमिक्स एंड नो पॉलिटिक्स इज बुर्जुआ पॉलिटिक्स ‘। आज बहुत कम ही मौकों पर मजदूर , किसान लोकतंत्र और राष्ट्र की एकता , अखंडता की रक्षा के लिए आगे आते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि चुनावों में मजदूरों का एक बड़ा हिंसा शासक दल का ही समर्थन करता है।
हमारा अगला सवाल था : केन्द्रीय मजदूर संगठनों की नेशनल कैम्पेन कमेटी की सफलताएं और विफलताएं क्या रही हैं ?
बीटीआर का जवाब था : इस कमेटी ने मजदूर वर्ग और ट्रेड यूनियन की एकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आत्मविश्वास भी बढ़ा है कि वे मजदूर -विरोधी नीतियों का एकजुट होकर मुकाबला कर सकती हैं। यह कमेटी विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं वाले मजदूर संगठनों का समूह है। इसलिए इसकी विफलताएं भी हैं। कमेटी ने अपने आपको आर्थिक मांगों , जैसे वेतन , भत्ता , बोनस आदि तक ही सीमित रखा है। लेकिन यह कमेटी , लोकतंत्र और शान्ति के मुद्दे पर एक प्रस्ताव पारित नहीं कर सकी। कमेटी की अपनी सीमाएं हैं फिर भी उसने मजदूर आंदोलन की एकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हमारा एक और सवाल था : ट्रेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और हिंसा के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
जवाब : ट्रेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता की बात सरकारी प्रोपेगैंडा है। सरकार ऐसी बात कह कर लोगों को मूर्ख बनाती है। अगर सरकार ऐसी प्रतिद्वंद्विता को खत्म करने के लिए सचमुच तैयार है तो उसे हमारा प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए। मजदूरों के गुप्त मतदान के आधार पर एक उद्योग में एक ही मान्यताप्राप्त यूनियन के गठन के हमारे प्रस्ताव को सरकार और इंटक नहीं स्वीकार करती है। प्रतिद्वंदिता इसलिए जन्म लेती है कि मैनेजमेंट सर्वाधिक सदस्यता प्राप्त मजदूर यूनियन को मान्यता नहीं देता और विभिन्न यूनियनों को आपस में लड़ा कर मजदूरों के बीच असुरक्षा का भाव पैदा करती है। मैनेजमेंट अपनी समर्थक यूनियन को ही मान्यता देती है। मैं नहीं कहता कि ट्रेड यूनियनों के बीच छिटपुट हिंसक वारदात नहीं होती है। पर इसके लिए सरकार और मैनेजमेंट दोषी है।
हमने बीटीआर से जब पूछा कि वह भारत के पहले जवाहरलाल नेहरू , उनकी बेटी श्रीमती इंदिरा गांधी , जनता सरकार और राजीव गांधी की मजदूर नीतियों में क्या फर्क पाते हैं तो उनका जवाब था : मूलभूत नीतियों में कोई फर्क नहीं है। पर उसकी अभिव्यक्ति कभी उदार रही है और कभी कठोर। नेहरू शासन में स्वतन्त्रता के तुरंत बाद कम्युनिस्टों का विरोध करने के लिए इंटक की स्थापना की गई। अनेक मौकों पर शासक दल के विरोधी ट्रेड यूनियनों का दमन हुआ। आपात काल के दौरान सीटू के सदस्यों का दमन हुआ। पर एटक को सरकारी संरक्षण मिला। मौजूदा समय में भी राजीव गांधी की सरकार मजदूर-विरोधी कानूनों पर निर्भर कर रही है। विपक्षी दलों के ट्रेड यूनियन का दमन हो रहा है। स्वतन्त्रता के तुरंत बाद मजदूरों के हित में कई कानून बने पर अब उदारवादी रवैया खत्म हो गया है।
हमने उनसे राजीव गांधी सरकार के कम्प्यूटरीकरण और ऑटोमेशन के बारे में पूछा तो उनका जवाब था : आने वाले 2 -3 वर्षों में 10 हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा के कम्प्यूटर आयात किये जाएंगे। बेरोजगारी और बढ़ेगी। पहले ही सरकारी नौकरियों पर बैन लागू है। अवकाश प्राप्त कर्मचारी की जगह कोई नई बहाली नहीं हो रही है। जहां इतने लोग बेरोजगार हों वहां आप इस तरह की अर्थ व्यवस्था नहीं चला सकते। फिर कंप्यूटर की वजह से घरेलू और छोटे उद्योगों का अस्तित्व खतरे में है। इस तरह का कम्प्यूटरीकरण एक राष्ट्रीय विपत्ति है और मजदूर वर्ग को एकजुट होकर इसका विरोध करना होगा। पांच दिनों का सप्ताह का कोई वास्तविक योगदान नहीं है। कुछ लोगों के लिए आप पांच दिनों के सप्ताह की बात करते है पर लाखों लोगों के लिए कोई काम ही नहीं है।
जॉर्ज फर्नाडीज ( 3 जून 1930– 29 जनवरी 2019 )
मई दिवस की एक ख़ास अहमियत है। आज से सौ साल पहले 1 मई 1886 को शिकागो में जो घटना हुई उससे दुनिया भर के मजदूरों ने प्रेरणा पाई। उसने यह साबित किया कि त्याग और बलिदान के बगैर कुछ पाना संभव नहीं है। दुखद है कि आज का मजदूर आंदोलन अपने क्षेत्र या उद्योग विशेष की समस्याओं से उलझा है। भारत के मजदूरों ने अपने सीमित दायरे के बाहर सोचना छोड़ दिया है। मजदूर आंदोलन का सबसे बड़ा दुश्मन बेरोजगारी है। बेरोजगारी की वजह से मजदूर हमेशा दबा-सहमा रहता है और उसकी किसी भी लड़ाई में शामिल होने की चाहत पर रोक लग जाती है। इसी बरस 26 फरवरी को मंहगाई के खिलाफ भारत बंद का आयोजन हुआ पर संगठित मजदूरों का सबसे बड़ा हिस्सा रेल मजदूर उस दिन हड़ताल पर नहीं रहा। केंद्र सरकार के कर्मचारी भी हड़ताल पर नहीं गए। उसके बाद मंहगाई के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेड़ने की बात सोची गई थी पर हम सबने महसूस किया कि हिन्दुस्तान के मजदूर ऐसे किसी अभियान में शामिल होने की स्थिति में नहीं हैं।हमारे इस सवाल पर कि क्या भारतीय मजदूर आंदोलन , अर्थवाद का शिकार हो गया और उसका राजनीतिक चरित्र उभर नहीं सका। उन्होंने कहा था : यह बात सही है। मजदूर आंदोलन में राजनीतिक दृष्टिकोण का अभाव है। इसकी वजह यह है कि आज मजदूर आंदोलन पर हावी नेतृत्व मजदूरों में राजनीतिक चेतना नहीं जगाना चाहते हैं। यह नेतृत्व , रोजी की चर्चा के बाहर मजदूरों को नहीं ले जाना चाहता है। मजदूर आंदोलन की एक कमी यह भी है कि उनका नेतृत्व ख़तरा मोल लेने को तैयार नहीं है। जैसे , पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों की सरकार है। वे त्रिपुरा में भी सत्ता चलाते हैं। सत्ता में आ जाने के कारण उनके मजदूर संगठनों का लड़ाकूपन खत्म हो गया है। निचले तबके के मजदूर नेता , सरकार और मैनेजमेंट द्वारा दी गई सुविधा के जाल में फंस गए हैं। भ्रष्टाचार भी एक बड़ा मसला है। पहला तो यह कि देश के अधिकतर मजदूर संगठन अपना हिसाब-किताब ठीक ढंग से नहीं रखते हैं। सदस्यों को कोई हिसाब नहीं दिया जाता है। दूसरा , मजदूर नेता अपने स्वार्थ के लिए मैनेजमेंट से सांठ-गाँठ करता है। फिर , देश की अधिकांश ट्रेड यूनियनें विदेशी पैसों के सहारे चलती हैं। दुनिया में अनेक संगठन हैं जो हमारे देश की ट्रेड यूनियनों को पैसा देते हैं। इस तरह के पैसों के खेल में फंस जाने के कारण मजदूर आंदोलन अपना लक्ष्य भूल कर कमजोर बन जाता है।
उनसे हमारा अगला सवाल था इन तमाम कमजोरियों से निपटने के लिए आपके संगठन ने क्या योजना बनाई है तो उन्होंने सीधा जवाब दिया था : हमने तय किया है कि संगठित और असंगठित , दोनों तरह के मजदूरों को साथ लेकर मजदूर आंदोलन को आगे बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए हमने संगठन का स्वरुप ही बदल दिया है। पहले इसका नाम हिन्द मजदूर पंचायत था। अब हिन्द मजदूर किसान पंचायत ( एचएमकेपी ) रख दिया गया है। 1983 में हमने राष्ट्रीय पैमाने पर लड़ाई लड़ी। उस लड़ाई के मांग-पत्र में सारे मुद्दे राजनीतिक थे। एक भी आर्थिक मुद्दा नहीं था। जैसे , काम करने का अधिकार हो , मुसलामानों को रोजगार के अवसर मिले। एचएमकेपी एकमात्र संगठन है जो बेरोजगार मजदूरों को भी अपना सदस्य बनाता है। हमने उनसे जब पूछा कि नेशनल कैम्पेन कमेटी की विफलताएं क्या रही हैं तो उनका कहना था: एचएमकेपी इसका सदस्य नहीं है। इस कमेटी का दृष्टिकोण कभी संघर्ष का नहीं रहा। कुछ राजनीतिक विद्वेष के कारण यह कमेटी एचएमकेपी और इंडियन फेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन ( आईएफटीयू ) के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करती है। सीटू के नेता बी टी रणदिवे ने हमें पत्र लिखा है कि इस कमेटी में एचएमकेपी को शामिल किये जाने की बात का हिन्द मजदूर सभा द्वारा विरोध किया जाता है। हम कमेटी का हिस्सा बनने तैयार है पर हिन्द मजदूर सभा ऐसा नहीं चाहती है। इस सवाल पर कि ट्रेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और हिंसा के बारे में वह क्या सोचते हैं उन्होंने कहा था : मेरी राय है कि मजदूर आंदोलन के बीच ऐसी कोई मशीनरी हो जो इसे ख़त्म कर सके। एक आचार संहिता बनाई जा सकती है। इस सवाल पर कि वह नेहरू , श्रीमती गांधी , जनता सरकार और राजीव गांधी की मजदूर नीतियों में क्या फर्क पाते हैं उन्होंने कहा था: इतना मैं जरूर कहूंगा कि जनता सरकार के दौरान मजदूरों का दमन नहीं हुआ। लेकिन जनता शासन के दौरान भी मजदूरों की मूलभूत समस्याओं के निराकरण के कोई ठोस उपाय नहीं हुए।
राजीव गांधी सरकार द्वारा शुरू किये गए कम्प्यूटरीकरण और ऑटोमेशन के बारे में पूछे जाने पर उनका कहना था : कम्प्यूटरीकरण श्रीमती इंदिरा गांधी के शासन में ही शुरू हो गया था। राजीव गांधी के समय यह अंधाधुंध हो रहा है। बेरोजगारी की समस्या और अधिक विकराल रूप धारण करेगी। सरकार झूठ बोलती है कि इससे बेरोजगारी नहीं बढ़ेगी। सरकारी आंकड़े ही बोलते हैं कि निजी उद्योगों में रोजगार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं।
चतुरानन मिश्र ( 1925 – 2011 )
अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा ने पिछले सौ वर्ष के दौरान महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। विश्व के एक तिहाई हिस्से में मजदूर वर्ग राजसत्ता में आ गया है। 1886 में आठ घंटे काम की मांग को लेकर मजदूर और शासक वर्ग में टकराव हुआ था। इस मांग का स्वरुप राजनीतिक था। आज मई दिवस की शताब्दि के मौके पर ‘ एआईटीयूसी ‘ तीन प्रमुख मुद्दों पर भारत के मजदूरों का आह्वान करती है। पहला मुद्दा है विश्व शान्ति के लिए साम्राज्य्वाद के खिलाफ संघर्ष। लीबिया पर अमेरिकी हमले ने इस मुद्दे की सार्थकता और साफ कर दी है। दूसरा मुद्दा है देश की नई आर्थिक और औद्योगिक नीति जिसकी मुख्य दिशा ‘ प्राइवेटाइजेशन ‘ है। हमें प्रयास करना होगा कि एकाधिकारवाद कमज़ोर हो। इस संघर्ष में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को साथ लेना होगा। तीसरा मुद्दा है , राष्ट्रीय एकता और अखंडता। कुछ अर्से से साम्प्रदायिक और फूटपरस्त ताकतों ने जोर पकड़ा है। मज़दूर वर्ग को इसके खिलाफ एकजुट होना होगा। मेरी मान्यता है कि भारतीय मजदूर वर्ग को भारतीय परिवेश के मुताबिक़ सांस्कृतिक क्रान्ति का कार्यक्रम तय करना चाहिए। इस क्रान्ति का लक्ष्य होगा , देश का संविधान यहां की जीवन शैली के अनुरूप हो। इस देश में मजदूर वर्ग , भारतीय सेना के बाद दूसरी सबसे बड़ी संगठित शक्ति है। इस शक्ति का हमें देश की विभिन्न सामाजिक कुप्रथाओं -जैसे जातपांत, दहेज़ प्रथा आदि के खिलाफ उपयोग करना होगा। हमारे इस सवाल पर कि नेशनल कैम्पेन कमेटी की सफलताएं और विफलताएं क्या रही हैं उन्होंने कहा था : किसी भी तरह का परिवर्तन लाने में जो सबसे बड़ी बाधा है वह है मजदूर आंदोलन की आपसी फूट। नेशनल कैम्पेन कमेटी के गठन से हमें एक सफलता यह मिली है कि शासक वर्ग की ओर से मजदूर वर्ग पर जो हमले हुए हैं उसका राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला किया जा सका है। एनसीसी की वजह से सरकार को अपने कुछ मजदूर-विरोधी कदम वापस भी लेने पड़े हैं। पर इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि यह एक ढीला ढाला संगठन है और आक्रामक की बजाय सुरक्षात्मक है।
हमारे अगले सवाल पर कि ट्रेड यूनियनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और हिंसा के बारे में वह क्या सोचते हैं उन्होंने कहा था: इसके लिए मैनेजमेंट , सरकार और ट्रेड यूनियन , तीनों ही जिम्मेवार हैं। यह प्रतिद्वंद्विता आम तौर पर स्थानीय स्तर की होती है। एक उद्योग में एक यूनियन को मान्यता नहीं दिए जाने के लिए जिम्मेदार , सरकार और इंटक है। दोनों , इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। इस सवाल पर कि वह नेहरू , श्रीमती गांधी , जनता सरकार और राजीव गांधी की मजदूर नीतियों में क्या फर्क पाते हैं उनका कहना था: चारों की सरकार पूंजीवादी सरकार रही है। इसलिए कोई ख़ास अंतर नहीं है। हां , राजीव गांधी की सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देश में अपना पांव जमाने के लिए ज्यादा मदद की है और सार्वजनिक उद्योग का महत्व घटा है। इस सवाल पर कि राजीव गांधी सरकार द्वारा शुरू कम्प्यूटरीकरण और ऑटोमेशन के बारे में उनके क्या विचार हैं उन्होंने जवाब दिया था : कम्प्यूटरीकरण हमारी अर्थव्यवस्था में संतुलित रूप से ही होना चाहिए।
और अंत में अली सरदार जाफरी की कविता ‘ मई दिवस ‘
मां है रेशम के कारखाने में
बाप मसरूफ सूती मिल में है
कोख से मां की जब से निकला है
बच्चा खोली के काले दिल में है
जब यहाँ से निकल के जाएगा
कारखानों के काम आयेगा
अपने मजबूर पेट की खातिर
भूक सरमाये की बढ़ाएगा
हाथ सोने के फूल उगलेंगे
जिस्म चांदी का धन लुटाएगा
खिड़कियाँ होंगी बैंक की रौशन
खून इसका दिए जलायेगा
यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सरमाये का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है