भारतीय जनता पार्टी की नरेन्द्र मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दूनी करने का वादा किया था। इस दिशा में क्या काम हुआ वह तो नहीं पता, तीन कृषि कानून जरूर आए थे और तब सरकार ने उसके विरोध को रोकने के लिए जो किया उनमें कई पहले नहीं सुने गए थे। किसानों को, उनके समर्थकों को और आंदोलन के लिए आने वाले धन तथा उसे देने वालों के मामले में जो सब कहा और प्रचारित किया गया वह अपनी जगह है। चूंकि किसान सरकार के मुकाबले टिक पाए, सरकारी कोशिशों, चालों का असर नहीं हुआ तो अंत में सरकार ने उन कानूनों को वापस ले लिया और प्रधानमंत्री ने माफी भी मांगी। यह नवंबर 2021 की बात है। उसके बाद पूरा एक साल और तीन महीना से ज्यादा समय निकल चुका है।
तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, “साथियों हमारी सरकार किसानों के कल्याण के लिए देश के कृषि जगत के हित में, गांव, गरीब के हित में पूर्ण समर्थन भाव से, अच्छी नीयत से ये कानून लेकर आई थी। लेकिन इतनी पवित्र बात, पूर्ण रूप से किसानों के हित की बात – हम ‘कुछ’ किसानों को समझा नहीं पाए। शायद हमारी तपस्या में कमी रही।“ यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा, “भले ही किसानों का ‘एक वर्ग’ इसका विरोध कर रहा था। हमने बातचीत का प्रयास किया। ये मामला सुप्रीम कोर्ट में भी गया।“ किसानों को वहां भी राहत नहीं मिली। अंत में भारी दबाव के आगे कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया गया। लेकिन इस सरकार ने आय दूनी करने का वादा करके किसानों को एक साल आंदोलन की मजबूरी के अलावा दिया क्या?
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत किसानों को हर साल छह हजार रुपये की आर्थिक मदद जरूर दी जाती है। किसानों के खाते में ये राशि तीन किस्तों में ट्रांसफर की जाती है। किसान इसकी तेरहवी किस्त का इंतजार कर रहे हैं। कृषि कानून आय दूनी करने के लिए थे या नहीं, उसकी दिशा में प्रयास थे या नहीं – मुझे नहीं पता। लेकिने मैंने (किसानतक डॉट इन में) यह जरूर पढ़ा है कि नीति आयोग ने स्ट्रेटजी फॉर न्यू इंडिया@75 नामक रिपोर्ट में कहा है कि 3.31 प्रतिशत की वार्षिक कृषि वृद्धि पर किसानों की इनकम डबल करने में देश को 22 साल (1993-1994 से 2015-2016 ) लगे। इस हिसाब से 2015-16 से 2022-23 तक आय दोगुनी करने के लिए 10.4 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर की जरूरत होगी। इस तरह यह बताया जा रहा है कि आपकी उम्मीद (प्रधानमंत्री की घोषणा नहीं) कितनी अव्यावहारिक है।
तथ्य यह भी है कि कृषि क्षेत्र इसकी आधी ग्रोथ पर ही अटका हुआ है। साल 2022-23 में तो कृषि विकास दर सिर्फ 3.5 फीसदी ही रहने का अनुमान है यानी कृषि क्षेत्र की विकास दर भी निराश करने वाली है। ऐसे में सवाल यह है कि सरकार ने जो वादा किया था उसका आधार क्या था और उसे पूरा करने के लिए क्या किया। किसान भले ही सम्मान राशि और पाकर और कृषि कानूनों से मुक्त होकर खुश और विजयी महसूस कर रहे हों पर सरकार और प्रधानमंत्री ने उनके लिए ना कुछ किया ना उनके वादे का कोई आधार था। फिर भी प्रचार और समर्थकों के दम पर वे लोकप्रिय बने हुए हैं और यही उनकी कामयाबी है। यहां यह चर्चा मैंने सिर्फ इसलिए की कि प्रधानमंत्री ने कहा था, किसानों को सपने दिखाए थे और ऐसे तमाम वादों के आधार पर प्रधानमंत्री बनकर करीब नौ साल देश की, विरोधियों की, अर्थव्यवस्था और व्यवसाय की ऐसी-तैसी की।
अब अगला चुनाव जीतने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे हैं और इनमें सबसे गंभीर है, विरोधियों को दबाना, कुचलना, बदनाम करना और जेल में बंद कर देना। दूसरी ओर वायदों के बारे में बात नहीं करना भी महत्वपूर्ण नीति है। ट्रोल, प्रचारक और समर्थक इसके लिए जो सब करते हैं वह भी अपनी जगह है ही। मैं कृषि पर नहीं लिखता, कृषक परिवार से नहीं हूं और गांव में नहीं के बराबर रहा हूं। फिर भी समझता हूं कि किसानों को उनकी फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिलता है समर्थन मूल्य की मांग इसीलिए की जाती है और कृषि कानून की आड़ में क्या किया जा रहा था। लेकिन मोटी सी बात यह है कि किसानों को अपनी उपज को उचित मूल्य मिलने तक रखने की व्यवस्था हो या न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिले तो समय पर सही मूल्य मिलना लगभग असंभव है। इसलिए किसानों की पैदावार बर्बाद होती है या कोई तीसरा कमाता है-कमा सकता है।
सरकार की चिन्ता किसानों के कमाने की नहीं, किसी तीसरे के कमाने की व्यवस्था करने की जरूर नजर आई है। सरकार समर्थित एक अध्ययन के अनुसार, 2022 में भारत ने कटाई और खपत के बीच अपने फलों और सब्जियों का लगभग 5–13% और तिलहन व मसालों सहित अन्य फसलों का 3–7% खो दिया। अगर हम इसकी कीमत आंकें तो यह ₹1,52,000 करोड़ से अधिक की समस्या है! और इसमें पिछले वर्षों में कोई महत्वपूर्ण गिरावट नहीं देखी गई है। चीजों को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, वित्त वर्ष 22 में भारत ने वित्त वर्ष 2015 की तुलना में 23% अधिक अनाज और फसलें उगाईं। लेकिन इसी अवधि के दौरान कटाई के बाद के नुकसान में केवल 1% से भी कम की कमी आई है।
यह प्रगति इतनी कम क्यों रही है। इसके कई कारण हैं, सबसे पहले तो भारत में फसल कटाई के बाद की बुनियादी ढाँचे की समस्या है। उष्णकटिबंधीय मौसम खराब होने वाली फसलों की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है। आप उन्हें एक कमरे में तब तक नहीं रख सकते हैं जब तक वे रवानगी के लिए तैयार न हों। फसलों को ले जाते समय आपको उचित पैकिंग सामग्री, जलवायु-नियंत्रित भंडारण वातावरण और यहां तक कि उचित कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं की आवश्यकता होती है। लेकिन हमारे पास इसकी पर्याप्त तो छोड़िये, बहुत मामूली सुविधा है।
उदाहरण के लिए भंडारण सुविधाओं को ही लेते हैं। भारत की भंडारण सुविधाएं इसके वृक्षारोपण उत्पादों के केवल 10% को समायोजित करने के लिए पर्याप्त हैं। और अगर आप कोल्ड स्टोरेज को देखें, तो भारत के पास सिर्फ 32 मिलियन मीट्रिक टन कोल्ड चेन की क्षमता है, जबकि आवश्यकता 35 मिलियन मीट्रिक टन की है। हालांकि, यह बताने के लिए पर्याप्त डेटा नहीं है कि इसमें फसलों, मांस, मछली, अंडे और डेयरी के बीच साझेदारी किस हिसाब से होती है। पर यह तय है कि है कि इसमें ज्यादातर पर डेरी उत्पाद का कब्जा स्वाभाविक रूप से होगा।
यहां कुछ है। सरकार के पास ऐसी योजनाएँ हैं जो किसानों को फसल कटाई के बाद बेहतर बुनियादी ढाँचा स्थापित करने में मदद करती हैं। उदाहरण के लिए, प्रधान मंत्री किसान सम्पदा योजना (पीएमकेएसवाई) एक ऐसी योजना है जिसका उद्देश्य विशेष रूप से उस लागत का एक निश्चित प्रतिशत वित्त देना है जो कोल्ड स्टोरेज चेन और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण में जाता है। यह फसलों के लिए मूल्य जोड़ता है। इसका मतलब यह है कि अगर किसान ऐसी सुविधाओं में निवेश करते हैं, तो सरकार राज्य के आधार पर, ₹10 करोड़ तक की लागत का 35-75% के बीच कुछ भी योगदान देती है। समस्या को कम करने में मदद करने का यह एक शानदार तरीका होना चाहिए। फिर मदद क्यों नहीं हो रही है?
इसकी वजह यह है कि इस तरह की योजनाएँ एकल या स्टैंडअलोन भंडारण सुविधाओं को कवर नहीं करती हैं और हमारे लगभग 85% किसान छोटे या सीमांत किसान हैं जो इस तरह के बुनियादी ढांचे में भारी निवेश करने में सक्षम नहीं हैं। भले ही वे क्रेडिट योजनाओं का लाभ उठाते हैं, फिर भी उन्हें परियोजना लागत का एक हिस्सा वहन करना पड़ता है और अपने कर्ज चुकाने पड़ते हैं। ऐसे में यह व्यवहार्य नहीं है और इसीलिए इसका फायदा नहीं है। कोल्ड स्टोरेज किराए पर लेना एक विकल्प है। लेकिन किराया भी कम नहीं है और हमेसा पास में उपलब्ध है कि नहीं यह भी महत्वपूर्ण है। इसलिए, किसान के पास दरअसल कोई विकल्प नहीं है और किसान इस लागत का बोझ उठाने के बजाय फसल कटाई के बाद नुकसान उठाने को मजबूर है।
उस बोझ को कम करने के लिए इहरेडिएशन (irradiation) एक छोटी सी प्रक्रिया है जो संबंधित उत्पाद को रेडिएशन यानी विकिरण देती है। इसके तहत खाद्य उत्पाद को नियंत्रित स्तर पर आयोनाइज करने वाला रेडिएशन दिया जाता है ताकि नुकसानदेह बैक्टीरिया, कीड़े, परजीवी आदि मर जाएं और इनकी ताजगी बनी रहे। अक्सर इसे कोल्ड पाश्चराइजेशन कहा जाता है क्योंकि इसमें गर्म करने की आवश्यकता नहीं होती है। खाद्य पदार्थों के संरक्षण का यह नवीनतम तरीका है। इससे फल या फसल खराब होने और पकने में देरी होती है। अंकुरण को रोकता है और भोजन की शेल्फ लाइफ बढ़ाता है। हालांकि तकनीक के रूप में यह नई नहीं है।
भारत में आम का विकिरण 2007 में शुरू किया गया था और 10 साल बाद हमने सफलतापूर्वक ऐसे आम का निर्यात किया। इसके तुरंत बाद, हमने आलू और प्याज जैसी फसल की शेल्फ लाइफ बढ़ाने पर शोध शुरू किया और नेशनल हॉर्टिकल्चर रिसर्च एंड डेवलपमेंट फाउंडेशन द्वारा किए गए शोध ने साबित कर दिया है कि प्याज को इस विधि से गुजारने से गर्मियों में होने वाले नुकसान को 6% कम करने में मदद मिल सकती है। लेकिन इस विधि का उपयोग भी आसान नहीं है और ना ही सब के बूते का है। इस विधि से स्थानीय स्तर पर खपत वाली फसल को लंबी अवधि तक भी रखा जा सकता है। लेकिन इसके लिए भी निवेश की जरूरत है और यह निवेश सरकार नहीं करेगी तो किसानों को फायदा नहीं होने वाला है। इसके बिना हम फिर वहीं पहुंच जाते हैं। कुल मिलाकर, सरकार को फसल रखने के लिए जगह बनाने की जरूरत है और वह हो नहीं रहा है।
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