आनंद से रवाना होकर, गांधी और उनके सहयात्री, अपने लक्ष्य की ओर बढ़े। यात्रा सुबह, एक प्रार्थना के बाद शुरू हो जाती थी और सुबह के दस बजे तक जितनी दूरी तय की जा सकती थी, वह दूरी तय की जाती थी। गांधी जी का उद्देश्य सविनय अवज्ञा आन्दोलन और केवल नमक बनाकर, कानून तोड़ना ही नहीं था, बल्कि उनका उद्देश्य, इसी यात्रा के माध्यम से लोगों को जागृत करना था और वे देश भर में यह संदेश देना चाहते थे, अब यदि हमें, पूर्ण स्वराज्य चाहिए तो, उसके लिए प्राणपण से जुटना और पूरी शक्ति से, लड़ना होगा। 26 जनवरी 1930 का पूर्ण स्वराज्य का संकल्प, जो हमने लिया है, यूं ही घर बैठे और याचिकाओं, सभाओं और अधिवेशनों में पारित किए गए, प्रस्तावों से नहीं पूरा होने वाला है। इसके लिए एकजुटता भी जरूरी है तो, जरूरी है, मानसिक दृढ़ता भी। असलाली से आनंद तक वे लगभग हर जगह उन्होंने बड़ी – बड़ी जनसभाएं की, उन सभाओं में, उनके इस सत्याग्रह अभियान को जनता का अच्छा खासा समर्थन भी मिलता था, और वे अपनी बात जनता के सामने रखते हुए चलते जाते थे।
यात्रा के इसी क्रम में वे बोरसाद पहुंचे और वहां जनता को संबोधित करते हुए कहा-
“एक समय, मैं पूरी तरह से, (ब्रिटिश) साम्राज्य के प्रति वफादार था और दूसरों को वफादार रहना सिखाता भी था। मैंने जोश के साथ “गॉड सेव द किंग” (ब्रिटिश राष्ट्रगान) गाया और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को ऐसा करना सिखाया। अंत में, मेरी आंखों की, पट्टी खुल गई, और जादू टूट गया। मुझे एहसास हुआ कि, यह साम्राज्य वफादारी के लायक नहीं था। मुझे लगा कि यह देशद्रोह के लायक है। इसलिए मैंने राजद्रोह को अपना धर्म बना लिया है। मैं दूसरों को यह समझाने की कोशिश करता हूं कि, जहां देशद्रोह हमारा धर्म है, वहां वफादार होना पाप है। इस सरकार के प्रति निष्ठावान होना, यानी इसके कल्याण की कामना करना, भारत के लोगों के दिलों के बीमार होने की कामना करने के समान है। हमें देश से लूटे गए करोड़ों रुपये के बदले में कुछ नहीं मिलता है; अगर हमें कुछ मिलता है, तो वह लंकाशायर की रेंज है। इस सरकार की नीति को मंजूरी देना गरीबों के खिलाफ देशद्रोह करना है। आपको, अपने आप को इस अपराध से मुक्त कर लेना चाहिए। मुझे विश्वास है कि, मैंने ऐसा किया है। इसलिए मैं इस सरकार के खिलाफ शांतिपूर्ण युद्ध छेड़ने के लिए तैयार हो गया हूं। मैं नमक कानून का उल्लंघन कर इसकी शुरुआत कर रहा हूं। इसी उद्देश्य से मैं यह मार्च निकाल रहा हूं। जगह-जगह हजारों स्त्री-पुरुषों ने इस अभियान को, अपना आशीर्वाद दिया है। यह आशीर्वाद मुझ पर नहीं, बल्कि संघर्ष पर बरसा है।”
गांधी में अपार धैर्य था। पर उनका भी धीरज टूटने लगा था। ब्रिटिश राज को अक्सर वे एक न्यायप्रिय शासन मानते थे, पर न्यायप्रियता का यह ढोंग जब 1919 में रॉलेट एक्ट कानून को थोपने, जलियांवाला बाग नरसंहार पर ब्रिटिश सरकार का बर्बर चेहरा देखने और स्वशासन की मांग को दरकिनार कर के साइमन कमीशन में एक भी भारतीय नियुक्त न करने, जैसी बातें, सामने आईं तो, वे इस अन्यायी ब्रिटिश राज के खिलाफ, पूरी आक्रमकता के साथ खड़े हो गए। उसी का उल्लेख करते हुए, वे जनसभा में कह रहे हैं,
“हमारे धैर्य की कड़ी परीक्षा ली गई है। हमें अपने आप को इस सरकार के जुए से मुक्त करना होगा और स्वराज पाने के लिए हमें किसी भी कठिनाई को झेलने के लिए तैयार रहना होगा। स्वराज पाना हमारा कर्तव्य भी है और हमारा अधिकार भी। मैं इसे एक धार्मिक आंदोलन मानता हूं क्योंकि देशद्रोह हमारा धर्म है। मैं हर पल, इस सरकार के अंत की कामना करता हूं। मुझे अपने शासकों के एक बाल भर भी कोई अपेक्षा नहीं है। हम निश्चित रूप से उनके सामने नहीं झुकेंगे। इसलिए, कृपया अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सचेत हो जाएं और भारत के खिलाफ अपने पापों को धो लें। आज हम नमक कानून की अवहेलना कर रहे हैं। कल हमें अन्य कानूनों को, रद्दी कागज की टोकरी में फेंकना होगा। ऐसा करते हुए हम, इतने घोर असहयोग का अभ्यास करेंगे कि, अंतत: ब्रिटिश के लिए, प्रशासन चलाना ही संभव नहीं रहेगा। जो सरकार, अपना शासन चलाने के लिए, हमारे खिलाफ बंदूकें तानें, हमें जेल भेजें, हमें फांसी दें, उसका सहयोग हम बिलकुल नहीं करेंगे। लेकिन ऐसी सजा, सरकार, कितनों को दे सकती है? कोशिश करो और गणना करो कि, तीस करोड़ लोगों को फांसी देने में, एक लाख अंग्रेजों को कितना समय लगेगा। लेकिन वे इतने क्रूर भी नहीं हैं।”
लेकिन गांधी के इस आक्रामक प्रतिरोध में भी, ब्रिटिश के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी। वे असहयोग की बात कर रहे थे, वे एक ऐसे आंदोलन की बात कर रहे थे, जो ऐसी स्थिति बना दे कि, शासन करना ही, ब्रिटिश राज के लिए, असंभव हो जाय और वे यहां से चले जाए। ब्रिटिश जनता के बारे में, वे कहते हैं,
“वे भी हमारे जैसे इंसान हैं और शायद हम वही काम कर रहे होंते, जो वे कर रहे हैं, अगर हम उनकी स्थिति में होते तो। इसलिए मुझे नहीं लगता कि, इसके लिए उन्हें दोषी ठहराया जाना चाहिए। लेकिन मुझे उनकी नीति इतनी कड़वी लगती है, कि अगर मैं कर सकता तो, आज ही, उनकी नीतियों को नष्ट कर देता, चाहे मुझे सलाखों के पीछे डाल दिया जाए या मुक्त रहने दिया जाए, या नष्ट कर दिया जाए। मैं यहां आपके सामने जो सांस लेता हूं तो, हर सांस के साथ मैं यही चाहता हूं।”
चाहे दक्षिण अफ्रीका में गांधी का सत्याग्रह हो, या, भारत में उनके द्वारा छेड़े गए सविनय अवज्ञा आंदोलन, दोनो ही, सत्याग्रहो में, उन्होंने संबंधित गवर्नर या वाइसरॉय को, अपने हर उठाए जाने वाले कदम और आंदोलन के औचित्य के बारे में, पूरी बात पत्रों द्वारा सूचित करने के बाद ही, वे आगे बढ़े थे। उन्होंने पर्याप्त समय भी उस समस्याओं के समाधान के लिए, सरकार को दिया और अपनी तरफ से, समस्याओं का समाधान सुझाया भी। पर जब उनकी शिकायतों पर, राज्य द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई, तब उन्होंने सत्याग्रह की राह चुनी और जब उन्होंने आंदोलन छेड़ा, तो फिर वे पीछे नहीं हटे। नमक सत्याग्रह के संदर्भ में भी वे, वायसरॉय को भेजे गए अपने पत्रों का हवाला देते हुए, जनता के समक्ष अपनी बात रख रहे हैं,
“कोई नहीं कहता है कि, नमक कर न्यायसंगत है। कोई नहीं कहता है कि, सेना और प्रशासन पर खर्च जायज है। कोई नहीं मानता है कि, भू-राजस्व वसूलने की नीति न्यायोचित है, और न ही वास्तव में लोगों से 20 से 25 करोड़ रुपये वसूल कर, उन्हें शराबी और अफीम का आदी बनाकर उनके घरों को तोड़ना उचित है। ब्रिटिश अधिकारियों को मैने, इस तथ्य से अवगत कराया और पूछा कि, क्या यह सब सच है ? और इसके बारे में क्या किया जा सकता है ? सरकार को, धन की आवश्यकता है। किस उद्देश्य के लिए उनको धन की आवश्यकता है? लोगों का दमन करने के लिए?”
नमक कानून के एक दमनकारी प्राविधान का उल्लेख करते हुए वह कह रहे हैं,
“हाल ही में सरकार ने सिपाही के पद से ऊपर के सभी पुलिस अधिकारियों को नमक कानून को लागू करने वाले अधिकारी के रूप में नियुक्त किया है। उसमें निहित अधिकार के परिणामस्वरूप, एक पुलिसकर्मी भी मुझे गिरफ्तार कर सकता है और, वह जो भी करना चाहे, कर सकता है। अगर वह मुझे गिरफ्तार करने में विफल रहता है तो, यह उसकी कायरता मानी जाएगी। यहाँ हम एक ऐसा कानून देखते हैं, कि गिरफ्तार करने में हुई विफलता को, पुलिस द्वारा प्रदर्शित कायरता, घोषित करता है और विभाग इस, कायरता पर, कठोर दंड दे सकता है। किसी अन्य अधिनियम में जबकि ऐसा प्राविधान नहीं है। कोई भी सिपाही जो हमें नमक बनाते हुए देखता है, जो हमें खारे पानी का पैन गर्म करते हुए देखता है, हमें गिरफ्तार कर सकता है, पैन छीन सकता है और पानी फेंक सकता है। ऐसा क्यों है? यह अन्याय क्यों? इस तरह के अपमानजनक आचरण और ऐसी अमानवीय नीति का विरोध करना हमारा धर्म है।”
गांधी ने सत्याग्रह के लिए, जनता को, प्रेरित और जागृत किया तो, उन्होंने धन की व्यवस्था के लिए चंदा एकत्र करने की परंपरा भी शुरू। वे धन की मांग करते थे, और उन्हे धन बराबर मिल भी रहा था। उनका निजी जीवन और आचरण इतना सादगी भरा और ईमानदार था कि, लोग यह जानते थे कि जो भी पैसा वे दे रहे हैं, उसका दुरुपयोग न तो गांधी जी करेंगे और न ही करने देंगे। दक्षिण अफ्रीका के उनके सत्याग्रह में जेआरडी टाटा ने, गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर, दो बार पच्चीस, पच्चीस हजार रुपए गांधी जी को भेजे थे। टाटा से गांधी जी का संपर्क नहीं था लेकिन गोपाल कृष्ण गोखले का संपर्क था। इस घटना का विस्तृत उल्लेख, रामचंद्र गुहा की पुस्तक गांधी बिफोर इंडिया में किया गया है।
इसी धन का उल्लेख करते हुए गांधी आगे कहना जारी रखते हैं,
“अगर आपको लगता है कि आपने मुझे जो पर्स भेंट किया है, उसके लिए मुझे आपका आभारी होना चाहिए, तो मुझे कहना चाहिए कि मैं आभारी हूं। लेकिन मेरी भूख पैसे से नहीं मिटेगी। मेरी इच्छा है कि आप सभी स्त्री-पुरुष इस यज्ञ में अपना नाम दर्ज कराएं। यह मेरी प्रबल इच्छा है कि, इस हाई स्कूल में पढ़ने वाले सभी छात्र (जिस हाई स्कूल में यह जनसभा हो रही थी) जो पंद्रह वर्ष से अधिक आयु के हैं, और सभी शिक्षक भी अपना नामांकन कराएं। जापान, चीन, मिस्र, इटली, आयरलैंड और इंग्लैंड में जहां कहीं भी क्रांति हुई है, वहां छात्रों और शिक्षकों ने प्रमुख भूमिका निभाई है। यूरोप में, 1914 में 4 अगस्त को युद्ध छिड़ गया, और जब मैं उसी महीने की 6 तारीख को इंग्लैंड पहुंचा, तो मैंने पाया कि छात्रों ने कॉलेज छोड़ दिया था और हथियारों के साथ बाहर निकल गए थे। यहाँ इस धर्मयुद्ध में सत्य, अहिंसा और क्षमा ही अस्त्र हैं। ऐसे शस्त्रों के प्रयोग का परिणाम ही हितकर हो सकता है और ऐसे संघर्ष में भाग लेना प्रत्येक विद्यार्थी और शिक्षक का कर्तव्य है। ऐसे समय में जब भारत को गुलामी से मुक्त करने के लिए अंतिम संघर्ष किया जा रहा है, कोई भी छात्र या शिक्षक जो अपने घर या स्कूल में बना रहता है, उसे अपने देश के लिए देशद्रोही माना जाएगा। क्या ऐसे समय में, आप दिल से कविताएँ सीखने में लगे रहेंगे, जब सरदार जैसा व्यक्ति सलाखों के पीछे है? जिस प्रकार घर में आग लगने पर, सभी उसे बुझाने के लिए बाहर निकल आते हैं, उसी प्रकार आप सभी को हमारे देश के इन कष्टों को समाप्त करने के लिए बाहर निकल आना चाहिए।”
भारत आते ही गांधी समझ गए थे, कि सांप्रदायिक राजनीति, देश की एकता में एक बड़ी बाधा है। अंगेजो को, यह राजनीति हर मौके पर लाभ पहुंचाती रहती थी। ब्रिटिश 1857 के हिंदू मुस्लिम एकता के साथ हुए विप्लव से, यह सीख चुके थे, कि किसी भी तरह का सांप्रदायिक सद्भाव, उनके साम्राज्य के लिए घातक होगा। गांधी इस सद्भाव के जीवन पर्यंत लड़ते रहे और अपनी जान तक दे दी। इस सांप्रदायिक मतभेद को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं,
“जो लोग कहते हैं कि हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी और अन्य लोग एकजुट नहीं हुए हैं, वे झूठ बोलते हैं। यह नमक कर सभी पर समान रूप से लागू होता है। उस कर को समाप्त करने के लिए सभी को एक साथ क्यों नहीं आना चाहिए जिससे एक भैंस और एक गाय भी नहीं बच सकती है ? लोगों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए मैं खुद भी (ब्रिटिश सरकार के समक्ष) जमीन पर दण्डवत हुआ, पर कोई फायदा नहीं हुआ। मैंने, वायसरॉय को, अपील भेजने अपनी बात समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सभी जानते हैं कि, मैं विनम्र भाषा का प्रयोग करना जानता हूं। लेकिन मैं तब एक क्रांतिकारी बन गया, जब राजनीति और अनुनय विनय निष्फल साबित हो गए। मुझे अपने आप को एक क्रांतिकारी के रूप में वर्णित करने में शांति मिलती है और मैं कुछ हद तक अपने धर्म का पालन करता हूं।”
अक्सर क्रांति, संघर्ष, युद्ध, लड़ाई आदि शब्द, हिंसक गतिविधियों से जोड़ दिए जाते हैं, पर गांधी, क्रांति की एक रोचक व्याख्या करते हैं,
“एक ऐसी क्रांति में जो शांत, शांतिपूर्ण और सत्य हो, आपको अपने आप को नामांकित कराना चाहिए, चाहे आप किसी भी धर्म के हों। यदि आप ईमानदारी से अपने आप को सूचीबद्ध करते हैं और, यदि आप अपने साहस को बनाए रख सकते हैं, तो नमक कर समाप्त कर दिया जाएगा, यह प्रशासन समाप्त हो जाएगा और वायसराय को, भेजे गए, पत्र में वर्णित सभी कठिनाइयों के साथ-साथ, उन सभी कठिनाइयों को भी समाप्त कर दिया जाएगा। फिर जब नई प्रशासनिक नीतियां बनानी होंगी तो सांप्रदायिक विवादों को सुलझाने और सभी को संतुष्ट करने का समय आ जाएगा। मैं आप सभी को ईश्वर के नाम से आमंत्रित करता हूं। इस आंदोलन में अंग्रेज भी शामिल होंगे। क्या वे एक अन्याय को सही ठहराने के लिए कई, अन्य अन्याय करेंगे? और क्या वे बेगुनाहों को सलाखों के पीछे डालेंगे, उन्हें कोड़े मारेंगे और उन्हें फाँसी देंगे?”
और उनके भाषण का अंत, इस दार्शनिक और प्रेरक अंदाज में होता है।
“जो असत्य है, जो अन्याय है, उसमें ईश्वर की कभी मर्जी नहीं हो सकती। यह उतना ही स्पष्ट है, जितना मैं, आपसे यहाँ और अभी बोलते दिख रहा हूँ। मैं समान और स्पष्ट रूप से देखता हूं कि, इस प्रशासन के दिन पूरे हो रहे हैं, पूर्ण स्वराज दृष्टिगोचर हो रहा है। ऐसे समय में हम, चुनौतियो से, भाग जाते हैं, तो, हमारे समान अयोग्य कौन होगा?”
(गुजराती नवजीवन, 23/03/1930)
आणंद के बाद उनका यह बोरसाद का भाषण था। यह बड़ी जनसभा थी और, यहां उन्होंने लंबा भाषण भी दिया। इसके बाद वे रास कस्बे के लिये रवाना हो गए, जहां वल्लभभाई पटेल को गिरफ्तार किया गया था। रास तक जनसभाओं का सिलसिला लंबा चलता है और उसके बाद लंबी जनसभाएं इक्का दुक्का ही हुई हैं। गांधी असलाली से, बोरसाद तक आते आते, क्रांति की, जान देकर भी, आजादी पाने का आह्वान करते दिखे। धन की तुलना में, उन्होंने जन जन का आह्वान किया। ब्रिटिश राज को, असहयोग से पंगु बना देने की बात की और क्रांति की बात की, बदलाव की अलख जगाई। लेकिन क्रांति और बदलाव की बात करते करते भी, अपनी अहिंसा और सत्य के मार्ग से, गांधी, जरा भी कहीं, विचलित होते नहीं दिखे। वायसरॉय को जो पत्र उन्होंने नमक कानून या अन्य सुधारो के लिए लिखे थे, उनका तो उन्हे कोई उत्तर ही नहीं मिला था। और जब, उन्होंने नमक कानून तोड़ने के लिए, सत्याग्रह की बात की, तो, जो उत्तर उन्हे मिला, वह एक ठंडा जवाब था। लगा अंग्रेज मुतमइन थे कि, यह आंदोलन भी फ्लॉप हो जाएगा या इसका कोई भी असर देश पर नहीं पड़ेगा, और यदि कुछ पड़ेगा तो वह भी, इतना नहीं होगा कि, उसे नियंत्रित नहीं किया जा सकेगा।
लेकिन वायसरॉय का, गांधी की दांडी यात्रा को लेकर किया गया आकलन गलत निकला। पांच दिन की यात्रा की जैसी खबरें अखबारों में छपी, और कांग्रेस की गतिविधियां जिस तरह से देश के विभिन्न हिस्सों में बढ़ रही थीं, उससे, वायसरॉय के सचिवालय से लेकर लंदन तक ब्रिटिश सरकार की चिंता भी बढ़ रही थी। अब गांधी, रास कस्बे में थे। इसी कस्बे में, सरदार बल्लभ भाई पटेल की गिरफ्तारी, नमक सत्याग्रह की तैयारी अभियान के समय, हुई थी। रास में वे, जापान, चीन, मिस्र, इटली, आयरलैंड और इंग्लैंड में, छात्रों और शिक्षकों की क्रांति में उनकी भूमिका पर एक अपनी बात रखते हैं, और उधर वाइसरॉय, इस सत्याग्रह को रोकने के लिए प्रशासनिक गतिविधियां सक्रिय करने में जुटे रहे।
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