महात्मा गांधी का मानना था, कि लक्ष्य की सफलता तब है, जब उसके लिए पवित्र साधन और रास्ते अपनाये जायें। राज्य व्यवस्था में लोकतंत्र को श्रेष्ठ माना गया है। हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था सबसे पहले आई। इसका प्रमाण ऋग्वेद और अथर्ववेद में मिलता है, जहां राजा अपनी सभा और मंत्रिपरिषद के विमर्श के बाद ही कोई नीति, नियम और निर्णय करता था। गणतंत्र शब्द भी सबसे पहले ऋग्वेद में 40 बार, अथर्ववेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में कई बार प्रयोग किया गया। देवराज इंद्र कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पद था, जो चुना जाता था। वैदिक काल में ग्राम शासन भी देखने को मिलता है। हड़प्पा की सभ्यता के मिले अवशेषों से भी पता चलता है कि वहां के नगरीय शासन को चलाने के लिए नगर निगम जैसी लोक सभायें होती थीं, जो जनहित को ध्यान में रखकर फैसले लेती थीं।
वैदिक काल के बाद राजतंत्र का अस्तित्व सामने आता है, जहां से बुराइयां भी पैदा होती हैं। 15 अगस्त 1947 को तिरंगा फहराकर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जिस लोकतंत्र का श्रीगणेश किया था, उसके बूते ही हम आज खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का दम भरते हैं। आजादी के डेढ़ दशक बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था बदलने लगी, जो अवसरवादिता को बढ़ाने वाली थी। 21वीं सदी की शुरुआत के साथ यह पूरी तरह से अवसरवादी हो गई। सत्ता पर काबिज होने के लिए अब साधनों और रास्तों की पवित्रता नहीं देखी जाती है।
आपको आजादी के पहले की कुछ घटनायें याद दिलाना जरूरी है। ब्रिटिश हुकूमत में जार्ज पंचम ने 12 नवंबर 1930 को पहले गोल में सम्मेलन की शुरुआत की। सम्मेलन में 13 प्रतिनिधि ब्रिटिश सरकार के और 76 सदस्य भारतीय रियासतों, राजनीतिक दलों, अल्पसंख्यकों तथा दलितों के थे। कांग्रेस ने इसमें हिस्सा नहीं लिया था। इसमें डॉ भीमराव अंबेडकर ने जातिवाद और कट्टरपंथी हिंदुओं को जमकर लताड़ा था। उन्होंने कहा था कि “मैं जिन अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में यहां आया हूं, उनकी संख्या हिंदुस्तान की कुल जनसंख्या का पांचवा भाग है, जो ब्रिटेन और फ्रांस की जनसंख्या के बराबर है। उनकी दशा गुलामों से भी बदतर है। वे जातिवादी और कट्टरपंथी हिंदुत्व व्यवस्था में घृणित और पशुवत जीवन-यापन कर रहे हैं। उन्हें छूना पाप माना जाता है। वे मंदिर नहीं जा सकते और न ही कुंओं से पानी ले सकते हैं। उन्हें कोई अधिकार भी नहीं हैं”। हालांकि यह भी सत्य है कि डॉ. अंबेडकर को इस योग्य बनाने में एक ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर की भूमिका थी।
उन्होंने ही अपना उपनाम डॉ. अंबेडकर को दिया था। उनकी दूसरी पत्नी सविता अंबेडकर भी ब्राह्मण थीं। उन्होंने अपने पति के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली थी। बड़ोदरा रियासत के महाराज सयाजी गायकवाड़ ने न सिर्फ डॉ. अंबेडकर को विदेश में पढ़ाया बल्कि नौकरी भी दी थी। अवसरवादी राजनीतिक के चलते उन दोनों के नाम का जिक्र भी नहीं किया जाता है। 1931 के दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि महात्मा गांधी ने कहा था, कि कांग्रेस 85 फीसदी भारतियों का प्रतिनिधित्व करती है। डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। डॉ. अंबेडकर ने इसमें दलितों को हिंदुओं से अलग अल्पसंख्यक का दर्जा दे, स्थायी आरक्षण की मांग की थी, जिसे गांधी जी ने अस्वीकार कर दिया था। गांधी जी ने सांप्रदायिकता को बड़ी समस्या बताया।
मुस्लिम और सिखों के साथ प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने मध्यस्थता की, मगर सफल नहीं रहे। गांधी ने पूर्ण स्वराज के कांग्रेस के फैसले से ब्रिटिश हुकूमत को अवगत कराया। गोलमेज का दूसरा सम्मेलन अवसरवादी सांप्रदायिक राजनीति के कारण असफल रहा था। भारत के लोगों को बांटने की राजनीतिक का आरोप लगाकर तीसरे गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटेन की लेबर पार्टी और भारत के प्रमुख नेताओं-दलों ने हिस्सा नहीं लिया था।
पूर्ण स्वराज की मांग को लेकर कांग्रेस का सविनय अवज्ञा आंदोलन हो या फिर अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन, सभी अवसरवादी राजनीति का शिकार हुए थे। कई दल और नेता उस वक्त अंग्रेजों के साथ मिलकर भारतवासियों की मांग का विरोध कर रहे थे। ऐसे नेताओं के कारण ही भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ। अंग्रेजों का साथ देने का इनाम मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना और विनायक दामोदर सावरकर की हिंदू महासभा को मिला।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अगुआई में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने मिलकर तीन राज्यों में सरकार बनाई। जहां ये दोनों सरकार चला रहे थे, वहीं भारत विभाजन के वक्त सबसे अधिक सांप्रदायिक हिंसा भी हुई।
यह अवसरवादी राजनीति का एक वीभत्स चेहरा था। हालांकि आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिन्ना यूरोपियन शैली में रहते थे। उनके यहां अधिकतर हिंदू कर्मचारी थे। वह कट्टरवाद के समर्थन नहीं थे, मगर जब सत्ता संघर्ष शुरू हुआ तो उन्होंने मुस्लिम कट्टरपंथी चेहरा दिखाकर देश को बांटने का काम किया। जिन्ना की पत्नी पारसी थीं, तो उनकी बेटी दीना जिन्ना ने भी पारसी भारतीय नेविले वाडिया से शादी की। जिन्ना की दूसरी पत्नी भी गैर मुस्लिम थीं। बावजूद इसके, जिन्ना कट्टर मुस्लिम चेहरा बने, जिससे वह पाकिस्तान के पहले वजीर ए आजम बन सके। मौजूदा राजनीति में भी हम यही अवसरवादिता देख रहे हैं।
हम चंद विकास योजनाओं के एक मॉडल पर चर्चा कर समझें।
2006 से 2012 तक केंद्र शासित चंडीगढ़ में विकास योजनाओं पर चर्चा होती थी। यहां मैट्रो, मेडीसिटी, एम्यूजमेंट पार्क, आईटी सिटी और एजूकेशन सिटी जैसी परियोजनाओं पर काम हो रहा था। दिल्ली, यूपी, हरियाणा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश सहित तमाम राज्यों में विकास के मॉडल और योजनाएं आ रही थीं। देश के तमाम औद्योगिक घराने अपने प्रोजेक्ट्स लगाने में जुटे थे। करोड़ों युवाओं के रोजगार की व्यवस्था हो रही थी। अचानक देश के हालात बदले और 2012 के बाद एक नई राजनीतिक बहस शुरु हुई। तमाम परियोजनाएं आरोपों में घिरकर रद्द हो गईं। कई कानूनी पचड़ों में फंस गईं। अब चंडीगढ़ में कोई मेगा प्रोजेक्ट नहीं रहा। इसी तरह तमाम अन्य राज्यों में भी हुआ। इस वक्त देश में 40 करोड़ से अधिक बेरोजगारों की फौज तैयार हो चुकी है। मनरेगा योजना सबसे बड़ा रोजगार दाता बन गई है। देश में 80 करोड़ से अधिक लोग मुफ्त अनाज वाली योजना की लाइन में लगने को मजबूर हैं।
सांप्रदायिक, कट्टरपंथी और जातिवादी नीति के पोषक, अवसरवादी नेताओं-दलों ने एक ऐसी हमजोली बनाई है कि उनके नेता एक दूसरे को गाली देकर अपना बड़ा वोट बैंक तैयार करते हैं। यह वोट बैंक कट्टर अंधभक्तों का होता है। कोई जाति के नाम पर, तो कोई धर्म के नाम पर एकजुट होता है। जो राष्ट्र को विकास के बजाय विनाश की राह ले जाता है। इसका लाभ अवसरवादी राजनीति करने वाले चंद नेताओं और दलों को होता है। वे इसके नाम पर धन भी इकट्ठा करते हैं और सभी सुख भी भोगते हैं। अंधभक्ति में उनको वोट देने वाले नफरत की लड़ाई में मरते हैं।
हमें उस वैदिक और हड़प्पा की सभ्यता वाले लोकतंत्र को स्थापित करना चाहिए, जहां सर्वजन हिताए, सर्वजन सुखाय की सोच होती थी। हमें विचारशील बनना पड़ेगा क्योंकि हम विश्व बंधुत्व की संस्कृति वाले राष्ट्र हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने सही ही कहा है कि इस देश के मुस्लिमों का भी वही डीएनए है, जो यहां के हिंदुओं का है। जाति-धर्म की कट्टरता में ही हमारा देश पहले भी कई बार टूटा है और अब फिर उसी नफरत की आग में जल रहा है। हमें उसे बचाना है। इसके लिए देश के नागरिकों को पहल करनी होगी। हमें सर्वजन विकास को लेकर चर्चा करनी चाहिए, न कि जाति-धर्म के विघटन की। अगर हमने वक्त रहते अवसरवादी राजनीति और राजनीतिज्ञों को किनारे नहीं लगाया, तो भविष्य हमारा और हमारे बच्चों का बरबाद होना तय है। हम इस राजनीति के दो पटों में पिसकर अपना जीवन खत्म कर लेंगे।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं।)