लोकसभा के चुनाव में अभी तीन साल का वक़्त है ,अभी केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ किसी तरह की शुरुआत जल्दबाजी ही होगी और केवल मोदी विरोध के नाम पर विपक्ष की एकजुटता अभी एक चूक होगी , ये कुछ ऐसे फिकरे हैं जिनको लेकर विपक्ष के ही कुछ लोग विपक्ष की एकजुटता की मुहीम को शुरू नहीं होने देना चाहते। बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने जब राज्य विधानसभा के चुनाव में बेहतरीन जीत हासिल की थी तब कुछ लोगों को लगा था कि तमाम कोशिशों और एड़ी चोटी का जोर लगाने के बाद भी जब भाजपा ममता बनर्जी को उनके राज्य में दबा कर नहीं रख पाई और ममता ने अपनी पार्टी को शानदार जीत दिलवाई तो यह प्रयोग केंद्र में भी दोहराया जा सकता है। ममता की जीत के बाद विपक्ष के एक तबके को इसकी उम्मीदें इसलिए भी लगाने लगी थी क्योंकि बंगाल के चुनाव में भाजपा ने राजनीति के साम , दाम , दंड और भेद समेत सभी उपायों का न केवल जम कर उपयोग किया था बल्कि बंगाल की अपनी मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी के ज्यादातर नेताओं को पद और पैसे का प्रलोभन देकर चुनाव से पहले तोड़ भी लिया था ।
बंगाल चुनाव में केंद्र के सभी भाजपा मंत्रियों ने तो काम किया ही था , भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों , पार्टी के प्रदेश अध्यक्षों और असंख्य वरिष्ठ पार्टी नेताओं के साथ ही खुद केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी बंगाल चुनाव में बहुत वक़्त दिया था इसके बाद भी ममता की पार्टी की जीत हुई। ऐसे माहौल में यह मान लिया गया कि ममता ही नरेन्द्र मोदी का विकल्प हो सकती हैं। इसके बाद विपक्ष के ऐसे ही कुछ नेताओं ने ममता बनर्जी पर विपक्ष की एकजुटता के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया था। ऐसे लोगों को शायद ऐसा लगने लगा था कि कांग्रेस के स्थान पर ममता ही वैकल्पिक नेतृत्व की कमान संभाल सकती हैं। ममता को भी लगा कि वो ऐसा कर सकती हैं इसलिए बिना किसी से कहे उन्होंने स्वयं के नेतृत्व में विकल्प की संभावनाएं तलाशना शुरू भी कर दिया। उनका हाल का दिल्ली दौरा भी उनकी इसी मुहिम का हिस्सा माना जा रहा है लेकिन राजनीति में देखे जाने वाले सपनों और यथार्थ के बीच एक बड़ा फासला होता है। वही फैसला यहाँ भी ममता के लिए एक बाधा बन कर सामने आया है। माना की ममता एक तेज तर्रार नेता हैं , बंगाल की राजनीति में उनकी जबरदस्त पकड़ है और विपक्ष के साथ तालमेल करने में भी उनको ज्यादा दिक्कत नहीं होगी।
पर इसके साथ ही यह समझना भी बहुत जरूरी है कि देश के एक राज्य की राजनीति और पूरे देश की राजनीति में बहुत ज्यादा फर्क है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर का संगठनात्मक ढांचा होना भी जरूरी है जो कांग्रेस और भाजपा और काफी हद तक वामपंथियों के पास भी है लेकिन ममता के पास ऐसा कोई संगठनात्मक आधार नहीं है। विपक्ष की क्षेत्रीय ताकतें ममता को उकसा तो जरूर सकती हैं लेकिन सही वक़्त आने पर ये ताकतें धोखा देने से भी पीछे नहीं रहेंगी। वैसे एक राजनीतिक सच यह भी है कि कांग्रेस को केंद्र में रखे बगैर इस देश में फिलहाल अभी तो राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक राजनीति की बात नहीं की जा सकती। यह बात देश के राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने तब भी कही थी जब बंगाल चुनाव संपन्न होने के बाद विपक्षी एकता के सिलसिले में उन्होंने महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री , पूर्व केन्द्रीय मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के संस्थापक दिग्गज मराठा नेता से मुलाक़ात की थी। कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के भी किसी नेता को यह गवारा नहीं होगा कि ममता बनर्जी के रूप में एक क्षेत्रीय पार्टी की नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में विपक्ष को राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदान करे।
कांग्रेस के कुछ ऐसे नेता जिन्होंने जीवन भर सत्ता और शासन का सुख ही भोगा है और उम्र की दहलीज पर आकर खड़े हैं , ऐसे नेता आज विपक्ष में तो हैं लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा में जाने की प्रतीक्षा में हैं , कभी नहीं चाहेंगे की इस सरकार का कोई मजबूत खड़ा हो इसलिए ऐसे नेता विपक्षी एकता की किसी भी मुहीम का मुक्त कंठ से समर्थन नहीं कर सकते। केवल विरोध के लिए मोदी का विरोध न करने की बात कहने वाले कांग्रेस के महान नेता वीरप्पा मोइली इस श्रेणी के एक नेता कहे जा सकते हैं .उन्होंने ही यह बात कही थी। जो लोग अभी चुनाव दूर है और लोकसभा चुनाव में अभी तीन साल का वक़्त है जैसी बात कर रहे हैं उन्हें इस बात की चिढ़ भी हो सकती है की उनकी तरह एक क्षेत्रीय पार्टी किसी राष्ट्रीय पारी का विकल्प कैसे बन सकती है। गौरतलब है कि यह बात शिरोमणि अकाली दल के नेता नरेश गुजराल ने कही थी। उनकी पार्टी अभी तो विपक्ष में है लेकिन कई दशक तक यह पार्टी भी सत्तारूढ़ राजग का ही हिस्सा थी .कुल मिला कर सच बात तो यही है किराष्ट्रीय स्तरपर विकल्प खड़ा करने के लिए नीतियों और कार्यक्रमों के स्तरपर तैयारियां तो अभी से करनी होंगी। ऐसी किसी भी मुहिम में केन्द्रीय नेतृत्व तो कांग्रेस को ही संभालना होगा लेकिन राज्यों के स्तर पर स्थानीय प्रभाव के क्षेत्रीय दलों को भी जिम्मेदारी देकर साथ में लेकर चलना होगा ।