कोविड ( कोरोना वायरस )19 की दो लहरों के आतंक से लोग अभी तक सहमे हुए ही हैं कि इसकी तीसरी लहर के आने की संभावना ने भी दहशत फैलानी शुरू कर दी है। कैसी होगी कोरोना की तीसरी लहर और इससे कितना नुकसान हो सकता , जैसे तमाम मुद्दों पर नए सिरे से सोचने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। कहना गलत नहीं होगा कि कोरोना से जुड़े अतीत के हादसों को याद करते हुए भविष्य के खतरों के संकेत देने की कोशिश में कोई भी किसी से पीछे नहीं है ,चाहे वो देश का कोई विश्वविद्यालय हो या फिर फिर आईआईटी जैसा किसी तकनीकी शिक्षण संस्थान या फिर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान जैसा ही कोई चिकित्सा संस्थान ही क्यों न हो सब कोरोना के आने से पहले ही यह बता देने में मशगूल हैं कि कोरोना की अगली यानी तीसरी लहर कितनी खतरनाक हो सकती है और उससे बचाव के ऐसे तरीके कौन से हो सकते हैं जिन पर अभी से अमल करना शुरू कर दें तो हम खतरों से पार पा सकते हैं। इसी सन्दर्भ में एक हफ्ते पहले दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने देश को सावधान किया था। अभी कुछ दिन पहले ही भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर ने भी इसी तरह की एक रिपोर्ट जारी की थी। इसी तरह देश के दूसरे संस्थान भी पिछले लगभग एक महीने से किसी न किसी रूप में यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि कोरोना की एक – दो नहीं इससे भी ज्यादा लहरें आ सकती हैं, और हम को उनका सामना करने के लिए हर तरह से तैयार रहना चाहिए।
कोरोना जैसे किसी संक्रामक रोग से संबंध में इस तरह पूर्व सूचना देकर लोगों को मानसिक रूप से इसका सामना करने के लिए तैयार रखने की बात बुरी नहीं है , बहुत अच्छी है लेकिन ऐसी पूर्व सूचना देते समय इस बात का भी ध्यान रखने की पूरी जरूरत है कि इससे समाज में किसी तरह का पैनिक पैदा न हो।
इस मामले का एक दूसरा पहलू यह भी है कि एक तरफ तो कुछ लोग और संस्थाएं तीसरी लहर की पूर्व सूचना दे रही हैं तो दूसरी तरफ कुछ लोग और संस्थाएं ऐसे भी हैं जो पूरी तरह से इस संभावना को नकारने में लगी हैं। ऐसा करने वालों में कुछ देश के औद्योगिक घराने भी हैं।
कोरोना की नई लहर को लेकर प्रौद्योगिकी बनाम औद्योगिक घरानों के बीच फैले संशय ने आम लोगों के लिए झमेला खड़ा कर दिया है। आमजन दुविधा में है किस पर यकीन करे , किस पर नहीं। बहरहाल कोरोना लहर को लेकर चली इस परस्पर विरोधी वैचारिक हवा में उलझ कर हम यह भूल जाते हैं कि कोरोना हो या कोई अन्य संक्रामक अथवा दूसरा रोग , इसकी वजह तो सिर्फ इंसान ही है। अपने हित के लिए प्रकृति का अंधाधुंध और अवैज्ञानिक तरीके से दोहन करने के साथ ही इंसान ने अपने आज के फायदे के लिए आने वाली पीढ़ीयों के भविष्य को दांव पर लगाने का जो सिलसिला अपना रखा है और अपनी जीवन शैली को पूरी तरह बदल कर रख दिया है , उसकी वजह से भी असंख्य तरह की बीमारियाँ पैदा हो रही हैं। इंसान की इन गलतियों का प्रतिकूल असर हमारे पर्यावरण पर भी पड़ा और जिसकी वजह से हमारे वातावरण में जहरीली कार्बन डाई आक्साइड की मौजूदगी बढ़ कर 48 फीसदी हो गई जिसका आलम यह हुआ है कि अब हामारा वातावरण बहुत ज्यादा गरम हो गया है और वातावरण की इस गर्मी ने भी कई तरह की बीमारियों को जन्म दिया है।
इनमें कोरोना जैसी कुछ बीमारियां तो एकदम नई हैं जिनका पहले कभी नाम तक नहीं सुना था। भूमंडल के निवासियों में केवल गाँव – शहर की बस्तियों में रहने वाला सफेदपोश इंसान ही नहीं है बल्कि प्रकृति के सीधे संपर्क में रह कर जंगल के जीवन का आनंद उठाने वाले वो इंसान भी हैं जिन्हें हम जनजाति – आदिवासी और न जाने कितने नामों से बुलाते हैं। इनके अलावा जंगल में निवास करने वाले पशु – पक्षी , खग – मृग , जलचर और सहचर जैसे असंख्य प्राणी भी इसी भूमंडल के निवासी हैं , लेकिन सफेदपोश इंसान यह सोचता है कि हर चीज पर उसी का अधिकार है।
इसी अधिकार भाव से इंसान मनमानी करता है और प्रकृति के साथ की गई उसकी यह मनमानी पृथ्वी के दूसरे जीवों के लिए तो परेशानी का सबब बनती ही है , कई बार उसके अपने वजूद के लिए भी संकट का पर्याय बन जाती है। जब किसी वजह से यह सफेदपोश इंसान प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं कर पाता तब ये सारी चीजें एकदम सामान्य सी लगने लगती हैं। इसका एक नजारा तब देखने को मिला जब कोरोना के चक्कर में पूरे देश में एक साथ कई महीनों तक तालाबंदी का दौर चला जिसमें न कल कारखानों में कोई हलचल हुई और न ही रेल की पटरियों , सड़क नदी और आकाश में किसी तरह के यातायात की हलचल हुई और ना दुकान – दफ्तर – स्कूल खुले थे। सब जगह शांति थी , कहीं कोई प्रदूषण नहीं था। ऐसे में गाँव – देहात की बस्तियों के आसपास ऐसे अनेक पशु – पक्षी, दिखाई देने लगे थे जिनको देखे हुए कई दशक बीत चुके थे। अभी कुछ दिन पहले ही एक मित्र ने अपनी फेसबुक पोस्ट चील की फोटो के साथ यह टिपण्णी की थी उत्तराखण्ड के गढ़वाल इलाके में कई साल बाद चील के झुण्ड दिखाई दिए थे। इसी तरह एक अन्य मित्र ने उत्तर प्रदेश के कुछ ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में सारस पक्षियों के आने और दाना चुगने की बात का जिक्र किया था। कहते हैं कि प्रकृति का संतुलन बनाए रखने का अपना एक अलग तरीका होता है। जिस इलाके में सांप जरूरत से ज्यादा होते हैं वहाँ मोर भी उसी अनुपात में मिल जाते हैं। इंसान की ज्यादतियों के चलते सांप भी गायब हो गए थे और मोर भी इधर कोरोना की मार से पैदा हुई शांति ने इन दोनों प्राणियों को फिर से पनपने का मौका दे दिया है . जिनिलाकों से नेवले गायब हो गए थे वहाँ अब ये फिर से दिखाई देने लगे हैं।
इस पृष्ठभूमि में पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित पर्यावरण लेखिका एलिजाबेथ कोलबर्ट का यह कथन सटीक लगता है कि पर्यावरण को होने वाले नुकसान को इंसान की कुदरत को काबू में रखने की फितरत को समझ कर ही कम किया जा सकता है। पिछले दिनों एक अखबार को दिए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने यह बात कही थी .इसी क्रम में पर्यावरण संरक्षण जीव विज्ञानी के . एस . गोपीसुन्दर ने अपने एक आलेख में बताया है कि उत्तर प्रदेश के कुछ गाँव में किसानों के भीड़ भाड़ वाले इलाकों में किस तरह सारस जैसा पक्षी भी उनके साथ आनंद से रहता है , वो भी अकेला नहीं बल्कि झुण्ड में रहते हुए। इसी पृष्ठभूमि में जब हम भारत में संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्रम के प्रमुख अतुल बगाई के हाल में दिए गए एक बयान पर नजर डालें तो इस तथ्य को आसानी से समझ सकते हैं कि कोविड 19 प्रकृति के साथ खिलवाड़ का ही नतीजा है और भारत समेत दुनिया के सभी देशों को पारिस्थितिकी क्षरण को रोकने के प्रयास हर हाल में तेज करने ही होंगे। अतुल बगाई ने साफ़ तौर पर कहा था कि कोरोना महामारी प्राकृतिक इलाकों के क्षरण ,स्थानीय प्रजातियों के विलुप्त होने और उनके शोषण का ही नतीजा है। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत के लिए इस मोर्चे पर कई कदम प्रासंगिक हैं। इनमें नीति बनाने और विधायी कार्रवाई करने के साथ ही विकास की वैकल्पिक गतिविधियां उपलब्ध कराने जैसे प्रयास शामिल हैं। इस मान्यता के अनुसार भारत को ऐसी खाद्य प्रणालियां विकसित करने पर जोर देना होगा जो प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाली न हों। इसके साथ भारत के सन्दर्भ में जोर देकर एक बात यह भी कही जानी चाहिए कि यहां एक ऐसी संस्कृति विकसित की जानी चाहिए जो प्रकृति का सम्मान करती हो।