भारत में ‘ अवामी मीडिया ‘ विकसित करने के प्रयास उसकी आज़ादी की लड़ाई के दौरान से ही होते रहे हैं. क्रांतिकारी कामरेड शिव वर्मा (1904-1997) लाहौर कॉन्सपिरेसी केस-2 में शहीद भगत सिंह के साथ सह-अभियुक्त थे। वे उस कथित बोगस अपराध के लिए ब्रिटिश हुमरानी द्वारा दंडित होने पर हिन्द महासागर में अंडमान निकोबार द्वीप समूह के कुख्यात सेलुलर जेल में ‘ कालापानी ‘ की सज़ा भुगत कर जीवित बचे अंतिम स्वतन्त्रता संग्रामी थे। उन्होंने तमाम यातना के बावजूद ब्रिटिश हुमरानी से माफी नहीं मांगी।
इसी अंडाकार सेलुलर जेल में बंद रहे विनायक सावरकर ने ब्रिटिश हुक्मरानी को कई बार लिखित माफीनामा दिया तो उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया था। ब्रिटिश हुक्मरानी ने सावरकर के माफीनामा से खुश होकर उन्हें पेंशन भी मंजूर कर दी। वह ‘ वीर ‘ कत्तई नहीं थे और अपने नाम के आगे ये शब्द खुद जोड़ लिया था। इस बात की पुष्टि इतिहासकारों ने प्रामाणिक दातावेजों के आधार पर की है। यह भी अकाट्य प्रमाणों के आधार पर साबित हो चुका है कि विनायक सावरकर ने ही नाथुराम गोडसे को नागपुर के एक घर में बुला कर उसे भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या करने के लिए रिवाल्वर दिया था।
गांधी जी की हत्या की पुलिस जांच के हवाले से अंग्रेजी दैनिक, द टाइम्स ऑफ इंडिया के नागपुर संस्करण के फ्रंट पेज पर खबर छपी थी। लेकिन इसका खुलासा नहीं किया गया कि वह घर किनका था। बहुत बाद में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) के नेता देवेन्द्र फड़णवीस ने अपने टवीट में यह भेद खोला कि विनायक सावरकर सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के चीफ जस्टिस (अब रिटायर) जस्टिस शरद एस बोवडे के नागपुर स्थित पुस्तईनी घर जाया करते थे। फड़णवीस जी के टवीट में नाथुराम गोडसे का कोई जिक्र नहीं है। फड़णवीस जी ने इस संभावना का न तो खंडन किया है और ना ही पुष्टि की है कि महात्मा गांधी की हत्या करने के लिए गोडसे को रिवॉल्वर सावरकर ने दी थी। लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के मामले में सावरकर भी अभियुक्त थे इसका खंडन भाजपा की गोडसेवादी सांसद और महाराष्ट्र के मालेगाँव आतंकी बम विस्फोट मामले में अभियुक्त प्रज्ञा सिंह से लेकर कोई भी आज तक नहीं कर सका है।
कामरेड शिव वर्मा ने भारत की त्रिभाषी न्यूज एजेंसी यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया (यूएनआई) के पत्रकार एवं गैर-पत्रकार कर्मचारियों की देश भर की सभी यूनियनों के सर्वोच निकाय यूएनआई एम्पलोईज फेडरेशन के सातवें अखिल भारतीय सम्मेलन के उद्घाटन-सम्बोधन में लिखित रूप से भी खुलासा किया था कि उनके संगठन ने आज़ादी की लड़ाई के नए दौर में ‘ बुलेट के बजाय बुलेटिन ‘ का इस्तेमाल करने का निर्णय किया था। इसी निर्णय के तहत भगत सिंह को 1929 में दिल्ली की सेंट्रल असेम्ब्ली की दर्शक दीर्घा से बम-पर्चे फ़ेंकने के बाद नारे लगाकर आत्म-समर्पण करने का निर्देश दिया गया। इसका मकसद था भगत सिंह के कोर्ट ट्रायल से स्वतन्त्रता संग्राम के उद्देश्यों की जानकारी पूरी दुनिया को मिल सके।
कामरेड शिव वर्मा के शब्द थे: हमारे क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम के समय हमें अपने विचार और उद्येश्य आम जनता तक पहुंचाने के लिए मीडिया के समर्थन का अभाव प्रतीत हुआ था। शहीदे आजम भगत सिंह को इसी अभाव के तहत आत्म समर्पण करने का निर्णय लिया गया था जिससे कि हमारे विचार एवं उद्देश्य आम लोगों तक पहुँच सकें। हमें 15 अगस्त 1947 को विदेशी शासकों से स्वतन्त्रता तो मिल गयी किन्तू आज भी वैचारिक स्वतंत्रा नहीं मिल सकी है। क्योंकि हमारे अख़बार तथा मीडिया पर चंद पूंजीवादी घरानों का एकाधिकार है। अब समय आ गया जबकि हमारे तरुण पत्रकारों को इसकी आज़ादी के लिए मुहीम छेड़ कर वैचारिक स्वतंत्रा प्राप्त करनी होगी। क्योंकि आज के युग में मीडिया ही कारगर शस्त्र है। किसी पत्रकार ने लिखा था कि सोविएत रूस में बोल्शेविकों नें बुल्लेट का कम तथा बुलेटीन का प्रयोग अधिक किया था। हमारे भारतीय क्रांतिकारियों ने भी भगत सिंह के बाद अपनी अपनी आजादी की लड़ाई में बुल्लेट का प्रयोग कम करके बुलेटीन का प्रयोग बढ़ा दिया था। अब हम जो लड़ाई लडनी है वह शारीरिक न होकर वैचारिक होगी जिसमे हमें मीडिया रूपी ब्रह्मास्त्र क़ी आवश्यकता होगी। विचारों क़ी स्वत्रंत्रता के लिए तथ्यात्मक समाचार आम जनता तक पहुंचाने का दायित्व जनसंगठनों पर है। अखबारों को पूंजीवादी घराने से मुक्त करा कर लिए जनवादी बनाया जाये। जिससे वह आर्थिक बंधनों से मुक्त होकर जनता के प्रति अपनी वफादारी निभा सके।