राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने चार महानुभावों- समाजवादी आइकन चौधरी चरण सिंह, पूर्व प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर और कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को भारत रत्न प्रदान किया। इन सभी को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। पांचवें पुरस्कार विजेता लालकृष्ण आडवाणी बीमार रहने के कारण समारोह में शामिल नहीं हुए।
नरसिम्हा राव के बेटे पीवी प्रभाकर राव ने राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक समारोह में राष्ट्रपति से अपने पिता को दिया गया पुरस्कार प्राप्त किया।
चौधरी चरण सिंह के पोते और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के अध्यक्ष जयंत सिंह ने राष्ट्रपति मुर्मू से सम्मान स्वीकार किया।
स्वामीनाथन की बेटी नित्या राव और कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर ने राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त किया।
कौन थे कर्पूरी ठाकुर?
24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में कर्पूरी ठाकुर का जन्म हुआ था। वो हज्जाम (नाई) समाज से आते थे, जो अति पिछड़ा वर्ग में आती है। कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार डिप्टी सीएम, दो बार मुख्यमंत्री और कई बार विधायक और विपक्ष के नेता रहे। 1952 में सोशलिस्ट पार्टी की टिकट पर ताजपुर सीट से पहला विधानसभा चुनाव जीता था। इसके बाद से वो कोई भी विधानसभा चुाव नहीं हारे। कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्यमंत्री जरूर रहे, लेकिन कार्यकाल कभी पूरा नहीं कर सके। वो दो बार- दिसंबर 1970 से जून 1971 तक और दिसंबर 1977 से अप्रैल 1979 तक मुख्यमंत्री रहे हैं। हालांकि, खास बात ये है कि वो बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे।
कर्पूरी ठाकुर, सामाजिक न्याय का पर्याय और उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों की वकालत करने वाला नाम, बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में एक प्रभावशाली व्यक्ति बने रहे। नाई समाज में गोकुल ठाकुर और रामदुलारी देवी के घर जन्मे कर्पूरी ठाकुर की साधारण शुरुआत से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता के गलियारों तक की यात्रा सार्वजनिक सेवा के प्रति उनके लचीलेपन और समर्पण का प्रमाण थी।
1970 के दशक में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल अभूतपूर्व था, खासकर समाज के वंचित वर्गों के लिए। दिल से समाजवादी, ठाकुर अपने छात्र जीवन के दौरान राष्ट्रवादी विचारों से गहराई से प्रभावित थे और बाद में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन में शामिल हो गए। उनकी राजनीतिक विचारधारा को ‘लोहिया’ विचारधारा द्वारा आगे आकार दिया गया, जिसने निचली जातियों को सशक्त बनाने पर जोर दिया।
ठाकुर के सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से एक आरक्षण के लिए “कर्पूरी ठाकुर फॉर्मूला” की शुरुआत थी, जिसका उद्देश्य सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था।
नवंबर 1978 में उन्होंने बिहार में पिछड़े वर्गों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। यह एक ऐसा कदम था जिसने 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों के लिए मंच तैयार किया। इस नीति ने न केवल पिछड़े वर्गों को सशक्त बनाया बल्कि क्षेत्रीय दलों के उदय को भी बढ़ावा दिया जिसने हिंदी पट्टी में राजनीति का चेहरा बदल दिया।
एक शिक्षा मंत्री के रूप में ठाकुर ने मैट्रिक स्तर पर अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में समाप्त कर दिया। उन्होंने विशेष रूप से पिछड़े क्षेत्रों में कई स्कूल और कॉलेज स्थापित किए, और कक्षा 8 तक की शिक्षा मुफ्त कर दी, जिससे स्कूल छोड़ने की दर में काफी कमी आई।
कर्पूरी ठाकुर की विरासत शैक्षिक सुधारों से भी आगे तक फैली हुई है। उन्होंने प्रमुख भूमि सुधारों की शुरुआत की, जिससे जमींदारों से भूमिहीन दलितों को भूमि का पुनर्वितरण हुआ, जिससे उन्हें “जननायक” या पीपुल्स हीरो की उपाधि मिली।
विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग से महत्वपूर्ण प्रतिरोध और दुर्व्यवहार का सामना करने के बावजूद, ठाकुर की नीतियों ने भविष्य के नेताओं के लिए सामाजिक न्याय की वकालत जारी रखने के लिए आधार तैयार किया।
चौधरी चरण सिंह किसानों के चैंपियन रहे-
देश के पांचवें प्रधान मंत्री के रूप में कार्य करने वाले चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न पुरस्कार को लोकसभा चुनाव से पहले जाट समुदाय और किसानों तक भाजपा की पहुंच के रूप में देखा जा रहा है। चरण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे और उन्हें “किसानों के चैंपियन” के रूप में याद किया जाता है।
चरण सिंह का जन्म 1902 में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के नूरपुर में एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने 1923 में विज्ञान से स्नातक की एवं 1925 में आगरा विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। कानून में प्रशिक्षित चरण ने गाजियाबाद से अपने पेशे की शुरुआत की। वे 1929 में मेरठ आ गये और बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए।
उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार का पूरा श्रेय उन्हें जाता है। ग्रामीण देनदारों को राहत प्रदान करने वाला विभागीय ऋणमुक्ति विधेयक, 1939 को तैयार करने एवं इसे अंतिम रूप देने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उनके द्वारा की गई पहल का ही परिणाम था कि उत्तर प्रदेश में मंत्रियों के वेतन औऱ उन्हें मिलने वाले अन्य लाभों को काफी कम कर दिया गया था। मुख्यमंत्री के रूप में जोत अधिनियम, 1960 को लाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह अधिनियम जमीन रखने की अधिकतम सीमा को कम करने के उद्देश्य से लाया गया था ताकि राज्य भर में इसे एक समान बनाया जा सके।
चौधरी चरण सिंह ने अत्यंत साधारण जीवन व्यतीत किया और अपने खाली समय में वे पढ़ने और लिखने का काम करते थे। उन्होंने कई किताबें एवं रूचार-पुस्तिकाएं लिखी जिसमें ‘जमींदारी उन्मूलन’, ‘भारत की गरीबी और उसका समाधान’, ‘किसानों की भूसंपत्ति या किसानों के लिए भूमि, ‘प्रिवेंशन ऑ डिवीन ऑ होल्डिंग्स बिलो ए सर्टेन मिनिमम’, ‘को-ऑपरेटिव फार्मिंग एक्स-रे’ आदि प्रमुख हैं।
एमएस स्वामीनाथन को हरित क्रांति के जनक के रूप में जाना जाता है-
एमएस स्वामीनाथन ने देश में खाने की कमी न होने के उद्देश्य से कृषि की पढ़ाई की थी। दरअसल, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1943 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था, जिसने उन्हें झकझोर कर रख दिया। इसे देखते हुए उन्होंने 1944 में मद्रास एग्रीकल्चरल कॉलेज से कृषि विज्ञान में बैचलर ऑफ साइंस की डिग्री हासिल की। 1947 में वह आनुवंशिकी और पादप प्रजनन की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) आ गए। उन्होंने 1949 में साइटोजेनेटिक्स में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने अपना शोध आलू पर किया था।
एमएस स्वामीनाथन को भारत में हरित क्रांति का अगुआ माना जाता है। वह पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने सबसे पहले गेहूं की एक बेहतरीन किस्म की पहचान की। इसके कारण भारत में गेहूं उत्पादन में भारी वृद्धि हुई।
प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथ का जन्म मद्रास प्रेसिडेंसी में साल 1925 में हुआ था। स्वामीनाथन 11 साल के ही थे जब उनके पिता की मौत हो गई। उनके बड़े भाई ने उन्हें पढ़ा-लिखाकर बड़ा किया। उनके परिजन उन्हें मेडिकल की पढ़ाई कराना चाहते थे लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई की शुरुआत प्राणि विज्ञान से की। देश को अकाल से उबारने और किसानों को मजबूत बनाने वाली नीति बनाने में उन्होंने अहम योगदान निभाया था। उनकी अध्यक्षता में आयोग भी बनाया गया था जिसने किसानों की जिंदगी को सुधारने के लिए कई अहम सिफारिशें की थीं।
स्वामीनाथन को उनके काम के लिए कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है, जिसमें पद्मश्री (1967), पद्मभूषण (1972), पद्मविभूषण (1989), मैग्सेसे पुरस्कार (1971) और विश्व खाद्य पुरस्कार (1987) महत्वपूर्ण हैं। पिछले साल 28 सितंबर को एमएस स्वामीनाथन का चेन्नई में निधन हो गया था।
नरसिम्हा राव ने आर्थिक विकास के नए युग को बढ़ावा दिया-
नरसिम्हा राव लगातार आठ बार चुनाव जीते और कांग्रेस पार्टी में 50 साल से ज्यादा समय गुजारने के बाद भारत के प्रधानमंत्री बने। वो आठ बच्चों के पिता थे, 10 भाषाओं में बात कर सकते थे और अनुवाद के भी उस्ताद थे। नरसिम्हा राव 20 जून, 1991 से 16 मई, 1996 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। जब उन्होंने पहली बार विदेश की यात्रा की तो उनकी उम्र 53 साल थी। उन्होंने दो कंप्यूटर लैंग्वेज में मास्टर्स किया और 60 साल की उम्र पार करने के बाद कंप्यूटर कोड बनाया था। लेकिन उनकी यह दास्तां यहीं खत्म नहीं होती। पी रंगा राव के पुत्र स्व पी.वी. नरसिंह राव का जन्म 28 जून 1921 को आंध्र प्रदेश के करीमनगर में हुआ था। उन्होंने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय, मुंबई विश्वविद्यालय एवं नागपुर विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई की थी। पीवी नरसिंह राव के तीन बेटे और पांच बेटियां हैं।
पीवी नरसिम्हा राव भारतीय राजनीति में एक प्रभावशाली व्यक्ति थे, जो 1991 से 1996 तक भारत के 9वें प्रधान मंत्री के रूप में कार्यरत थे। 28 जून, 1921 को आंध्र प्रदेश के वंगारा में जन्मे राव का कार्यकाल महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों और सामाजिक चुनौतियों से भरा था।
वह गैर-हिंदी भाषी दक्षिण भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, जो अपनी विद्वता और भाषाई क्षमताओं के लिए जाने जाते थे। राव के प्रशासन ने 1991 के आर्थिक सुधार, बाबरी मस्जिद विध्वंस और 1993 के लातूर भूकंप सहित ऐतिहासिक घटनाओं की निगरानी की।
वह नेहरू-गांधी परिवार के बाहर पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने कार्यालय में पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। उनकी राजनीतिक यात्रा आंध्र प्रदेश में शुरू हुई, जहां उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा और नेतृत्व कौशल का प्रदर्शन करते हुए कई महत्वपूर्ण मंत्री पद संभाले।
प्रधान मंत्री के रूप में नरसिम्हा राव का कार्यकाल महत्वपूर्ण परिवर्तन का काल था, जिससे उन्हें ‘भारतीय आर्थिक सुधारों के जनक’ की उपाधि मिली। उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान 1991 का आर्थिक सुधार था, जिसने भारत के लाइसेंस राज को खत्म कर दिया, जिससे देश एक बाजार-उन्मुख अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गया।
वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के साथ मिलकर राव की नीतियों ने भारत को आर्थिक पतन से बचाया और भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया। उनकी साहसिक नीतियों ने बाद के दशकों में भारत की आर्थिक वृद्धि की नींव रखी, जिससे देश के विकास पथ पर स्थायी प्रभाव पड़ा।
नरसिम्हा राव बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे, जो अपनी विद्वतापूर्ण गतिविधियों और भाषाई क्षमताओं के लिए जाने जाते थे। वह कई भाषाओं में पारंगत थे और एक विपुल लेखक और अनुवादक थे। उनकी बौद्धिक गहराई और समझ ने उन्हें “विद्वान प्रधानमंत्री” के रूप में ख्याति दिलाई, जो उनके शैक्षणिक कौशल और राजनीतिक चतुराई के अद्वितीय मिश्रण को दर्शाता है।
भारत के आर्थिक परिवर्तन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, राव की विरासत पर पार्टी के अंदर की राजनीति का ग्रहण लग गया है। आर्थिक सुधारों में उनका योगदान, जिसका श्रेय अक्सर मनमोहन सिंह को दिया जाता है, बहस और विवाद का विषय रहा है। राव के निर्णायक नेतृत्व और भारत के उत्थान को आकार देने में उनकी भूमिका को कुछ लोगों ने स्वीकार किया है, जबकि अन्य ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान सामाजिक सुरक्षा को संभालने की उनकी आलोचना की है।
राष्ट्रपति भवन में हुए इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और अन्य गणमान्य लोग शामिल हुए।