फिल्म अदाकारा कँगना रनौत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के राजनीतिक अंग, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 के लोक सभा चुनाव में मिली जीत को ब्रिटिश हुक्मरानी से हिंदुस्तान को 1947 में मिली आजादी से भी श्रेयस्कर यूं ही नहीं ठहरा दिया। इसके पीछे सुनियोजित योजना है , जो बहुत लंबे अर्से से कायम है। ये दीगर बात है कि इतिहास पुनर्लेखन में लगे आरएसएस के ही एक आनुषांगिक संगठन के अभियान को फिल्मों में घुसने का ज्यादा मौका अब मिला है। भारत की आजादी के करीब 70 बरसों तक ऐसा मौका नहीं मिल सका था।
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद करीब आठ बरस से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज मोदी जी और उनके भक्तो को भी फर्जी राष्ट्रवाद की एक अदद हिरोईन की शिद्दत से तलाश थी। उन्हें अपनी तलाश कँगना में मिल गई। कँगना मूलतः हिमाचल प्रदेश के पहाड़ से है और दिखने में सुंदर है। अंदर से वह उतनी सुंदर भी नहीं हैं।
कँगना,सबसे पहले महेश भट्ट की स्टोरी लाइन पर 2006 में बनी मुंबइया मसाला टाइप की फ़िल्म गैंगस्टर अ लव स्टोरी में दिखी। कँगना फिर फिल्म स्टार बन गई। कँगना मोदी जी की तरह ही मीडिया का बखूबी इस्तेमाल करती है। वह चर्चा में बने रहने के लिए नया जुमला प्रचारित करती रहती है या फिर कोई नया शिगूफा छोड़ देती है। ये सब चाहे उनके प्रेम या रंजिश के प्रकरण हों। रितिक रोशन का फिल्मी कैरियर बुलंदी पर था तो कँगना ने उनके संसर्ग के जरिए खूब पब्लिसिटी पाई। वह लोगों की सहानुभूति हासिल करने के लिए मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री में वुमनाइजर महारथियों का विक्टिम कार्ड भी खेलती है।
कँगना को मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री में खास भाव नही मिला तो उन्होंने फर्जी राष्ट्रवाद का अपना स्वांग रच लिया। कंगना एक अदद हीरोइन ही नहीं बल्कि फिल्म निर्माता भी हैं। कहते हैं वह किसी फिल्म में एक्टिंग के लिए 11 करोड़ रुपये लेती हैं। वह कोई ब्रांड एंडोर्समेंट के लिए एक से डेढ़ करोड़ रुपये हासिल कर लेती है। वह बरस भर में तकरीबन 100 करोड़ कमाती है। आयकर विभाग के सार्वजनिक ब्योरे के मुताबिक उनकी आय पिछले दो बरस में किसी अदाकारा से ज्यादा है। और यह सालाना करीब 37 फीसद की रेट से बढ़ी है।
कंगना ने रील रियल लाइफ का कॉकटेल बनाकर खुद को मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री का सबसे ज्यादा बिकाऊ ब्रांड बना लिया है। ये भी गौरतलब है कि उन्होंने गैंगस्टर से लेकर 2020 की बनी फिल्म पंगा तक में हर वो काम किये जिनका वह विरोध करती दिखती है।
कँगना के तेवर ने अंधभक्तों पर बड़ा असर किया। वह पुरानी कहावत एवरी पब्लिसिटी इज गुड पब्लिसिटी को चरितार्थ कर रही है। कंगना का मुंबई में अपने दफ्तर को राममन्दिर कहना इसकी गवाह है। उनके दफ्तर निर्माण में अनियमितता के खिलाफ जब बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) की अतिक्रमण विरोधी कारवाई हुई तो उन्होंने इसकी तुलना भारत पर मुगल बादशाह बाबर के 1526 के हमले में पानीपत की पहली लड़ाई से कर दी। वह मुंबई को पाक-अधिकृत कश्मीर कहती है। उनकी भाषा हिंसक है जिसमें साम्प्रदाईक घृणा की फासीवादी सियासत का भगवा रंग है। उन्होने अपने को अधिनायकत्व की परम भक्त के रूप मे पेश किया है। करणी सेना यूं ही नहीं उनके समर्थन में आई है। करणी सेना, पद्ममावत फिल्म के सन्दर्भ में जौहर और सती जैसे मध्ययुगीन बार्बर कर्मकांड का समर्थन करती रही है. कंगना ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की छवि किडनैप कर ली। हकीकत ये है कि लक्ष्मीबाई न तो सती हुई थी, न ही उन्होने जौहर किया था, न ही उन्होने कभी ब्रिटिश सत्ता से समझौता किया। वह वीरांगना थी, अंग्रेजों के राज के खिलाफ मुकाबले में शहीद हुई थी।
प्रसंग पद्मावत फिल्म और सती कुआँ
बीते दौर की भाजपा समर्थक अभिनेत्री पायल रोहतगी ने कुछ अर्सा पहले सती प्रथा के समर्थन में ट्वीट कर, इस कुप्रथा पर रोक लगाने का क़ानून बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले समाज सुधारक राजा राममोहन राय को अंग्रेज शासकों का चमचा बताया। एक ट्वीट को शेयर कर पायल ने लिखा, ‘ नहीं वे अंग्रेज़ों के चमचे थे। अंग्रेजों ने राजा राममोहन राय का इस्तेमाल सती प्रथा को बदनाम करने के लिए किया। सती परंपरा देश में अनिवार्य नहीं थी। बल्कि मुगल शासकों द्वारा हिंदू महिलाओं को वेश्यावृति से बचाने के लिए इस प्रथा को लाया गया था.सती प्रथा महिलाओं की मर्जी से होता था। सती किसी भी मामले में अनाधुनिकीकृत प्रथा नहीं थी।
इसके पहले आम चुनाव प्रचार के शोरगुल के दौरान 18 मई को कांग्रेस नेता एवं राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा ‘ जौहर का होना गर्व और स्वाभिमान की बात ’ थी तो इस पर ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया। उन्होंने जोधपुर एयरपोर्ट पर मीडियाकर्मियों से बातचीत में कहा, ” जौहर अलग होता है और सती प्रथा अलग होती है। सती प्रथा पर पूरे देश रोक लगी है। जो जौहर की भावना है इतिहास की वह सभी जानते हैं। उस वक्त जौहर हुआ तो कौन स्वीकार नहीं करेगा। उन्होंने यह टिप्पणी राजस्थान विधान सभा के चुनाव के बाद राज्य की सत्ता में कांग्रेस के आने के बाद स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में उन बदलाव पर उठे विवाद के बीच की जिनमें पिछली बीजेपी सरकार के दौरान शुरू की गई स्कूली पाठ्य पुस्तकों में दी गयी सामग्री को हटाना शामिल है।
इतिहास में बहुत कुछ हुआ जो तथ्य है। लेकिन उन्हें वाजिब नहीं ठहराया जा सकता है। खासकर तब जब सती कुप्रथा के विरोध में आंदोलन के उपरान्त सती प्रथा पर रोक लगाने के ब्रिटिश राज में उठाये गए विधिक उपाय के करीब एक सौ वर्ष बाद स्वतंत्र भारत की केंद्रीय विधायिका ने भी अधिनियम पारित कर दिए हैं। सवाल है क्या जौहर, सती का बहुवचन नहीं है? अगर है, और विधिक रूप से यही है, तो मुख्यमंत्री का पद संभाले हुए गहलौत ने कैसे कह दिया कि दोनों अलग-अलग चीजें है। यही नहीं उनका कहना कि जौहर गर्व और स्वाभिमान की बात थी, क्या आपत्तिजनक नहीं है ?
आगे और चर्चा से पहले एक ‘ सती कुंआ ‘ की तस्वीर काबिलेगौर है जो हम इस पर्चा के साथ पेश कर रहे हैं. ये कभी राजस्थान के नागौर जिला में कुचामन किला क्षेत्र में होता था। भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के कुछ दशक बाद जब राजस्थान में सती निरोधक प्रांतीय कानून बना तो विधिक दबाब में राज्य सरकार को इस कुंआ को समतल करने का आदेश देना पड़ गया। वह जगह अब भी है, जहां यह कुंआ होता था। वो कुंवा तो नहीं रहा पर उस सती कुप्रथा को हमारे समाज में अवैध रूप से महिमामंडित करने का क्रम जारी है, पायल रोहतगी का ट्वीट और अशोक गहलौत का बयान भी पद्मावत फिल्म में इतिहास के तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर तैयार स्क्रिप्ट मौजूदा क़ानून के प्रावधानों के तहत आपराधिक मंतव्य से कम नहीं हैं।
इस अमानवीय अपराध को जायज़ ठहराने वालों से मुकाबला के लिये क़ानून , इतिहास और साहित्य समेत अन्य बातों को बार-बार उजागर करने के अलावा शायद इस तस्वीर की भी दरकार रहेगी.यह तस्वीर नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 1980 के दशक में पढ़े सतीश कुमार से मिली , जो अब हरियाणा के रोहतक में राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह शौकिया छायाकार भी हैं। सती कुआं की यह तस्वीर उन्होंने बरसों पहले क्लिक की थी। तस्वीर राजस्थान के एक पूर्ववर्ती ‘ सती कुआं ‘ का है जो कभी नागौर जिला में स्थित कुचामन किला क्षेत्र में होता था। पर्वत के सबसे ऊपरी हिस्से पर चील का घोंसला जैसा बना यह किला राजस्थान के सबसे पुराने किलों में से है। इसका निर्माण क्षत्रिय प्रतिहार वंश के सम्राट नागभट्ट प्रथम ने सन 750 में कराया था। उस वंश के छठी सदी से 11 वीं सदी तक के राज में ऐसे कई किलो का निर्माण हुआ, जिनमें मण्डौर, जालौर, कुचामन, कन्नौज, ग्वालियर भी शामिल है। कुचामन का किला उसके भीमकाय परकोटो, 32 दुर्गों , 10 द्वारो और विभिन्न तरह के प्रतिरोधक क्षमता वाला किला है। किले में कई भूमिगत टैंक , गुप्त ठिकाने, अंधकूप ,कारागार आदि बताये जाते हैं। अब यह हेरिटेज होटल में तब्दील हो गया है।
निःसंदेह पद्मावत जैसी फिल्मों ने हमारे समाज का अहित ही किया। भारतीय समाज पुरुष सत्तात्मक ही है. राजा राममोहन राय के समय बने निषेध विधान के बावजूद सती कुप्रथा की झलक जब-तब सामने आती आ ही जाती है , दिवराला काण्ड के बाद भी। भारतीय समाज की सड़न के कारणों का सतत उल्लेख किया जाना चाहिए। क्योंकि तभी उसके निवारण के रास्ते मिल सकते हैं। हमारा समाज फिल्मों से प्रभावित होता रहा है। कई फिल्मों ने हमारे समाज को साकारात्मक दिशा दी है। लेकिन कुछ फिल्मों ने हमारे समाज की सड़न को बढ़ाया है। उनमें ‘ पद्मावत ‘ का जिक्र लाजिमी है। क्योंकि इसमें ‘जौहर’ को महिमामंडित किया गया है.फिल्म के अंत में नेपथ्य से महिला स्वर में फिल्म की मुख्य किरदार पद्मावती के जौहर की प्रशस्ति की गई है।
जेएनयू से ही हिन्दी की स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त कर चुके फिल्म पत्रकार अजय ब्रम्हात्मज ने पद्मावत को पुणे में देख कर फिल्म के अंत में नेपथ्य से महिला स्वर में फिल्म की मुख्य किरदार पद्मावती के जौहर की प्रशस्ति की गई है।
सन 1988 में केन्द्र में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में सती कुप्रथा और उसके महिमामंडन रोकने के लिए राष्ट्रीय अधिनयम बना था, जिसके लागू होने के बाद से देश में किसी सतीकाण्ड की खबर नहीं है. पर यह भी सच है कि उसके महिमामंडन की पूर्ण रोकथाम नहीं की जा सकी है.इसका ज्वलंत उदाहरण संजय लीला की यह कमर्सियल फिल्म है जिसमें ‘ जौहर ‘ को खुल कर महिमामंडित किया गया है। गौरतलब है कि जौहर, सती का ही बहुवचन है।
अजय ब्रम्हात्मज ने हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार-इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1884-1941) के एक आलेख के हवाले से रेखांकित किया भारत के सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी (1477-1542 ) की अवधी में लिखी बहुचर्चित किन्तु काल्पनिक काव्य कृति , पद्मावत में कहीं भी सती प्रथा को महिमामंडित नहीं किया गया है।
संदर्भित फिल्म का नाम पहले पद्मावती था, जिसे बाद में पद्मावत नाम से रिलीज किया गया। फिल्म का निर्माण मुकेश अम्बानी की एक कंपनी ने किया है। इसके निर्देशक संजय लीला भंसाली हैं। जो 1988 में अग्रणी फिल्मकार श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी और दूरदर्शन पर प्रसारित हिंदी धारावाहिक, भारत एक खोज, के कुल 53 में से पद्मावत काव्य रचना पर आधारित एपिसोड के कला निदेशक थे। यह धारावाहिक , पांच हज़ार वर्ष पूर्व से लेकर 1947 तक के भारतीय इतिहास पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ब्रिटिश राज में अहमदनगर की जेल में अप्रैल-सितम्बर 1944 में सरल अंग्रेजी में लिखित ग्रन्थ , डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया , पर आधारित था।
जौहर , सती कुप्रथा का ही बहुवचन है जो राजा राममोहन राय की पहल पर 1829 में बंगाल सती नियमन अधिनियम के तहत प्रतिबंधित है.कालांतर में इस अधिनियम को और कड़ा कर सती के महिमामंडन को भी आपराधिक कृत्य माना गया है.राजस्थान सरकार ने 1987 में सती निरोधक अधिनियम बनाया जो भारत के संसद के पारित सती कृत्य (निरोधक ) अधिनियम, 1987 की बदौलत राष्ट्रीय कानून में परिणत हो गया। इस कानून के तहत किसी विधवा के स्वैछिक रूप से अथवा उसे बलपूर्वक ज़िंदा जला या दफना देने का कृत्य ही नहीं बल्कि इस कुकृत्य का किसी भी तरह का समारोह मनाकर या जुलूस में भागीदारी कर कोई ट्रस्ट बना कर या मंदिर का निर्माण कर या सती (जौहर) करने वाली विधवा- विधवाओं की स्मृति को सम्मानित करने और महिमामंडित करना प्रतिबंधित है। इस राष्ट्रीय क़ानून का प्रारूप केन्द्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने तैयार किया था। सती कुप्रथा को रोकने और इस जधन्य अपराध के महिमामंडन पर कड़ा अंकुश लगाने के उपायों को और भी कारगर ढंग से लागू करने के लिए 1987 के इस राष्ट्रीय अधिनियम के तहत कुछेक रूल भी बनाए गए। इस कानून के भाग 1 (2) में निहित परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पद्मावत फिल्म में सती (जौहर ) कुकृत्य का किया गया महिमामंडन आपराधिक दंड प्रक्रिया की धाराओं के अनुसार दंडनीय अपराध है। ऐसे अपराध के लिए उपरोक्त राष्ट्रीय क़ानून के भाग-2 की विभिन धाराओं के अनुसार न्यूनतम दंड एक वर्ष का कारावास और पांच हज़ार रूपये का जुर्माना भी है।अधिनियम के भाग-3 में इस अपराध को रोकने और अपराध हो जाने की स्थिति में समुचित कदम उठाने के लिए सम्बंधित जिला अधिकारियों को प्राधिकृत करने के अलावा भाग-4 में विशेष अदालत के गठन का प्रावधान है। भाग-5 में विविध प्रावधान भी हैं जिनके तहत ऐसे अपराध के लिए विशेष अदालत द्वारा दोषी पाए गए व्यक्ति , भारत के जन-प्रतिनिधित्व अधिनयम की धाराओं के अनुसार पांच वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य रहेंगे।
गौरतलब है कि 1987 में रूप कँवर-दिवराला सती कांड का अपने पत्रकारीय लेखन से महिमामंडन करने के कारण हिंदी दैनिक, जनसत्ता के तत्कालीन प्रधान संपादक प्रभाष जोशी (अब दिवंगत) का देश के नागरिक समाज ने पुरजोर विरोध किया था। इस विरोध के तहत उक्त दैनिक अखबार का पाठकों द्वारा बहिष्कार करने का अभियान भी चलाया गया था.संभवतः उसी अभियान का परिणाम था कि 1987 में राजस्थान में हरिदेव जोशी के मुख्यमंत्रित्व काल में नया कानून बना और 1988 में केन्द्र में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्रीय अधिनियम बना। उस अधिनयम के लागू होने के बाद से देश में किसी सतीकाण्ड की खबर नहीं है लेकिन उसके महिमामंडन की पूर्ण रोकथाम नहीं की जा सकी है , जिसका एक ज्वलंत उदाहरण संजय लीला की यह कमर्सियल फिल्म है। स्पष्ट है कि यह फिल्म सिनेमाकला के लिए नहीं धन कमाने के इरादे से बनाई और प्रदर्शित की गई। इस फिल्म ने भारत के एक राष्ट्रीय क़ानून को धता बता दिया और हमारी सरकार तमाशा देखती रही, विधि निर्माता और विधिवेत्ता लगभग चुप रहे। आज तक इस फिल्म को बनाने वालों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई।
फिल्म का शुरुआत में जिन लोगों ने विरोध किया उनपर आरोप है कि वे साफ तौर पर सत्तापोषित , सामन्ती , महिला-विरोधी और साप्रदायिक हैं.फिल्म प्रदर्शन को हरी झंडी दिखाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण भी कानून के राज से इतर लगते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म पर रोक से जुड़ी सारी याचिकाएं खारिज कर कहा कि कुछ संगठनों की धमकी के मद्देनजर फिल्म पर रोक नहीं लगाई जाएगी। याचिका दाखिल करने वालों में मध्यप्रदेश और राजस्थान की सरकार भी शामिल थीं, जिन्होंने फिल्म में सती कुप्रथा के महिमामंडन का कोई जिक्र नहीं कर फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के साम्प्र्दायिक तत्वों की बातों से सुर मिलाते हुए यही कहा था कि फिल्म के प्रदर्शन से कानून-व्यवस्था बिगड़ने का ख़तरा है। यह भी गौरतलब है कि फिल्म की शूटिंग और फिर उसका प्रदर्शन रोकने की मांग को लेकर हिंसा में लिप्त सती महिमामंडन के समर्थक तत्वों ने फिल्म के प्रदर्शन के बाद उसका विरोध छोड़ दिया। जाहिर है वे फिल्म में जौहर महिमामंडन के पक्ष में नेपथ्य से गूंजे स्वर से संतुष्ट हो गए। अहित हमारे समाज का ही हुआ। जब भाजपा समर्थक पायल रोहतगी ही नहीं मुख्यमंत्री अशोक गहलौत जैसे बड़े कांग्रेस नेता भी सती / जौहर को गर्व की बात कहने लगे तो सोचना पडेगा ही कि हमारा समाज सच में कितना सड़ गया है। भारतीय संसद द्वारा पारित, सती -निरोधक कानून ‘ की पद्मावत के फिल्मकार ने धज्जियां उड़ा दी। बावजूद इसके कि मीडिया के एक हिस्से ने इस मसले को लेकर सती कुप्रथा के महिमा मंडन के अपराध के प्रति ध्यान आकृष्ट किया , संसद या सरकार ने इसका संज्ञान लिया हो ऐसी कोई खबर नहीं मिली। 1988 में केन्द्र में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में यह राष्ट्रीय अधिनयम बना था. उस अधिनयम के लागू होने के बाद से देश में किसी सतीकाण्ड की खबर नहीं है। पर उसके महिमामंडन की पूर्ण रोकथाम नहीं की जा सकी है जिसका एक ज्वलंत उदाहरण संजय लीला की यह कमर्सियल फिल्म है।