टोक्यो ओलंपिक में हमारे खिलाड़ियों ने अब तक देश को दो रजत और चार कांस्य पदक दिलाये हैं। हमारी महिला वेटलिफ्टर मीराबाई चानू ने जब पहला रजत पदक जीता, तो पूरा देश झूम उठा। मुक्केबाज लवलीना बोरगोहेन ने व्यक्तिगत कांस्य पदक हासिल किया। कुश्ती में रवि दहिया और बजरंग पुनिया ने रजत पदक, तो बैडमिंटन में पीवी संधू ने कांस्य पदक जीता। हमारी पुरुष हॉकी टीम ने भी 41 साल बाद कांस्य पदक हासिल किया। हमारी महिला हॉकी टीम ने बेहतरीन प्रदर्शन कर सबको उसके बारे में सोचने को मजबूर कर दिया। टीमों और खिलाड़ियों के बेहतरीन प्रदर्शन ने यह साबित कर दिया कि अगर उन्हें कायदे से तैयार किया जाये, तो वे पदकों की झड़ी लगा सकते हैं। हमारी सरकार और मीडिया छह पदकों पर बल्लियों उछल रही है। हर कोने अतरे से खिलाड़ियों की खबरें मीडिया की टीआरपी बढ़ा रही हैं। बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले हमारे अधिकतर खिलाड़ी तमाम अभावों, चिंता और तनाव से भी लड़ रहे थे। उन्हें अपने से अधिक परिवार की चिंता है। उन कर्जदाताओं का भी उन्हें तनाव है, जिनसे कर्ज लेकर उनके परिजनों ने उन्हें खेलने भेजा है। हम सफल खिलाड़ियों को सिर-माथे पर बिठाते हैं मगर उन्हें तैयार करने के समय जरूरी मदद नहीं करते। इस बार भारत ने 119 खिलाड़ियों सहित 228 सदस्यीय दल टोक्यो ओलंपिक के लिए भेजा है। इन खिलाड़ियों में 67 पुरुष और 52 महिला प्रतिभागी हैं।
अगस्त भारत के अस्तित्व का महीना है। आठ अगस्त 1942 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआ था और 9 अगस्त को शुरुआत। 15 अगस्त 1947 को हमने आजादी हासिल की थी। इस उम्मीद के साथ कि हम एक आदर्श राष्ट्र का निर्माण करेंगे, जो जाति-धर्म से ऊपर समग्र विकास के लिए काम करेगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी के आग्रह पर 9वें एशियाई खेलों के दौरान युवा एवं खेल मंत्रालय बनाया था और फिर इसे 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पुनर्गठित कर युवा कार्य और खेल विभाग रखा गया था। वर्ष 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने इसे मंत्रालय बनाया और 2008 में डॉ मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी के युवा नेतृत्व के आग्रह पर युवा और खेल के अलग-अलग मंत्रालय बनाये। हम विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दम भरते हैं मगर सिर्फ पांच पदक हासिल करके फूले नहीं समाते। हमारे देश से बेहद छोटे और कमजोर देश भी हमसे आगे हैं। सरकार पदकों का श्रेय लेने के लिए प्रचार अभियान चलाती है मगर खिलाड़ियों को तैयार करने के लिए कुछ नहीं करती। इस टोक्यो ओलंपिक में अब तक के रुझान हमें पिछले ओलंपिक की तरह ही दिखते हैं। वहीं हमारा पड़ोसी चीन 38 स्वर्ण पदकों के साथ अव्वल है। हम अब तक एक भी स्वर्ण नहीं ला सके हैं। जहां चीन आगे से आगे बढ़ रहा है, वहीं हमारा देश पीछे की ओर जा रहा है। ऐसा नहीं है कि हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन कमजोर रहा है। पदकन हासिल न कर पाने का दोष हम अपने खिलाड़ियों को नहीं दे सकते, क्योंकि जिन हालात में वे तैयार हुए और खेल रहे हैं, उसमें बहुत उम्मीद करना बेमानी होगा।
हमारे खिलाड़ियों की दुर्दशा का आलम यह है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई खिलाड़ी जीवन यापन के लिए मनरेगा में मजदूरी करने को विवश हुए हैं। देश की पहली पैरा शूटर चैंपियन सड़क किनारे चिप्स बेचने को मजबूर है। वैसे तो कोविड-19 महामारी से पहले ही हालात खराब हो चुके थे। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर के करीब 20 लाख खिलाड़ी बेरोजगार हो, धक्के खा रहे थे। वे जीवन यापन के लिए कुछ भी करने को विवश दिखते हैं। महामारी के बाद तो हालात और भी बदतर हो गये। अपनी खुराक के लिए भी उन्हें गुलामी के दिन काटने पड़ रहे हैं। उनके कोच हों या अन्य सहयोगी, सभी बुरे हाल में जीने को मजबूर हैं। इस विषय पर गौर करने के लिए हमारी सरकारें तैयार ही नहीं हैं। सरकारें ईमानदारी से खिलाड़ी तैयार करने में मदद करतीं, तो शायद हर राज्य कम से कम एक पदक लेकर आता तो भी हमारे 29 पदक होते। पिछले कई सालों से उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक हमारी हॉकी टीमों का वित्त पोषण कर रहे हैं। केंद्र सरकार खेलों में पदक चाहती है मगर खिलाड़ियों की न्यूनतम जरूरतों को भी पूरा नहीं करती। बावजूद इसके हमारे खिलाड़ी जज्बे से लगे हुए हैं। “खेलो इंडिया यूथ गेम्स” के प्रचार में सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर देती है मगर खिलाड़ियों को तैयार करने के लिए उसके पास कुछ नहीं है।
हमारी विडंबना है कि महिला हॉकी टीम की कैप्टन रानी रामपाल एक ग्लास दूध के लिए तरसती हैं। खिलाड़ियों को न सही मैदान मिलते हैं और न ही खेलने का सामान। यही हाल लवलीना और मीराबाई का भी है। उन्होंने दिक्कतों के पहाड़ पार करके देश को पदक दिलाया है। ये वो खिलाड़ी हैं, जो एक वक्त खाकर और मीलों पैदल-साइकिल से चलकर खेल के मैदान में पहुंची हैं। वैसे तो अब ये हालत पूरे देश में ही हैं। 1980 तक भले ही भारतीय हॉकी टीम स्वर्ण पदक जीतती रही हो, मगर उसके बाद वह बदहाली में चली गई। यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अन्न महोत्सव शुरू करके साबित की है। 23 करोड़ की आबादी वाले यूपी में 15 करोड़ घरों को पेट भरने के लिए प्रधानमंत्री मुफ्त अनाज योजना का सहारा लेना पड़ रहा है। जिस राज्य में खाने को रोटी के लाले हों, वहां से खिलाड़ी कितने और कैसे निकलेंगे? यह समझा जा सकता है। खिलाड़ी और खेल की जाति नहीं होती। महिला हॉकी टीम बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद हारी, तो वंदना कटारिया के सवर्ण पड़ोसियों ने पटाखे बजाये। उन्होंने हार का कारण दलित परिवार की इस बेटी को बताकर उसे लानत दी। प्रधानमंत्री यह कहकर संतुष्ट हैं कि देश सिद्धियां प्राप्त कर रहा है और विपक्ष सेल्फ गोल कर रहा है। वह खिलाड़ियों को तैयार करने के लिए मेजर ध्यान चंद के नाम पर कोई नई योजना नहीं लाते, बल्कि राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड का नाम बदल कर खुश हो जाते हैं। खिलाड़ी अपनी दुर्दशा पर बेहाल हैं। उनकी जरूरत किसी का नाम नहीं, बल्कि पदक लाने के लिए संसाधनों की है।
आपको याद होगा, कि इसी साल सीआरपीएफ के मुख्य खेल अधिकारी डीआईजी खजान सिंह और उनके सहयोगी इंस्पेक्टर को निलंबित किया गया। प्राथमिक जांच में पाया गया था कि महिला बटालियन की जिन लड़कियों को खेल में आगे बढ़ना होता था, उन्हें खजान सिंह के साथ सोना एक अहम शर्त थी। अर्ध सैन्य बलों में आने वाली लड़कियां गरीब और निम्न मध्यम वर्ग से आती हैं। उनके लिए अपना अस्तित्व बचाना एक चुनौती है। इस सच को सामने लाने वाली सीआरपीएफ की महिला कमांडेंट नीरज बाला को सजा के तौर पर समय पूरा होने से पहले ही खुड्डे लाइन तबादला कर दिया गया। गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय से चंद किमी दूर द्वारका महिला बटालियन की कमांडेंट नीरज को लड़कियों की शिकायत को गंभीरता से लेने और नियमानुसार जांच खोलने से तमाम अन्य पीड़ित लड़कियों में साहस आया था। सालों से पड़े पर्दे के उठने से तमाम अन्य बड़े चेहरे बेनकाब हो सकते थे, तो जांच पूरी होने से पहले ही उन्हें हटा दिया गया। बहराल हाईकोर्ट ने तबादला तो रोक दिया मगर उसका पालन अब तक नहीं हुआ है। इससे यह सामने आ गया कि लड़कियों को आगे बढ़ने की क्या कीमत अदा करनी पड़ती है। एक महिला खिलाड़ी से पता चला कि उन्हें हर कदम पर कैसे और क्या करने पर मौका मिलता है। इन सारी मुश्किलों, तनाव और चिंता से जूझते हुए भी, वे बेहतर खेलने और देश-प्रदेश के लिए पदक लाने की कोशिश करती हैं। हालांकि उनके जज्बे को बगैर बड़ी उपलब्धि हासिल किये सम्मान नहीं मिलता। जीत और पदक के बाद उनकी वाहवाही होती है मगर उस योग्य बनाने में चंद लोग ही मददगार होते हैं, सरकार नहीं।
हम उम्मीद करते हैं कि यह ओलंपिक हमारी सरकारों, मीडिया और समाज के लिए सबक बनेगा। हम अपने खिलाड़ियों को शुरुआती दौर से ही बेहतरीन मौका दे सकें और उसके लिए जरूरी संसाधन उपलब्ध करायें, तो शायद चीन के बजाय हमारे खिलाड़ी सबसे आगे होंगे। देश में अब तक आये छह पदकों में पांच अभावों और संकटों से जूझते खिलाड़ी लेकर आये हैं। हम खिलाड़ियों का भविष्य सुरक्षित बनायें और उनकी चिंताओं को खत्म करें। तभी तो खेलेगा इंडिया और जीतेगा भी इंडिया।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं।)