शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र 1923 में रावलपिंडी में जन्में। शैलेन्द्र ही वो व्यक्ति है जिनकी कलम के मोतियों पर जापान तक में भारतीय सिनेमा और राज कपूर को एक नई पहचान मिली। शैलेन्द्र हिन्दी फिल्मों के साथ-साथ भोजपुरी फिल्मों के भी बेताज बादशाह रहे । तीसरी कसम सबूत है गवई परिवेश को कैसे बड़े पर्दे पर और खूबसूरत दिखाया जा सकता हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में एक दौर था, जब फ़िल्म का चेहरा राज कपूर, गीत शैलेन्द्र और आवाज मुकेश की पहचान होती थीं। समय के साथ बिसरा दिये गए शैलेन्द्र के कुछ अनछुये पहलुओं पर आज विशेष……….
तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
तू जिंदा है ….
शैलेन्द्र पर राजकमल प्रकाशन की एक किताब का सम्पादन रमा भारती ने किया है. किताब में शैलेन्द्र की सभी कवितायें संकलित हैं।
किताब के अनुसार राज कपूर उन्हें भारत का पुश्किन कहते थे.फणीश्वरनाथ रेणु ने उन्हें ” कविराज ” कहा था।
30 अगस्त 1966 को उनके जन्मदिन पर भेजे शुभकामना सन्देश में तत्कालीन केंदीय मंत्री जगजीवन राम ने लिखा : शैलेन्द्र , रविदास के बाद हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय ‘ हरिजन ‘ कवि हैं।
जो बात 152 पृष्ठों की इस किताब में नहीं लिखी जा सकी वह एक कड़वा सच है कि शैलेन्द्र को बचपन के दिनों में मथुरा में हाकी नहीं खेलने नहीं दिया गया। सिर्फ इसलिए कि वह जन्मना दलित थे। बचपन में ही इस वंचना ने उनमें जाति व्यवस्था ही नहीं पूंजीवाद के खिलाफ भी मुखर प्रतिरोध की अभिव्यक्ति का बीजारोपण कर दिया था।
तभी तो उन्होंने वो गीत रचा जिसे कोई भी सहज गा , गुनगुना सकता है। क्रांतिकारी चेतना से रू-ब -रू युवा पूरे हिन्दुस्तान में समूह में ये गीत गाते हैं ।
नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू ) में शायद ही कोई होगा जिसने ये गीत ना गाया या सुना हो. फिर भी बहुतों को नहीं पता कि ये गीत शैलेन्द्र रचित है।
तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
तू जिंदा है ….
ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन
ये दिन भी जायेंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार की नज़र
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर। तू जिंदा है…
हमारे कारवां को मंजिलों का इंतज़ार है,
ये आँधियों, ये बिजलियों की पीठ पर सवार है
तू आ कदम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है …
ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल चलेंगे एक साथ हम
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर। तू जिंदा है…
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्कलाब ये
गिरेंगे ज़ुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर.
तू जिंदा है…
शैलेन्द्र ने ये गैर- फ़िल्मी गीत 1950 में लिखी थी। उनका लिखा आखरी फ़िल्मी गीत : *जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां * है।
शैलेंद्र का लिखा यह गीत अधूरा रह गया था जिसे 1966 में उनके निधन के बाद उनके पुत्र शैली शैलेन्द्र ने राजकपूर के कहने पर फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए पूरा किया था।
शैलेन्द्र का निधन क्लासिक फिल्म ” तीसरी कसम ” का निर्माण करने के बाद वित्तीय बोझ के कारण अवसाद और बीमारी से घिर जाने पर हुआ था।
मीडिया में शैलेन्द्र के विद्रोही -जनकवि होने की बात कम ही होती है. बहुत कम लोगों को पता है कि भारत में मजदूर आन्दोलन का सबसे लोकप्रिय नारा ,” हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है ” शैलेन्द्र ने ही बुलंद किया था।
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{लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक है}