ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: अंगरेजी के शब्द , ” डेमोक्रेसी ” का हिंदी अर्थ है लोकतंत्र और जिसका मतलब होता है राजनीतिक प्रशासन की एक ऐसी व्यवस्था जो लोगों द्वारा , लोगों के लिए और लोगों के हित में संचालित की जाती है। आसान शब्दों में राजनीति के विद्यार्थियों को इसे कुछ इस तरह पढ़ाया जाता है कि जनता के हित में , जनता द्वारा ,जनता के लिए जो व्यवस्था चलाई जाती है उसे लोकतंत्र कहते हैं .लोकतंत्र यानी जनता का शासन। जनता का शासन है तो जाहिर है जनता के हितों की पहचान कर उसके लिए काम करना इसका एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए पर वास्तव में ऐसा है नहीं , यह दोष व्यवस्था का उतना नहीं है जितना उन लोगों का है जो इस व्यवस्था को लागू करने के लिए सरकार या राजनीतिक पार्टियों की शक्ल में आगे आगे आते हैं।
ये सरकार कोई भी हो सकती है या फिर कोई भी राजनीतिक पार्टी। लोकतंत्र के नाम पर जनता को परेशान करने के मामले में ये सभी सरकारी गैर सरकारी संगठन एक जैसे हैं। ख़ास तौर पर राजनीतिक पार्टियां तो अपने राजनीतिक हितों के सामने जनता की किसी परेशानी को कुछ नहीं समझतीं। खुदा न खास्ता अगर ये राजनीतिक पार्टी खुद ही सरकार भी हो तो फिर इसके लिए जनता की परेशानियों का कोई मतलब भी नहीं रह जाता।
पिछले 8 – 9 महीनों से इस देश में ऐसा ही कुछ हो रहा है जो आश्चर्यजनक तरीके से जनता के हित में नहीं जनता के खिलाफ होता दिखाई दे रहा है। ऐसा होना इसलिए भी लग रहा है क्योंकि जनता के हितों की परवाह किये बिना ही पिछले साल अक्टूबर – नवम्बर से लेकर इस साल मार्च – अप्रैल तक इस देश में लगातार चुनाव हो रहे हैं। बिहार विधान सभा के चुनाव से शुरू हुआ चुनाव का यह सिलसिला बंगाल , केरल , तमिलनाडु , असम और पुदुचेरी विधानसभा के चुनाव तक बदस्तूर जारी रहा और इसके साथ ही देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव तक इसकी धमक बनी रही। इन चुनावों में कौन जीता और कौन हारा , यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण बात तो यह है कि घोर कोरोना संकट के बीच संपन्न इस चुनाव से , चुनाव जीतने वाले राजनीति के के अलावा देश की जनता को क्या फायदा हुआ है ? विधानसभाओं के चुनाव पर काफी कुछ कहा और सुना जा चुका है लेकिन उत्तर प्रदेश के जिला पंचायत चुनाव पर अभी भी बहुत कुछ कहना बाकी है। हम यह तो नहीं कह रहे हैं कि अपने देश के संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा करते हुए हमको चुनाव नहीं कराने चाहिए , चुनाव जरूर होने चाहिए लेकिन संविधान के अन्य प्रावधानों का ख्याल करते हुए इन्हें टाला भी जा सकता था क्योंकि देश इस वक़्त कोरोना महामारी के जबरदस्त संकट के दौर से गुजर रहा है।
राज्यों की विधानसभाओं और उत्तर प्रदेश की पंचायतों के चुनाव इस समय टाले जाने की जरूरत इसलिए भी थी क्योंकि हमारे यहाँ चुनाव का मतलब प्रचार करना होता है और यह प्रचार तब तक पूरा नहीं माना जाता जब तक चुनाव में भाग लेने वाली पार्टियों के बड़े नेताओं की कई सार्वजनिक रैलियाँ न हों।
कोरोना के इस दौर में जब न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में सामाजिक दूरी बनाए रखने के नियम का पालन करते हुए घर से बाहर निकलने पर चेहरे पर मास्क का होना जरूरी माना जा रहा है तब हजारों – लाखों की भीड़ बगैर मास्क के एक – दूसरे से सैट कर सार्वजनिक रैलियों में शिरकत करेगी तो कोरोना के संक्रमण का खतरा बढ़ेगा ही। पिछले आठ – नौ महीनों में यही सब कुछ हुआ है . कोरोना की पहली लहर के दौर में देश के जो राज्य इससे बच गए थे , उन राज्यों में इस बार कोरोना की तीसरी लहर के दौर में ज्यादा नुकसान हुआ है। कोरोना के पहले दौर में असम समेत पूर्वोत्तर के कई राज्य इससे बचे हुए थे लेकिन चुनाव के बाद ये राज्य सर्वाधिक प्रभावित राज्य बन गए हैं। पहले बंगाल में भी कोरोना का ज्यादा असर नहीं हुआ था लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद बंगाल की हालत खस्ता हो गई है। पुदुचेरी का भी यही हाल है कोरोना मामले में चुनाव पूर्व और चुनाव बाद की परिस्थितियों में यहाँ बहुत बड़ा फर्क नजर आया है ..तमिलनाडु और केरल में जरूर हालात बदले हुए हैं पर कोरोना दौर में चुनाव कराना इन राज्यों में भी महंगा सौदा ही साबित हुआ है।
इस हिसाब से देखें तो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की स्थिति सबसे विकट दिखाई देती है। यहाँ कोरोना संकट के बीच चुनाव कराने के फैसले से न केवल आम जनता के बीच संक्रमण तेजी से और बड़ी तादाद में हुआ बल्कि इस चुनाव को अंजाम देने के काम में लगे राज्य सरकार के सैकड़ों शिक्षकों को कोरोना संक्रमित होने के कारण मौत का शिकार भी होना पड़ा था। हैरानी की बात है कि एकतरफ हम कोरोना से पीड़ित और संक्रमित दुनिया से जुडी ख़बरों को देखते – सुनते हैं जिनमें हर रोज संक्रमित होने वालों और इससे मरने वालों की बढ़ती संख्या का जिक्र होने के साथ ही आक्सीजन सिलिंडर , वेंटिलेटर , रेमेदिसिवर इंजेक्शन की कमी , कोरोना की रोकथाम के लिए लगाए जाने वाले टीकों के कार्यक्रम में बदलाव और शमशान घाटों – कब्रिस्तानों में अंतिम संस्कार के लिए शवों की लगती अंतहीन लाइनों और अंतिम संस्कार के लिए दिए जाने वाले समय के आगे खिसकते रहने का जिक्र होता है , तो वहीँ दूसरी तरफ राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत होकर हम चुनाव संबंधी ये ख़बरें भी बहुत चाव से पढ़ते हैं ….., बंगाल में ममता का गढ़ तोड़ने की फ़िराक में भाजपा “,, ” असम में भाजपा ने की शानदार वापसी ” ,”केरल में एक बार फिर वाममोर्चे की सरकार “, “तमिलनाडु में द्रमुक के नेतृत्व वाले गठबंधन का सरकार पर कब्जा ” और “यूपी पंचायत चुनाव में समाजवादी पार्टी का परचम, बीजेपी गढ़ में भी पिछड़ी, अन्य-और निर्दलीय उम्मीदवारों ने चौंकाया”.इसके साथ ही ” उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत सदस्य चुनाव में सपा ने मारी बाजी , “”जिला पंचायतों में सपा समर्थित 790 प्रत्याशियों ने हासिल की जीत ” , ” भाजपा समर्थित 599 उम्मीदवारों को जिला पंचायत में मिली जीत”और ,” निर्दलीय तथा अन्य दलों के 1247 प्रत्याशी जिला पंचायतों में जीते”,जैसे शीर्षक वाले समाचार भी हम बड़े शौक से पढ़ते और सुनते हैं।
इस सम्बन्ध में एक गौर करने लायक बात यह भी है कि चार चरणों में संपन्न उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों की मतगणना भी विगत दो मई से तभी शुरू हुई थी जब बंगाल , असम , केरल और तमिलनाडु विधानसभा के साथ ही पुदुचेरी विधानसभा चुनाव के लिए वोटों की गिनती का काम शुरू हुआ था। पंचायत चुनाव के लिए वोटों की गिनती का काम दो – तीन दिन तक चला था और अंतिम परिणाम आते-आते तीन दिन लग गए. इस चुनाव में सबकी निगाहें 3052 ज़िला पंचायत सदस्यों के निर्वाचन पर लगी थीं, जो बाद में अपने-अपने ज़िलों में ज़िला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव करते हैं। देश के सबसे बड़े राज्य की तीन हजार से ज्यादा जिला पंचायतों का कौन होगा मुखिया और किस पार्टी की जिलों में बनेंगी सरकार , इसका खुआलासा भी जल्दी ही हो जाएगा। सभी राजनीतिक दल और उनके नेता इसी कोशिश में लगे रहेंगे कि किसी तरह जोड़ – तोड़ से ही सही उनकी पार्टी जिलों में काबिज हो जाए। सभी एकटक जिला सरकार बनाने की संभावनाएं तलाशने में ही लगे रहेंगे और किसी को इस मुद्दे पर सोचने के लिए समय ही नहीं मिलेगा कि पंचायत चुनाव की इस प्रक्रिया के संपन्न होने में जितने शिक्षकों और चुनाव कर्मियों को जान से हाथ धोना पड़ा है , उनके परिजन चुनाव बाद की परिस्थितियों में किस तरह से गुजर – बसर कर रहे होंगे।
सनद रहे कि उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव प्रक्रिया के एक माह की अवधि के दौरान कोरोना के मामले 120गुना की रफ़्तार से बढ़े थे और इस वजह से चुनाव प्रक्रिया से जुड़े 700से ज्यादा शिक्षकों के साथ ही करीब प्रधान प्त्याशियों की भी कोरोना संक्रमण से मौत हो गई थी। इस चुनाव में करीब नौ करोड़ मतदाताओं ने वोट डाला था और इसके लिए दो लाख मतदान केंद्र बनाए गए थे। इन मतदान केन्द्रों में ही लगभग 12 लाख सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा कर्मियों को तैनात किया गया था । चुनाव के दौरान मारे गए ये शिक्षक भी इन्हीं मतदान केन्द्रों में तैनात थे। पंचायत चुनाव तो हो गए लेकिन अब कोरोना के मामलों में कई गुना उछाल देखा गया है।आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 30 जनवरी 2020 से 4 अप्रैल, 2021 में 15 महीने की अवधि के बीच उत्तर प्रदेश में कोरोना के कुल 6.3 लाख मामले दर्ज किए गए थे । इस बार 4 अप्रैल से देखें तो 30 दिनों में 8 लाख नए कोरोना मामले सामने आए जो बाद में बढ़ कर 14 लाख से भी कहीं अधिक हो गए थे । एक महीने की इसी अवधि के दौरान ही राज्य में पंचायत चुनाव कराए गए थे ।2 और 3 अप्रैल को चुनाव के पहले चरण के लिए नामांकन पत्र दाखिल करने के साथ, सभी दलों के स्थानीय नेताओं ने प्रचार अभियान किया। सभी पार्टियों के स्थानीय नेताओं ने प्रचार में हिस्सा लिया। जिलों के कोने से रैलियों और भीड़ की तस्वीरें और वीडियो सामने आए। दिल्ली और मुंबई सहित दूर के शहरों में काम करने वाले हजारों लोग वोट डालने के लिए घर लौटे थे ।
उत्तर प्रदेश में विगत 15 , 19 , 26 और 29 अप्रैल को पंचायत चुनाव के लिए चार चरणों में वोट डालने का काम हुआ था और 2 मई को वोटों की गिनती का काम शुरू शुआ था जो दो – तीन दिन तक चला और उसके बाद ही नतीजों की घोषणा की गई थी। इसी बीच शिक्षकों की यूनियनों ने 700 से अधिक शिक्षकों की सूची जारी की, जिनकी कथित तौर पर कोविड की वजह से मृत्यु हो गई थी । शिक्यूषक नियनों का साफ़ कहना है कि शिक्षकों की चुनाव ड्यूटी के दौरान ही कोरोना संक्रमित होने की वजह से ही मौत हुई थी । शिक्षकों की मौत के मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी तब चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर उससे इस बारे में स्पष्टीकरण मांगा था । चुनाव संचालित करवाने वाली एजेंसी के अनेककर्मचारियों के साथ ही उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव के दौरान ही कई उम्मीदवार भी कोरोना संक्रमित हो गए थे बाद में ऐसे कई संक्रमित उम्मीदवार भी बाद मर गए थे ।कोरोना का शिकार होकर मरने वालों में कुछ ऐसे भी थे जो चुनाव के बाद हुई वोटों की गिनती में विजेता घोषित कर दिए गए थे .राज्य में पंचायत चुनाव की तैयारी मार्च के महीने में ही शुरू हो गई थी . चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में ही मतदाताओं से बूथ स्तर तक मिलने के क्रम में ही राजनीतिक दलों के नेताओं की असंख्य बैठकें भी हुई थीं , राज्य सरकार का कहना था कि वो कोरोना के चलते फिलहाल चुनाव टालना चाहती थी लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर चुनाव कराना उसकी विवशता थी। माना कि सरकार ने हाई कौर्ट के आदेश का पालन करना उचित समझ लेकिन अगर राज्य सरकार वास्तव में चुनाव नहीं कराना चाहती थी तो वह सुप्रीम कोर्ट से स्टे भी ले सकती थी लेकिन योगी सरकार ने ऐसा नहीं किया क्यों ?इस प्रसंग में यह समझना बहुत मुश्किल काम है कि आज की यह राजनीति जो अगर आम आदमी के हित में नहीं है तो फिर ये है आखिरकिसके लिए !