ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: तमिल और मलियाली दक्षिण भारत की दो ऐसी भाषाएँ हैं जो प्राचीन होने के साथ ही भारत की पौराणिक सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक भी हैं। कहना गलत नहीं होगा कि इन दोनों ही भाषाओं के क्षेत्रों में भारत की दो अलग – अलग संस्कृतियों को पलने , बढ़ने , पुष्पित और पल्लवित होने का मौका भी मिला है और इन दोनों भाषाओं की जड़ें भारत की दैवीय भाषा कही जानी वाली प्राचीन भाषा संस्कृत में ही मौजूद हैं।
तमिलनाडु में बोली जाने वाली आधिकारिक भाषा तमिल है जो दक्षिण भारत के इस राज्य के साथ ही आसपास के दूसरे राज्यों के कुछ इलाकों में भी बोली जाती है। इसी तरह मलियाली केरल की आधिकारिक भाषा है। तमिलनाडु जिसे अतीत में मद्रास नाम से जाना जाता था देश का एक ऐसा राज्य है जिसे राजनीतिक दृष्टि से बहुत जागरूक और महत्वपूर्ण राज्य माना जाता है। भारत का यही वो राज्य है जहां सबसे पहले ब्राह्मणवाद के खिलाफ समाज के दलित और पिछड़े तबकों को आग बढ़ने का मौका मिला था ।
राजनीति में इस राज्य की एक अलग पहचान बनी है। इसी तरह
केरल भी राजनीतिक दृष्टि से एक जागरूक राज्य माना जाता है।
केरल देश का इकलौता ऐसा राज्य है जहां सबसे पहले गैर कांग्रेस सरकार का गठन हुआ था। देश के पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के साथ ही केरल को देश में कांग्रेस के खिलाफ वामपंथी सरकार के गठन के लिए भी याद किया जाता है।
केरल की अधिकारिक भाषा मलयाली है। राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से केरल की गिनती ऐसे राज्य के रूप में होती है जहां चुनाव दो गठबन्धनों के बीच होते हैं। एक गठबन्ध एलडीऍफ़ ( वामपंथी लोकतांत्रिक मोर्चा ) कहलाता है। इसका नेतृत्व मार्क्सवादी कम्युनिस्ट करती है। दूसरी तरफ कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीऍफ़ यानी संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा चुनाव मैदान में डटा रहता है। स्थिति इस बार भी कमोबेस यही है लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा भी राजनीति के एक तीसरे केंद्र के रूप में चुनाव मैदान में है। तमिलनाडू में अन्नाद्रमुक भाजपा गठबंधन की सरकार है और केरल में वाम मोर्चे की सरकार है। राजनीति का रुख तो भविष्य में चुनाव नतीजे ही बता पायेंगे लेकिन तमिलयाली यानी तमिल और मलयाली राजनीति के इन दोनों दक्षिण भारतीय राज्यों में सब कुछ पहले जैसा भी नहीं है।
पहले बात करें केरल की
केरल में सरकार तो वाम मोर्चे की है लेकिन जिस तरह भाजपा राज्य की राजनीति में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है उसे देखते हुए राज्य के सत्तारूढ़ वाममोर्चे और विपक्ष की भूमिका निभा रहे कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीऍफ़ दोनों की ही यह कोशिश भी है कि जैसे भी हो भाजपा को सत्ता में आने से रोका जाए . कहा नहीं जा सकता कि चुनाव परिणाम किस करवट जायेंगे लेकिन किसी वजह से अगर ऐसा हो गया कि भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ मिल कर सत्ता के करीब भी आती
दिखाई दी तो कोई बड़ी बात नहीं कि केरल में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए एलडीऍफ़ और यूडीऍफ़ एक हो जाये। ऐसा इसलिए भी संभव है क्योंकि जब महाराष्ट्र में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस शिवसेना के साथ गठबंधन कर सकते हैं तब केरल में भाजपा को सत्ता से दूर रखने की गरज से वाममोर्चा और संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा एक क्यों नहीं हो सकता .भाजपा को सत्ता से दूर रखने के ऐसे प्रयोग कांग्रेस और अन्य गैर भाजपा पार्टियों ने समय – समय पर देश के कई राज्यों के साथ ही केंद्र में भी किये हैं 2004. के लोकसभ चुनाव के बाद केंद्र में बनी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार इसी फ़ॉर्मूले के आधार पर गठित हुई थी। केंद्र की इस सरकार में कांग्रेस और वाम दलों की साझेदारी थी। इस बार कांग्रेस के लिए इस राज्य में चुनाव इसलिए भी चुनौती पूर्ण हो गया है क्योंकि पार्टी नेतृत्व के खिलाफ असंतोष के स्वर उठाने वाले नेताओं में कांग्रेस के तेज तर्रार नेताओं में से एक शशि थरूर इसी राज्य से हैं। इसी राज्य के एक अन्य वरिष्ठ कांग्रेस नेता पीसी चाको हाल ही में कांग्रेस छोड़ कर राष्ट्रवादी कांग्रेस के सदस्य बने हैं। केरल वही राज्य है जहां से भाजपा ने मेट्रो मैन श्रीधरन को अपने भावी मुख्य मंत्री के रूप में प्रस्तुत करते हुए चुनाव में उतारा है। श्रीधरन रेलवे के नामी खिलाड़ी हैं और कोंकण रेलवे से लेकर मेट्रो रेल तक हर जगह उन्हने अपने काम से एक अलग पहचान भी बनाई है। इसका राजनीति में कितना असर होगा यह तो दावे के साथ कहा नहीं जा सकता लेकिन राज्य में नए समीकरण बनने के संकेत इससे अवश्य मिलते हैं। श्रीधरन ने हाल ही में भाजपा की सदस्यता ली है।
तमिलनाडु की राजनीति केरल से अलग है। किसी जमाने में कांग्रेस का गढ़ कहलाता था यह राज्य लेकिन द्रविड़ आन्दोलन के चलते देश की आजादी के दो दाशक बाद ही इस राज्य ने समाज के दलित और पिछड़े तबकों को राजनीति में अग्रिम पंक्ति में जगह मिलनी शुरू हो गई थी। इसके साथ ही कांग्रेस के स्थान पर क्षेत्रीय द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी अधिक प्रभावशाली
हो गई थी। राज्य में कांग्रेस का पूरी तरह सफाया तो नहीं हुआ लेकिन उसका असर पहले के मुकाबले बहुत कम हो गया था। कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह गई थी क्योंकि क्षेत्रीय द्रमुक में भी नेताओं के व्यक्तित्य्व की टकराहट के चलते क्षेत्रीय दल में विभाजन हुआ द्रमुक के साथ ही अन्ना द्रमुक भी वजूद में आया और ये दोनों दल बारी – बारी से राज्य में सत्ता सञ्चालन करने लगे। कांग्रेस कभी द्रमुक तो कभी अन्ना द्रमुक के साथ जुड़ कर राज्य में अपनी राजनीतिक पहचान बना कर रखने में कामयाब जरूर होती रही। इसी वजह से मौजूदा दौर में कांग्रेस द्रमुक के साथ मिलकर विपक्ष की राजनीति कर रही है। तमिलनाडु देश का ऐसा राज्य भी है जहां से फिल्म स्टार्स ने राजनीति में प्रवेश करने के एक नए सिलसिले की शुरुआत की थी। इस राज्य के शिवाजी गणेशन से लेकर एम जी रामचंद्रन , जे जय ललिता , एम करूणानिधि से और मौजूदा दौर के कमल हासन तक सरीखे असंख्य फ़िल्मी सितारों ने राजनीति में अपनी ख़ास पहचान बनाई है। दक्षिण की फिल्मों के बेताज बादशाह माने जाने वाले कलाकार रजनीकांत भी राजनीति में आने की योजना बना रहे हैं। ताजा राजनीति परिस्थितियों के सांदर्भ में चुनाव का आंकलन किया जाए तो कहा जा सकता है कि इस बार सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक गठबंधन को चुनाव में नुक्सान हो सकता है। इसकी कई वजहों में एक वजह किसान आन्दोलन भी है और सत्ता पक्ष के प्रति जनता की आम नाराजगी भी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और तक्षकपोस्ट के Counsulting Editor है।)