भारत का संविधान पूरी तरह 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया। जिसे हम #भारत_के_लोग गणतंत्र दिवस कहते हैं। यह 15 अगस्त के स्वतंत्रता दिवस से भिन्न क्यों है ? इसे आजादी और दुनिया में गणराज्य की उन अवधारणाओं को समझने पर ही पता चल सकता है जिसका यूनानी दार्शनिक प्लेटों की ‘ द रिपब्लिक ‘ किताब के छपने के भी पहले से बिहार में वैशाली राज में था। इसलिए भी गणतंत्र की जड़ें हिंदुस्तान में अमेरिका से ज्यादा गहरी है। दोनों दिवस में अंतर का बुनियादी आधार #इंडिया_अर्थात_भारत का संविधान है। जिसे आज़ादी हासिल होने पर लागू करने में 894 दिन लग गए। 26 जनवरी 1950 को नई दिल्ली के तत्कालीन ‘ इर्विन ‘ स्टेडियम में हिंदुस्तान की संविधान सभा के अध्यक्ष और बिहार के जीरादेई में पैदा हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 21 तोपों की सलामी के बीच बतौर पहले राष्ट्रपति शपथ लेकर यूनाइटेड किंगडम ( यूके ) के विदेशी यूनियन जैक ‘ की जगह तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज फहराकर भारत के गणतंत्र लहराने की मुनादी की थी। 31 दिसंबर 1929 की मध्य रात्रि में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर सत्र के दौरान भारत को स्वतंत्र बनाने का संकल्प लिया गया जिसकी अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। उसमें मौजूद सभी ने ब्रिटिश हुकूमत से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के स्वप्न को साकार करने के लिए 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के मनाने की शपथ ली थी। तब से हर वर्ष इस दिन पूरे देश में गणतंत्र दिवस के रूप में ‘ गर्व एवं हर्षोल्लास ‘ के साथ मनाया जाता रहा है।
भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को जब हुई, उसमें भारतीय नेताओं और ब्रिटिश शासकों के ‘ कैबिनेट मिशन ‘ के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। भारत के नए संविधान पर विमर्श शुरू हुआ जिसमें कई संस्तुतियां सामने आयीं। फिर अनेक संशोधन के बाद भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया गया जो 3 वर्ष बाद यानी 26 नवंबर 1949 को आधिकारिक रूप से अपनाया गया। भारत15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र देश बन चुका था पर स्वतंत्रता की सच्ची भावना 26 जनवरी 1950 को अभिव्यक्त की जा सकी। यह अभिव्यक्ति भारत गणतंत्र के संविधान को लागू करने से हुई। मौजूदा संविधान में भले ही सौ से अधिक संशोधन किये जा चुके हैं पर उसका मूल चरित्र बरकरार है वही है और इसे पलटना मोदी सरकार के लिए आसान नहीं है।
विश्व के अधिकतर देश , गणराज्य होने का दावा करते है पर माना जाता है कि ज्यादातर वे गणराज्य से वंचित हैं। अमेरिका के संविधान पर बेंजामिन फ्रैंकलिन की बात उकेरी याद आती है :
एक गणराज्य अगर आप रख सकें। यह उक्ति घोषित गणतंत्र के सामर्थ्य ही नहीं उसके इरादे को भी रेखांकित करती है। गणराज्य का गठन आसान है पर उसे बरकरार रखना कठिन है। इंडियन एक्सप्रेस के 26 जनवरी 2018 के अंक में सुहास पल्शिकर के आलेख में इंगित किया गया कि भारत के गणराज्य दिवस के उपलक्ष्य में राजधानी नई दिल्ली में आयोजित परेड में सैन्य बल प्रदर्शन पर जोर होता है। भारत के संस्थापकों ने गणराज्यवादी संविधान बना आशा की थी कि भारत के लोग उन गुणों को विकसित करेंगे जो गणराज्यवाद की जड़ें मज़बूत करती है। भारतीय संविधान के मुख्य रचियताओं में शामिल बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर ने आगाह किया था: कोई भी संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो उसका बुरा साबित होना तय है। क्योंकि इस पर जिनको काम करने का मौक़ा दिया जाता है, वे अच्छे नहीं हैं। उन्होंने इस कथन में निर्वाचित प्रतिनिधियों या हुक्मरानों को ही नहीं बल्कि लोगों को नागरिकों में परिणत करने की प्रक्रिया की अपूर्णता को भी संदर्भित किया था। इसलिए राजसत्ता की शक्ति के गौरव की उद्घोषणाओं के बीच गणतंत्र दिवस यह भी ताकीद करता है कि लोग उन कमजोर राजनीति परिक्षण करें जो गणतंत्र के श्रृंगार के लिए नुकसानदेह है। इनमें लोकतंत्र की विकृतियां सर्वोपरि हैं जिनमें बहुसंख्यकवाद शामिल है।
मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में बनी सरकार का पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने में अब ज्यादा समय नहीं बचा है। मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों के तहत मई 2024 से पहले नई लोकसभा के चुनाव कराने की अनिवार्यता है। मोदी सरकार चाहे तो लोक सभा चुनाव कराने की संस्तुति कर राष्ट्रपति से निर्वाचन आयोग को आदेश जारी करवा सकती है। पर निर्धारित कार्यकाल पूरा होने पर भी नया चुनाव स्थगित करना इस सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। देश के आठवें प्रधानमंत्री मोदी जी अक्सर अपने स्वप्न का न्यू इंडिया की बात कहते है, जिसका निर्माण अगले चुनाव तक नही हो सकता है। जाहिर है, मोदी जी अपने मौजूदा शासनकाल से आगे की बात सोच रहे हैं। इसका अवसर उन्हें मिलेगा या नहीं यह अगला चुनाव ही तय करेगा। सवाल है क्या वह नए जनादेश बगैर भी सत्ता में बने रहे सकते है। उनके लिए अकल्पनीय कुछ भी नहीं है। उन्हें बहुत से काम पूरे करने हैं जिनके लिए उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया। इनमें भारत को विधिवत हिन्दू-राष्ट्र घोषित करना भी शामिल है जिसमें संविधान बाधक है। संविधान प्रस्तावना में और बाद में उसके विधि-सम्मत संशोधन में साफ लिखा है- #इंडिया_दैट_इज_भारत सम्प्रभुतासंपन्न , समाजवादी , धर्मनिरपेक्ष , लोकतांत्रिक गणराज्य है। छिपी बात नहीं है भारतीय जनसंघ और उसकी उत्तरवर्ती भाजपा जिस आरएसएस को अपनी मातृ संस्था कहती है उसे भारत का संविधान रास नहीं आया।
तथ्य है आरएसएस का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कभी सांगठनिक योगदान नहीं रहा। उसने संविधान निर्माण के समय भी उसके मूल स्वरुप का विरोध किया था। उसके स्वयंसेवकों ने स्वतंत्र भारत का संविधान बनने पर उसकी प्रतियां जलाईं थी। आरएसएस को भारत के संविधान की प्रस्तावना में शामिल सेक्यूलर यानि धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं सुहाता है। उसके मुताबिक अनुसार धर्मनिरपेक्ष शब्द से भारत के धर्मविहीन होने की ‘ बू ‘ आती है जबकि यह जनसंख्या के आधार पर हिन्दू प्रधान देश है। भाजपा का यही कहना है कि आज़ादी के बाद से सत्ता में रहे अन्य सभी दलों ख़ासकर कांग्रेस ने वोट की राजनीति कर अल्पसंख्यक मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है और हिन्दू हितों की घोर उपेक्षा की है जिसका उदाहरण हिंदुत्वपंथियों द्वारा 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में ध्वस्त कर दी गई बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर के निर्माण में बाधा डालना शामिल था।
विश्व के एकमेव हिन्दू राष्ट्र रहे नेपाल में जबर्दस्त जनआंदोलन के बाद राजशाही की समाप्ति पर अपनाये संविधान में इसे धर्मनिरपेक्ष घोषित करने पर आरएसएस और मोदी सरकार की खिन्नता छुप नहीं सकी। मोदी सरकार ने इसलिए कुछ बरस पहले नेपाल की कई माह तक अघोषित आर्थिक नाकाबंदी कर दी थी। भाजपा किसी देश को इस्लामी घोषित करने से चिढ़ती है और साफ कहती है कि उसे मज़हबी राष्ट्र मंजूर नहीं है। फिर भी भाजपा समेत आरएसएस के सभी संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित को करने उतावले हैं। मोदी जी का न्यू इंडिया आरएसएस के सपनों के हिन्दूराष्ट्र का ही भ्रामक सर्वनाम है जिसकी सारी परतें खुलने में अब और समय नहीं लगेगा।
मोदी जी की मंशा की साफ झलक 2018 के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर ‘ एक राष्ट्र एक चुनाव ‘ के उनके जुमले से भी मिली। इसकी व्याख्या है कि लोकसभा और सभी विधान सभाओं के चुनाव एक साथ करा लिए जायें ताकि अलग-अलग चुनाव न कराना पड़े। चुनाव पर राजकीय खर्च में कमी हो और भाजपा की सरकारें चुनावी दबाब से मुक्त होकर राजकाज चला सके। मोदी जी के इस जुमला पर शुरुआती समर्थन देने वालों में निर्वाचन आयोग भी शामिल है। सांविधक निर्वाचन आयोग ने ज्यादा सोचे बिना कह दिया वह इसके लिए तैयार है।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार लोकसभा चुनाव कराने पर राजकीय खर्च प्रति मतदाता 2014 में 17 रूपये था।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे ओम प्रकाश रावत ने इस पद से सेवानिवृति के अगले ही दिन मीडिया से बातचीत में साफ कह दिया यह कदम और भी खर्चीला होगा। उन्होंने बताया चुनाव कराने के लिए निर्वाचन आयोग के पास अभी 17 लाख ईवीएम हैं। सभी चुनाव एकसाथ कराने के लिए 34 लाख ईवीएम की दरकार होगी और वे सभी पांच बरस तक पड़े रहेंगे। यह भी बता दिया निर्वाचन आयोग ने समुचित परिवर्तन लाने विधि मंत्रालय के विचारार्थ मसौदा तैयार करने का काम शुरू किया था।
इस तथ्य को रेखांकित किया जाना चाहिए कि भारत संघ-राज्य है। जिसकी विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराने की अनिवार्यता का संवैधानिक प्रावधान नहीं है। संविधान में: एक व्यक्ति , एक वोट , एकसमान मूल्य ‘ का सिद्धांत लिखा है। स्वतंत्र भारत की पहली लोकसभा के साथ सभी विधानसभाओं के भी चुनाव कराने का प्रावधान करने का विकल्प खुला था। पर हमारे संविधान के रचनाकारों ने संघराज्य भारत में संवैधानिक लोकतंत्रं की जरूरतों के लिए सोच कर सरकारी केंद्रीयतावाद पर अंकुश लगाना और राज्यों की संघीयतावाद को प्रोत्साहित करना श्रेयस्कर माना।
कुछ अरसे पहले आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत का दिया बयान कि वह चंद मिनट में अपनी फौज खड़ी कर लेगा। सांविधिक राजकाज में खुरपेंच है। वह जानते है आरएसएस के दीर्घकालिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसके पास मोदीराज अंतिम मौका है। वह इससे भी अवगत हैं कि मोदी सरकार के हाथ से समय रेत की तरह फिसला जा रहा है और जिस लंपट पूंजीवाद के धनबल पर उनका राज कायम है। वह हवा के झोंके भर से उसी तरह ख़त्म भी हो सकता है। जिस तरह ताश के पत्तों के बनाये महल ज़रा-सी फूँक से बिखर जाते हैं।भागवत जी के बयान में दर्प हैं कि आरएसएस के पास भारत सरकार की सेना के समानांतर हथियारबंद सेना है। जो कि भारतीय सेना से ज्यादा अनुशासित है, कि भारत सरकार की सेना जंग की तैयारी करने में छह महीने लेगी, लेकिन आरएसएस के स्वयंसेवकों को ऐसा करने में सिर्फ तीन दिन लगेंगे।
आरएसएस ने बाद में भागवत जी के बयान को मीडिया में तोड़-मरोड़कर बताकर लोगों का ध्यान आरएसएस की रणनीति से हटाने की कोशिश की, पर कुछ सवाल तो खड़े हो ही गए कि भारत की फौज से बड़ी कोई निजी फौज देश में कैसे हो सकती है? क्या आरएसएस को भारतीय सेना पर भरोसा नहीं है? क्या गृहयुद्ध की तैयारी चल रही है? मोदी सरकार इस पर चुप क्यों है? क्या मोदी सरकार सिर्फ मुखौटा है? क्या आरएसएस भारत की राजसत्ता की बागडोर कभी खुद संभाल सकता है? भागवत जी के बयान से लगता है कि आरएसएस को सेना का बेजा इस्तेमाल करने में मौजूदा संविधान अड़चन लगता है, इसलिए मोदी सरकार पर संविधान पलटने का दबाब है। आरएसएस की स्थापना 2025 में शताब्दी है और साफ संकेत हैं वह तब तक भारत को विधिवत हिन्दू राष्ट्र घोषित करवाना चाहता है।
फासीवादी हिटलर का दुनिया भर में प्रतिरोध शुरू हुआ तब आरएसएस के दूसरे सरसंघसंचालक सदाशिवराव माधवराव गोलवलकर उर्फ गुरु जी ने अंग्रेजी में ‘ वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड ‘ किताब लिखी थी जिसके मुताबिक हिंदुओं को हिटलर से सबक सीखनी चाहिए। आरएसएस ने गोलवलकर की इस किताब से पल्ला नही झाड़ा है पर उसने रणनीतिक कारणों से इसे छुपा देना अपने लिए बेहतर समझा। दिल्ली के एक्टिविस्ट शम्शुल इस्लाम जी ने इस किताब मूल प्रति के स्कैन किये पन्नों को ज्यों का त्यों छाप गोलवलकर की बातों की पोल खोलने वाली नई किताब लिख डाली जो अमेजॉन से कोई भी खरीद सकता है। गोलवलकर की किताब पहली बार 1939 में छपी थी जिसे कुछ लोग़ आरएसएस का बाइबिल कहते हैं। इस किताब से और आरएसएस की गतिविधियों पर गौर करने से साफ है उसके लिए ‘ हिन्दू ‘ का मतलब ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था और ‘ राष्ट्र ‘ का मतलब ‘ मनुवादी फासीवाद है। आरएसएस सांस्कृतिक संगठन नहीं है और उसके उदेश्य राजनीतिक हैं। समाज सेवा और एकात्म मानववाद के उसके घोषित लक्ष्य महज जुमले हैं। आरएसएस ने खुद अपना यह राजनीतिक उदेश्य काफी हद तक सबके सामने रख दिए हैं कि हिंदुस्तान को हिन्दू राष्ट्र बनाना है।
आरएसएस की स्थापना 1925 में के. बी. हेडगेवार उर्फ डॉक्टर जी ने की थी पर उसे वैचारिक और संगठनिक आधार गुरु जी ने ही दिया। इसकी स्थापना महाराष्ट्र में ब्राह्मणवाद के खिलाफ सशक्त आंदोलनों की प्रतिक्रिया में सवर्ण जातियों द्वारा हिन्दू के नाम पर प्रभुत्व बहाल करने के लिए की गई थी। ये आंदोलन 1870 के दशक में ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों ने और 1920 के दशक में बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेडकर की अगुवाई में दलितों ने छेड़े थे। महज संयोग नही कि आरएसएस के सभी प्रमुख , महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मण रहे है। बाद में 1994 में एक गैर-ब्राह्मण लेकिन सवर्ण ठाकुर / क्षत्रीय राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया आरएसएस के चौथे प्रमुख बने जो उत्तर प्रदेश के थे।
आरएसएस के ‘ अखिल भारतीय सह-बौद्धिक प्रमुख कौशल किशोर की ‘ प्रेरणा ‘ से 1992 में ‘ लक्ष्य एक कार्य अनेक ‘ नामक पुस्तक छपी जिसके अनुसार उसके नियंत्रण में 25 राष्ट्रीय और 35 प्रांतीय संगठन हैं जिनमें इनमें भाजपा , विश्व हिन्दू परिषद , भारतीय मजदूर संघ , अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद प्रमुख है। इस किताब के मुताबिक तब देश के 25 हज़ार स्थानों पर आरएसएस की शाखाएं लगती थीं। किताब 1992 की है और उसके बाद के बरसों में उनकी संख्या में कई गुना बढ़ी होगी। बहरहाल, उस किताब के मुताबिक इन शाखाओं का काम ‘ राष्ट्र का हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यकरण ‘ की कार्यनीति बढ़ाना है। जैसा किताब के शीर्षक से ही साफ है आरएसएस के जितने भी संगठन , समितियां और मंच हो , सबका अंतिम लक्ष्य हिन्दूराष्ट्र है। लेकिन हिन्दू राष्ट्र में क्या होगा और क्या नहीं होंगे यह तय कब कौन , कैसे तय करेगा ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर नहीं मिले है।
भारत का नया संविधान तैयार करने के लिए कमेटी बनाने की चर्चा थी। आरएसएस के पूर्व प्रचारक और भाजपा के पदाधिकारी रहे के एन गोविंदाचार्य इस काम में लगे थे जिसे उन्होंने स्वीकार किया। उनके मुताबिक मौजूदा संविधान में ‘ भारतीयता ‘ नहीं है और इसलिए उसकी जगह नया संविधान बने। भारत के संविधान की समीक्षा के लिए पहले भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान कमेटी बनी थी पर उसका ठोस नतीजा नहीं निकला।
इसी सन्दर्भ में हमारा यह लिखना मुनासिब होगा कि वाजपेयी सरकार के दौरान ही 1998 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भरी विधान सभा में कहा था कि उन्होंने पुलिस को सारे अपराधियों को ‘ लिक्विडेट ‘ ( सफाया ) करने के आदेश दिए है। विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने जो खुद वकील और राजयपाल भी रहे कल्याण सिंह ( अब दिवंगत ) के कथन की संवैधानिक वैधता परखे बगैर सदन की कार्यवाही के लिखित रेकॉर्ड से नहीं हटाया। भारत के संविधान तहत जीवन का अधिकार मूलभूत अधिकार है जिसका कार्यपालिका और विधायिका हनन नहीं कर सकती है। संविधान के तहत सिर्फ न्यायपालिका को क़ानून की समुचित प्रक्रियाओं के बाद ही किसी नागरिक को दुर्लभतम आपराधिक मामले में उसके जीवन के अधिकार से वंचित कर मृत्युदंड देने का अधिकार है। कल्याण सिंह सरकार के उक्त प्रकरण का मीडिया और अन्य ने समुचित संज्ञान नहीं लिया लेकिन कुलदीप नायर ( अब दिवंगत ) सरीखे पत्रकार और मानवाधिकारवादियों के इसका विरोध करने के लिए लख़नऊ की सड़क पर उतरने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में जनहित याचिका दाखिल की। याचिका में सदन को कार्यवाही के लिखित रिकार्ड के साथ सदन की पत्रकार दीर्घा में अपनी ड्यूटी के लिए उपस्थित हमारे नोटबुक की प्रति संलग्न की गई। पत्रकारों के ऐसे नोट्स अदालत में ‘ मेटेरियल ‘ साक्ष्य के रूप में दाखिल किये जा सकते है। बहरहाल , उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने उस जनहित याचिका को यह कह खारिज कर दिया कि कल्याण सिंह को संभवतः पता नहीं होगा कि ‘ लिक्वीडेशन ‘ का विधिक अर्थ क्या होता है।
जिस बात पर चर्चा लगभग नहीं होती है वह यह है कि सभी नागरिकों के कुछेक विधिक अधिकार ब्रिटिश सांविधिक राजतंत्र के करीब दो सौ वर्ष के औपनिवेशिक शासन में ही नहीं उसके पूर्ववर्ती मुग़ल बादशाहों के शासन और उनके भी पूर्व के सम्राटों आदि के भी राज में थे। नागरिकों ने इनमें से जिसका सर्वाधिक उपयोग प्राकृतिक अधिकार का किया जिनका स्वामित्व किसी के पास नहीं है फिर भी वे भौगोलिक सीमाओं , आर्थिक , राजनीतिक , सामाजिक , सांस्कृतिक , धार्मिक , जातीयता , नस्ल, त्वचा के रंग , भाषा-बोली , शारीरिक कद-काठी, आयु , लैंगिक फर्क और अन्य किसी भी विभाज्यकारी मानदंडों के पार पूरे ब्रम्हांड और उसकी सभी आकाशगंगाओं न सही पृथ्वी ग्रह के सभी जैव , प्राणियों , वनस्पतिओं और अजैव पदार्थों के लिए प्राकृतिक रूप से कमोबेश उपलब्ध है। दीगर बात है कि पृथ्वी ग्रह के पास प्राकृतिक प्रकाश का अपना कोई स्रोत नहीं है। पृथ्वी के बाशिंदों को प्राकृतिक प्रकाश अपने सौर मंडल से प्राप्त होता है। भारत जैसे भौगोलिक सीमाओं के भीतर सौर ऊर्जा प्रकाश जितनी प्रचुरता से सहज , सरल निःशुल्क उपलब्ध है वह उतनी प्रचुरता से सभी भौगोलिक सीमाओं के भीतर उपलब्ध नहीं है। इसलिए उन भौगोलिक सीमाओं के भीतर के बाशिंदों को धूप के सेवन के लिए कुछ धन खर्च कर समुद्र तट पर जाना-रहना पड़ता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य सौर ऊर्जा को हथिया नहीं सकता है ना ही उसको उस तरह से बेचने या नीलाम कर सकता है जिस तरह से भारत समेत कई देशों की सरकारों ने अप्रचुर परिमाण में उपलब्ध ध्वनि तरंग दैर्घ्य यानि स्पेक्ट्रम टेलिकॉम कंपनियों को बेचे या नीलाम किये है।
भारत की अदालतों ने भी 2 -जी , 3 -जी , 4 जी , 5 जी के कथित घोटालों से सम्बंधित मामलों में ऐसे निर्णय या दिशानिर्देश दिए है। जो नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों के संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हैं। मानव सभ्यता की प्रौधोगिक प्रगति के फलस्वरूप , धूप , हवा और पानी जैसे इन प्राकृतिक अधिकारों के समुचित संरक्षण के लिए संविधान में समुचित संशोधन की आवश्यकता है। इन प्राकृतिक अधिकारों के अलावा नागरिकों के मानवाधिकार है जिनका श्रोत संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर 1948 को पारित ‘ सार्वभौमिक मानवाधिकार ‘ है जिस पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में भारत भी शामिल है। ये मानवाधिकार सारे अधिकारों की जननी है।
भारत का संविधान नागरिकों के उन मूलभूत अधिकारों के प्रति साफ है जिनका राष्ट्र-राज्य और उसके नागरिकों के बीच जन्मदात्री और उसके शिशु के बीच नाभिनाल जैसा सम्बन्ध या अनुबंध है। इस सम्बन्ध और अनुबंध में सरकार , न्यायपालिका और विधायिका संविधान से इतर दखलंदाजी नहीं कर सकती है। ये मूलभूत अधिकार , भारत के संविधान के भाग -3 में आर्टिकल की धारा 12 से आर्टिकल 35 तक में शामिल , परिभाषित और व्याख्यायित हैं। इंदिरा गांधी सरकार के शासनकाल में 25 जून 1975 को घोषित आंतरिक आपातकाल के दौरान 1976 में पेश उस 42 वे संविधान संशोधन विधेयक को विधायिका ने पारित कर दिया जिनके तहत कुछेक मूलभूत अधिकारों में कटौती कर दी गई , विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकत वैधता की समीक्षा करने के उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्ति पर अंकुश लगा दिए गए , प्रधानमंत्री कार्यालय को व्यापक अधिकार दे दिए गए , संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने के लिए प्राधिकृत कर यह प्रावधान कर दिया गया कि इसकी कोई न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है।
जब 21 मार्च 1977 को आंतरिक आपातकाल समाप्त घोषित किया गया तो उसी बरस कराये लोकसभा चुनाव के बाद बनी मोरारजी देसाई सरकार ने भारत के संविधान को 42 वे संविधान संशोधन से पहले की स्थिति में लाने के जनता पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में किये गए वादे के मुताबिक़ 43 वां और 44 वां संविधान संशोधन कर स्थिति बहुत हद तक दुरुस्त कर दी। बाद में 31 जुलाई 1980 को उच्चतम न्यायालय ने रही-सही कसर पूरी कर 42 वे संविधान संशोधन के उन दो प्रावधानों को भी असंवैधानिक करार दे दिया जिसके अनुसार किसी भी संविधान संशोधन की किसी भी आधार पर न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण रोक लगा दी गई थी। 42 वे संविधान संशोधन की इस विलम्बित न्यायिक समीक्षा से निकला सन्देश साफ और जोरदार था कि कार्यपालिका और विधायिका को नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में कटौती करनी है तो सिर्फ सविधान संशोधन अधिनियम बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि उन्हें नया संविधान बनाना पड़ेगा।
सवाल यह है कि भारत का नया संविधान कौन , कैसे बना सकता है, क्या यह मुमकिन है कि मोदी सरकार , न्यू इंडिया का संविधान रचने के लिए मौजूदा संसद को नई संविधान सभा में परिणत कर दे जिसमें सत्तारूढ़ एनडीए को लोकसभा में करीब दो-तिहाई बहुमत प्राप्त है और राज्यसभा में भी वह इतने बहुमत का सूक्ष्म प्रबंधन कर सकती है। यह नहीं तो वह नया संविधान बनाने के अपने किसी कदम को वित्त विधेयक के रूप में निरूपित कर उच्च सदन की सहमति की आवश्यकता को ही ठीक उसी तरह दरकिनार कर दे जैसा उसने हाल में कई विधेयकों को वित्त विधेयक होने का दावा कर किया है?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ( जेएनयू ) के राजनीतिक अध्ययन केंद्र के पूर्व छात्र और रांची में बसे दिवंगत एक्टिविस्ट उपेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार ऐसे उपाय असंवैधानिक होंगे। वह हमारे कामरेड इन आर्म्स थे। उन्होंने हमको बताया था कि नया संविधान रचने के लिए भी मौजूदा संविधान में ही प्रावधानित जनमत संग्रह ही एकमात्र विकल्प है लेकिन स्वतंत्र भारत में किसी मुद्दे पर जनमत संग्रह के प्रावधान का कोई खास उपयोग आज तक नहीं किया गया है। अब देखना यह है कि मोदी जी अपने स्वप्न के न्यू इंडिया के संविधान के लिए जनमतसंग्रह से आगे बढ़ते है या फिर कुछ और ही अकल्पनीय कदम उठाते है। इतना तो तय है कि अगर वह न्यू इंडिया के लिए नया संविधान रचते है तो उसमें गणतंत्रवाद का निर्वाह आसान नहीं होगा।
* लेखक स्वतंत्र पत्रकार , तक्षक पोस्ट के लगभग नियमित टीकाकार और कई किताबों के लेखक हैं जिनमें उनकी बहुचर्चित ‘ ईबुक ‘ आजादी के मायने भी है।
कवर फोटो –
#इण्डिया_देट_इज_भारत की राजधानी नई दिल्ली में 1952 के गणतंत्र दिवस परेड का अनोखा दृश्य जिसमें हिन्दुस्तानी किसानों ने अपने ट्रैक्टरों के साथ भाग लिया था।