भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने मंगलवार को समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के खिलाफ फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 3-2 से ये फैसला सुनाया। सीजेआई समेत 5 जजों की पीठ जिसमें न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति रवीन्द्र भट, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा शामिल थे, ने केंद्र सरकार से समलैंगिक समुदाय के अधिकारों को सुनिश्चित करने को कहा। संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से सहमति व्यक्त की कि समान-लिंग वाले जोड़ों के लिए विवाह करने का कोई अयोग्य अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए) के प्रावधानों को रद्द नहीं कर सकता और सीजेआई ने इस मुद्दे पर फैसला संसद पर छोड़ दिया है।
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इससे पहले पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने लगातार 10 दिन तक सुनवाई के बाद 11 मई को फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुप्रीम कोर्ट में 18 अप्रैल से इस मामले पर सुनवाई शुरू हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान साफ कर दिया था कि वो इस उम्मीद से कोई संवैधानिक घोषणा नहीं कर सकती कि संसद इस पर कैसी प्रतिक्रिया देगी। वहीं, सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं का विरोध किया था। केंद्र ने दलील दी थी कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने या न देने का अधिकार संसद का है, न कि अदालत का।
पीठ के सभी न्यायाधीशों ने सरकार को “विवाह” के रूप में उनके रिश्ते की कानूनी मान्यता के बिना, समलैंगिक समुदाय के व्यक्तियों के अधिकारों और अधिकारों की जांच करने के लिए एक समिति गठित करने का निर्देश दिया। ये फैसला भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) चंद्रचूड़, जस्टिस कौल, जस्टिस भट और जस्टिस नरसिम्हा ने सुनाया। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एसके कौल ने फैसला सुनाया कि समान-लिंग वाले जोड़े बच्चों को गोद ले सकते हैं, लेकिन अन्य तीन न्यायाधीश इससे सहमत नहीं थे। जस्टिस भट्ट ने कहा, वे समलैंगिक जोड़ों को गोद लेने की अनुमति देने वाली सीजेआई की राय से असहमत हैं।
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सीजेआई ने अपना फैसला सुनाते हुए समलैंगिक शादी को मान्यता देने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि उनकी राय में संसद को समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के मामले में फैसला करना चाहिए। उन्होंने समलैंगिक समुदाय के खिलाफ भेदभाव को रोकने के लिए केंद्र और पुलिस बलों को कई दिशा-निर्देश भी जारी किए।
सीजेआई ने कहा कि समलैंगिकता एक प्राकृतिक घटना है जो भारत में सदियों से ज्ञात है। यह न तो शहरी है और न ही संभ्रांतवादी। विवाह एक स्थायी संस्था नहीं है। एक कमेटी बनाई जाए जो राशन कार्डों में समलैंगिक जोड़ों को परिवार के रूप में शामिल करने, संयुक्त बैंक खाते के लिए नामांकन करने, पेंशन, ग्रेच्युटी आदि से मिलने वाले अधिकार सुनिश्चित करने के मसलों पर विचार करेगी।
सीजेआई ने फैसला सुनाते हुए कहा, “जीवन साथी चुनना जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. साथी चुनने और उस साथी के साथ जीवन जीने की क्षमता जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में आती है। एलजीबीटी समुदाय समेत सभी व्यक्तियों को साथी चुनने का अधिकार है। राज्यों, केंद्रशासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करना होगा कि इंटरसेक्स बच्चों को उस उम्र में लिंग-परिवर्तन ऑपरेशन की अनुमति न दी जाए जब वे इसके परिणाम को पूरी तरह से नहीं समझ पाएं। ये कहना सही नहीं होगा कि सेम सेक्स सिर्फ अर्बन तक ही सीमित नहीं है। समलैंगिकता मानसिक बीमारी नहीं है।”
चीफ जस्टिस ने कहा, “विवाह का रूप बदल गया है। यह चर्चा दर्शाती है कि विवाह का रूप स्थिर नहीं है। अदालत केवल कानून की व्याख्या कर सकती है, कानून नहीं बना सकती। अगर अदालत LGBTQIA+ समुदाय के सदस्यों को विवाह का अधिकार देने के लिए विशेष विवाह अधिनियम की धारा 4 को पढ़ती है या इसमें कुछ शब्द जोड़ती है, तो यह विधायी क्षेत्र में प्रवेश कर जाएगा।”
उन्होंने कहा, “संसद या राज्य विधानसभाओं को विवाह की नई संस्था बनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। स्पेशल मैरिज एक्ट (SMA) को सिर्फ इसलिए असंवैधानिक नहीं ठहरा सकते क्योंकि यह समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता है। क्या SMA में बदलाव की जरूरत है, यह संसद को पता लगाना है और अदालत को विधायी क्षेत्र में प्रवेश करने में सावधानी बरतनी चाहिए।”
जस्टिस भट्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा, “सीजेआई द्वारा निकाले गए निष्कर्षों और निर्देशों से सहमत नहीं हूं। हम इस बात से सहमत हैं कि शादी करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है। SMA असंवैधानिक नहीं है। विषमलैंगिक संबंधों के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को SMA के तहत शादी करने का अधिकार है। समलैंगिक जोड़ों को गोद लेने की अनुमति देने वाली सीजेआई की राय से असहमत हूँ।”
जस्टिस भट्ट ने कहा कि हालांकि हम इस बात से सहमत हैं कि समलैंगिक जोड़ों को संबंध बनाने का अधिकार है। हम स्पष्ट रूप से मानते हैं कि यह अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आता है। इसमें साथी चुनने और अंतरंगता का अधिकार शामिल है। वे सभी नागरिकों की तरह बिना किसी बाधा के अपने अधिकार का आनंद लेने के हकदार हैं।
जस्टिस एसके कौल ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा, “अदालत बहुसंख्यकवादी नैतिकता की लोकप्रिय धारणा से खिलवाड़ नहीं कर सकती। प्राचीन काल में समान लिंग में प्यार और देखभाल को बढ़ावा देने वाले रिश्ते के रूप में मान्यता प्राप्त थी। कानून केवल एक प्रकार के संघों को विनियमित करते हैं – वह है विषमलैंगिक। समलैंगिक को संरक्षित करना होगा। समानता सभी के लिए उपलब्ध होने के अधिकार की मांग करती है।”
बता दें कि पांच न्यायाधीशों की पीठ ने विभिन्न समान लिंग वाले जोड़ों, एलजीबीटीक्यू+ कार्यकर्ताओं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों द्वारा दायर 20 याचिकाओं पर सुनवाई के बाद इस मामले पर फैसला सुनाया। इन याचिकाओं में मांग की गई थी कि अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार LGBTQ+ (लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीर) समुदाय को उनके मौलिक अधिकार के हिस्से के रूप में दिया जाए। एक याचिका में स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 को जेंडर न्यूट्रल बनाने की मांग की गई थी, ताकि किसी व्यक्ति के साथ उसके सेक्सुअल ओरिएंटेशन की वजह से भेदभाव न किया जाए।