संसद का शीतकालीन या यूं कहें बजट सत्र आज , सोमवार 31 जनवरी से शुरू होने जा रहा है । दो चरणों में लगभग दो महीने की अवधि तक चलने वाले इस सत्र का पहला चरण 11 फरवरी तक चलेगा। इसके बाद तीन सप्ताह के ब्रेक के बाद मार्च के पहले सप्ताह में दूसरे चरण की शुरुआत होगी। संसद सत्र का दूसरा चरण मार्च के अंतिम सप्ताह तक चलने के बाद संसद के दोनों सदनों की कारवाई अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी जाएगी।
संसद के साल में तीन सत्र होते हैं। पहला यानी सत्र इन्हीं दिनों आयोजित होता है, इसके बाद जुलाई अगस्त में मॉनसून सत्र और साल के अंत में नवंबर- दिसम्बर के बीच शरद कालीन सत्र के रूप में संसद के अंतिम वार्षिक सत्र का आयोजन होता है। संसद का बजट सबसे महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है। इसके अनेक कारण हैं, सबसे बड़ी बात तो इस सत्र की शुरुआत राष्ट्रपति के संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करने से महत्वपूर्ण होती है, इसलिए इसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
राष्ट्रपति संसद के सत्र को बहुत काम अवसरों पर संबोधित करते हैं। बजट सत्र के अलावा राष्ट्रपति नई लोकसभा के गठन के बाद पहली बार बुलाए गए सत्र के मौके पर भी सांसदों को सम्बोदहित करते हैं। राष्ट्रपति जब भी संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हैं तब उनके अभिभाषण पर दोनों सदनों में धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के बाद पारित किया जाता है। राष्ट्रपति का अभिभाषण इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह सरकार के सालभर में किए जाने वाले कामकाज का पूरा दस्तावेज होता है और राष्ट्रपति तो देश का संवैधानिक मुखिया होने के नाते इसका सिर्फ वाचन ही करते हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण के अलावा बजट सत्र में सरकार के साल भर केआय और व्यय के ब्यौरे पर भी चर्चा होती है इसलिए भी इस सत्र का महत्व बढ़ जाता है।
वैसे तो तो हर साल संसद के बजट सत्र का अन्य सत्रों की तुलना में ज्यादा ही महत्व होता है लेकिन इस बार इसका महत्व दो कारणों से कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। एक वजह तो यह है कि इस साल इस सत्र का योजन ऐसे समय में हो रहा है जब पाँच राज्य विधानसभाओं के चुनाव की वजह से पूरा देश चुनाव मय हो गया है और दूसरा कारण यह भी है कि संसद के इस सत्र में एक ऐसा विधेयक लाना और संसद के दोनों सदनों से उसे पारित भी कराना चाहती है जिसके पारित होने से केंद्र सरकार को राज्य कैडर के आईएएस और आईपीएस यानी भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अधिकारियों को अपनी जरूरत के मुताबिक तैनात करने और उनकी जरूरत के अनुरूप ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार भी मिल जाएगा। केंद्र सरकार के इस आशय के प्रस्ताव पर केंद्र और राज्य सरकारों में आपस में जबरदस्त ठन गई है। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा शासित राज्य तो इस प्रस्ताव को स्वाभाविक स्वीकार करेंगे ही लेकिन गैर भाजपा शासित केरल, बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ , झारखंड, पंजाब और ऑडिशा समेत तकरीबन एक दर्जन राज्यों के मुख्यमंत्री इस प्रस्ताव का यह कहते हुए विरोध कर रहे क्योंकि उनके अनुसार केंद्र का यह कदम राज्यों के प्रशासनिक मामले में केंद्र सरकार का अनधिकार हस्तक्षेप होगा जो केंद्र और राज्यों के संबंध खराब करेगा लिहाजा उन्हें यह प्रस्ताव किसी तरह स्वीकार्य नहीं है ।
गैर भाजपा राज्यों के मुख्यमंत्रियों की इस राय के खिलाफ केंद्र सरकार हर हालत में इस आशय का विधेयक संसद के इस सत्र में लाने के लिए प्रतिबद्ध है। माना यह भी जा रहा है कि सत्र के पहले ही दिन संसद के केन्द्रीय कक्ष में राष्ट्रपति का अभिभाषण समाप्त होने के आधे घंटे के बाद जब संसद के दोनों सदनों की अलग – अलग बैठक आयोजित होंगी तब संसद के सदन पटल पर रखी जाने वाली वार्षिक आर्थिक समीक्षा और अन्य महत्वपूर्ण प्रपत्रों के साथ ही आईएएस और आईपीएस अधिकारियों की नियुक्ति और पदस्थापना से संबंधित 1954 के कानून में संशोधन करने वाला विधेयक भी संसद में पेश कर दिया जाएगा। इस विधेयक के पारित होते ही केन्द्रीय कैडर के प्रशानिक और पुलिस अधिकारियों का ट्रांसफर करने समेत कई शक्तियां केंद्र सरकार के हाथ में या जाएंगी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत विपक्षी दलों के अनेक नेताओं ने केंद्र सरकार के इस प्रस्तावित फैसले के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे अपने एक पत्र में कहा है कि ऐसा करने से संघीय ताना बाना और संविधान का मूलभूत ढांचा नष्ट हो जाएगा. विपक्ष के इन नेताओं में जिनमें जम्मू – कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उम्र अब्दुल और उनके पिता फारूख अब्दुल समेत एक दर्जन से ज्यादा नेताओं के नाम शामिल हैं , का यह मानना है कि ऐसा कोई कानून बन जाने से देश के संघीय ढांचे के ताबूत में एक और कील ठोंक दी जाएगी ।
एक तरफ राज्यों की अपनी दिक्कतें हैं, वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार की मजबूरी है कि उसके पास आईएएस और आईपीएस अधिकारियों का अकाल पड़ गया है। 1954 के कानून के मुताबिक केंद्र सरकार को राज्यों के कैडर के पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति के लिए उनके कैडेर राज्यों की सरकार से अनुमति लेनी होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि राज्यों की अनुमति नहीं मिलने से केंद्र में प्रशासनिक अधिकारियों के असंख्य पद लंबे समय तक भरे ही नहीं जाते। इसलिए केंद्र सरकार 1954 के कानून में बदलाव के लिए नया संशोधन विधेयक लाना चाहती है। इसके लिए केंद्र सरकार ने राज्यों से इस बाबत अपनी सलाह देने को भी कहा था। केंद्र सरकार यह संशोधन विधेयक इस मजबूरी में भी लाना चाहती है, क्योंकि उसको जरूरत के हिसाब से अधिकारी मिल नहीं पा रहे हैं। अतीत में ऐसे कई मौके आए जब राज्य सरकारों के मुखियाओं ने केंद्र की जरूरतों को नजर अंदाज करते हुए अपने कैडर के अधिकारियों की केंद्र में नियुक्ति की अनुमति ही नहीं दी थी। नया कानून बनने के बाद केंद्र में नियुक्ति को लेकर पूरी ताकत केंद्र के पास चली जाएगी इसीलिए विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं । केंद्र सरकार ने 1954 के नियम 6 में चार संशोधन प्रस्तावित किए हैं।
इन प्रस्तावित संशोधनों के मुताबिक एक – यदि राज्य सरकार अधिकारी को केंद्र में भेजने में देरी करती है और तय समय के भीतर निर्णय को लागू नहीं करती है,
तो अधिकारी को केंद्र सरकार द्वारा तय तारीख से राज्य कैडर से पद मुक्त कर दिया जाएगा।। अभी, IAS
अधिकारियों को केंद्र में नियुक्ति के लिए राज्य सरकार से NOC
लेनी होती है। दो – केंद्र राज्य के परामर्श से केंद्र सरकार में नियुक्त किए जाने वाले अधिकारियों की वास्तविक संख्या तय करेगा और बाद में राज्य ऐसे अधिकारियों के नामों को केंद्र और राज्य सरकारों की जरूरत के मुताबिक उपलब्ध कराएगा। तीन – केंद्र और राज्य के बीच किसी भी असहमति के मामले में,
निर्णय केंद्र सरकार द्वारा किया जाएगा और राज्य केंद्र के निर्णय को “एक तय समय के भीतर” लागू करेगा। चार – विशेष स्थिति में जहां केंद्र सरकार को “जनहित” में कैडर अधिकारियों की सेवाओं की जरूरत होगी ,
राज्य अपने निर्णयों को एक तय समय के भीतर प्रभावी करेगा। गौरतलब है कि इस बाबत मौजूदा नियमों के अनुसार,
राज्यों को केंद्र सरकार के कार्यालयों में भारतीय पुलिस सेवा(IPS)
अधिकारियों सहित अखिल भारतीय सेवा (IAS)
अधिकारियों की नियुक्ति करनी होती है और किसी भी समय यह कुल कैडर की संख्या का 40% से अधिक नहीं हो सकता है ।
आमतौर पर केन्द्रीय सेवा के इस कैडर के अधिकारियों की की नियुक्ति के मामले में राज्यों की ही चलती आई है और इसकी वजह से कई बार केंद्र और राज्य सरकारों के बीच टकराहट भी देखने को मिलती है। इसका एकताजा उदाहरण मई 2020 में बंगाल सरकार और केंद्र सरकार के बीच राज्य कैडर के आईएएस अधिकारी अलपन बंद्योपाध्याय को लेकर हुए विवाद के रूप में देखा जा सकता है। गौरतलब है कि दिसंबर 2020 में कोलकाता के बाहरी इलाके में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर कथित तौर पर तृणमूल कांग्रेस समर्थकों के हमले के बाद उनकी सिक्योरिटी का जिम्मा संभाल रहे तीन आईपीएस अधिकारियों की केंद्र में नियुक्ति का आदेश जारी हुआ था, लेकिन बंगाल की ममता सरकार ने राज्य में पुलिस अधिकारियों की कमी का हवाला देते हुए उक्त तीनों अधिकारियों को किसी भी तरह से राज्य से भेजने से इनकार कर दिया था।
ऐसा ही एक मामला 2001 में भी तब सामने आया था जब जयललिता के तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य पुलिस की जांच एजेंसी ने पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि के घर पर छापा मारते हुए उन्हें उनके सहकर्मियों और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे मुरासोली मारन और टीआर बालू के साथ गिरफ्तार भी कर लिया था। इसके बाद केंद्र ने राज्य सरकार से भारतीय पुलिस सेवा के तीन अधिकारियों को केंद्र सरकार की नियुक्ति में भेजने को कहा था, लेकिन जयललिता ने ऐसा करने से मना कर दिया था। इसी कड़ी में एक उदाहरण 2014 का भी है जब तमिलनाडु कैडर की पुलिस अर्चना रामासुंदरम करर नियुक्ति केन्द्रीय जांच एजेंसी ( सीबीआई ) हुई थीं, लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें रिलीज करने से मना कर दिया था। जब अर्चना ने राज्य सरकार के आदेश के खिलाफ अपनी सीबीआई की नियुक्ति जॉइन करने की कोशिश की थी , तो राज्य सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया था।