जनता पार्टी(भाजपा) के लिए उत्तराखंड का चुनावी पहाड़ पार करना इस बार उतना आसान नहीं होगा जितना पिछली दफा 2017 में हो गया था। इस बार खास बात ये भी है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए भाजपा में ही नहीं उसके प्रतिस्पर्धी कांग्रेस में भी खुले या छुपे अनेक दावेदार हैं।
पृथक राज्य उत्तराखंड, झारखंड और छतीसगढ़ का गठन भारत की केन्द्रीय सत्ता में भाजपा की ही अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने किया था। इन 21 बरस में अभी कांग्रेस शासित आदिवासी-बहुल छत्तीसगढ़ में तीन ही मुख्यमंत्री बने। लेकिन उत्तराखंड में भाजपा को 2017 के पिछले चुनाव के बाद 5 बरस में ही तीन बार अपने मुख्यमंत्री बदलने पड़ गए।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से भाजपा के भुवनचन्द्र खण्डूड़ी दो बार मुख्यमंत्री बने। ‘आदि रावत ‘ माने गए कांग्रेस के हरीश रावत ने मुख्यमंत्री पद की शपथ एक ही बार ली। पर वह अजीबोगरीब तरीके से कुल दो बार ‘ आये- गये ‘ हुये। इसलिए भी वो आदि रावत माने गए। वह इस बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के अघोषित दावेदार हैं।
कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार द्वारा 1971 में कायम पड़ोसी पर्वतीय राज्य,हिमाचल प्रदेश में भी पिछले 50 बरस में छह मुख्यमंत्री ही हुए।भाजपा के यशवन्त सिंह परमार, ठाकुर रामलाल, शान्ता कुमार और प्रेम कुमार धूमल दो-दो बार मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस के वीरभद्र सिंह रिकॉर्ड 5 बार मुख्यमंत्री बने।अभी भाजपा के जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री हैं।
उत्तराखंड के राजकाज में हैरानी की बात ये है कि चालू वित्त वर्ष 2021-22 के लिए राज्य सरकार का सालाना बजट भाजपा के त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने तैयार किया था।पर इसे खर्च करने का सुनहरा मौका भाजपा के ‘ दूसरे रावत ’ माने गए तीरथ रावत की सरकार को मिला।वित्त वर्ष पूरा होने के पहले ‘ आवत-जावत-रावत ‘ की कुर्सी के खेल में भाजपा के पुश्कर धामी को भी मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल गया।
किस्सा कुर्सी का-
नित्यानन्द स्वामी: उत्तराखण्ड की सियासत में अस्थिरता शुरुआत में ही तब आरंभ हो गई जब उसके बतौर पहले मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सभापति रहे भाजपा के नित्यानन्द स्वामी ने पहली नवम्बर 2000 को शासन संभालने के बाद अपने मंत्रिमण्डल का गठन किया। तब भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी, नारायण रामदास और रमेश पोखरियाल निशंक जैसे नेताओं ने शपथ ग्रहण का वहिष्कार कर दिया। इन तीनों के लिये अलग से 11 नवम्बर को शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करना पड़ा। टिहरी के विधायक लाखीराम जोशी भी मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलने पर ‘ बागी ‘ हो गए। जोशी जी समेत अन्य नेताओं की बगावत स्वामी जी को अपदस्थ करने के बाद ही खतम हुई। स्वामी जी ने 29 अक्टूबर 2001 को विधान सभा में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा में कड़वी बातें कह दी।उन्होंने राज्य की इस पहली सरकार को गिराने में शराब माफिया की शह पर अपनी पार्टी के कुछ आला नेताओं को इंगित कर दिया। वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 354 दिन टिके। उनके शासन काल में राज्य का नाम उत्तरांचल था। राज्य का नाम बाद में बदल कर उत्तराखंड कर दिया गया।
नारायण दत्त तिवारी : कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे दिवंगत नारायण दत्त तिवारी को छोड़ राज्य में कोई भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पांच बरस नहीं टिक सका है। उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे और दिवंगत होने के पहले कांग्रेस से भाजपा की शरण में चले जाने वाले तिवारी जी वो कांग्रेसी सरकार भी जैसे-तैसे ही 5 बरस टिक सकी थी। वह इस राज्य की पहली विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बने थे। तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हरीश रावत ने तिवारी सरकार को चैन से राज करने नहीं दिया। आदि रावत की शिकायत थी कांग्रेस ने चुनाव उनके नेतृत्व में जीता पर शासन करने तिवारी जी को भेज दिया।
भगत सिंह कोश्यारी: इनके ही नेतृत्व में भाजपा ने 2007 का विधानसभा चुनाव जीता। लेकिन पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने नवनिर्वाचित 34 विधायकों की बैठक औपचारिक बैठक में उनके समर्थन में उभरे स्पष्ट बहुमत को दरकिनार कर पौड़ी-गढ़वाल के लोक सभा सदस्य एवं तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री भुवन चन्द्र खण्डूरी को विधायक दल का नेता घोषित करवा दिया। कहते है उस बैठक में 22 विधायक कोश्यारी के पक्ष में,7 रमेश पोखरियाल निशंक के समर्थन में और सिर्फ 4 विधायक खण्डूरी के साथ थे।नतीजा हुआ कि भाजपा विधायको में भड़के भारी असंतोष से दबाव में खण्डूरी जी को 26 जून 2009 को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ गई। अगले दिन 27 जून को निशंक को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई। लेकिन निशंक जी को खण्डूरी गुट और कोश्यारी गुट की बगावत के कारण 2 साल 75 दिन ये कुर्सी छोड़ देनी पड़ी। खण्डूरी जोड़ तोड़ कर 11 सितम्बर 2011 को फिर मुख्यमंत्री बन गए।
विजय बहुगुणा : उत्तराखंड विधान सभा के 2012 के चुनाव में कांग्रेस के जीतने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी विजय बहुगुणा को मिल गई। वह बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायाधीश रहे हैं और उत्तर प्रदेश के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा और सांसद रहीं कमला बहुगुणा के पुत्र हैं। उनकी पुत्री और इलाहाबाद की पूर्व मेयर रीता बहुगुणा जोशी कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आ गई हैं।
विजय बहुगुणा से हरीश रावत ने 690 दिन बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन ली। कांग्रेस के इन ‘आदि रावत ‘ जी को 31 जनवरी 2014 को मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने का मौका मिल गया। पर विजय बहुगुणा गुट के 9 विधायकों ने 18 मार्च 2016 को विधान सभा में हरीश रावत सरकार का बजट पारित कराने में विधन डाल दिया। भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ जब किसी पार्टी के विधायकों ने अपनी सरकार के बजट को पास नहीं होने दिया।
2017 का चुनाव-
कुल 70 सीट की विधान सभा के 2017 में हुये पिछले चुनाव में भाजपा ने 57 पर जीत दर्ज कर अपार बहुमत हासिल की। फिर भी भाजपा उत्तराखंड को स्थिर सरकार नहीं दे सकी। पहले तो त्रिवेन्द्र रावत जी मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने की चौथी वर्षगांठ मनाने के पहले उनसे ये कुर्सी छिन गई। भाजपा ने उनकी जगह 10 मार्च 2021 को गढ़वाल से लोकसभा सदस्य तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया। लेकिन मोदी सरकार और भाजपा को खुद पैदा किये ‘ संवैधानिक संकट ‘ से बचने तीरथ सिंह रावत से मुख्यमंत्री की कुर्सी सौ दिन में छीन लेनी पड़ी। तीरथ सिंह रावत को 2 जुलाइ 2021 को रात के अंधेरे में प्रांतीय राजधानी देहरादून में राजभवन जाकर राज्यपाल को अपनी सरकार का इस्तीफा देना पड़ गया। उन्होंने इस्तीफा देने से पहले नई दिल्ली जाकर 30 जून को केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे पी नड़ड़ा समेत पार्टी के आला नेताओं से मंत्रणा की। ये संवैधानिक संकट यूं आया कि वह निर्धारित अवधि में विधायक बनने में नाकाम रहे।भारत के मौजूदा संविधान के अनुच्छेद 164 (4) और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (1951) की धारा 151 ए के प्रावधानों के तहत किसी का भी मुख्यमंत्री या मंत्री बनने के छह माह के भीतर विधायक निर्वाचित होना अनिवार्य है।निर्वाचन आयोग ने विधान सभा की रिक्त किसी सीट पर उपचुनाव नहीं कराया। क्योंकि नियम ऐसा है जब विधानसभा चुनाव बरस भर के भीतर होने हैं तो उसकी रिक्त सीट पर उपचुनाव नहीं कराये जा सकते हैं।आयोग ने स्पष्ट कर दिया उत्तर प्रदेश की सात और उत्तराखंड की दो रिक्त विधान सभा सीट पर उपचुनाव नहीं कराये जाएंगे।
तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री रहते गंगोत्री की रिक्त विधान सभा सीट पर उपचुनाव नही लड़ना चाहते थे। वे गढ़वाल लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र की किसी विधान सभा सीट से चुनाव लड़ने तैयार थे।पर सियासी पेंच ये फंसा कि इसके लिए मौजूदा विधायक अपनी सीट खाली करने राजी नहीं हुए। कहते हैं रावत जी के जावत जी बन जाने की खुशी में उस रात देहरादून की डिफेंस कालोनी में पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की कोठी में पटाखे छोड़े गए।
पिछला चुनाव-
उत्तराखण्ड में 2017 में निर्वाचित मौजूदा विधानसभा के पांच बरस के कार्यकाल में एक ही पार्टी, भाजपा के तीन मुख्यमंत्री की तीन सरकार बन चुकी है। इसकी गारंटी नहीं कि विधान सभा के अगले बरस फरवरी– मार्च में निर्धारित अगले चुनाव के पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई चौथा नेता काबिज न हो जाए। धामी जी को तीन जुलाई को देहरादून में मोदी सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की अध्यक्षता में हुई बैठक में भाजपा के उत्तराखंड विधायक दल का ‘ सर्वसम्मति ‘ से नेता चुने जाने की घोषणा की गई। उन्होंने कुछ विधायकों के साथ राजभवन में राज्यपाल बेबी रानी मौर्य से भेंट कर नई सरकार बनाने का दावा पेश किया. राज्यपाल ने उन्हे प्रदेश के 11वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ दिला दी। धामी जी ने गदगद भाव में कहा:मेरी पार्टी ने मुझ जैसे सामान्य कार्यकर्ता को सेवा का अवसर दिया है. हम पूर्व मुख्यमंत्रियों के काम आगे बढाएंगे।
नया मुख्यमंत्री बनने की होड में निवर्तमान रावत सरकार में उच्च शिक्षा राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डा धन सिंह रावत और कांग्रेस से भाजपा में आए सतपाल महाराज भी शामिल थे। पुष्कर सिंह धामी उत्तराखंड के दो भौगोलिक क्षेत्रों, गढ़वाल और कुमाऊँ में विभाजित भाग में से कुमाऊँ की खटीमा विधानसभा सीट से दो बार, 2012 और 2017 में जीते हैं. उनका जन्म पिथौरागढ़ के टुंडी गांव में हुआ था.वह कॉलेज की पढ़ाई के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के उद्घोषित आनुषांगिक संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में 1990 से 1999 तक रहे। एबीवीपी के संविधान में लिखा है कि उसके सदस्य सियासत में भाग नहीं लेंगे। लेकिन उसका शायद ही कोई सदस्य इस बंदिश का पालन करता है। मोदी सरकार के अहम कैबिनेट मंत्री रहे दिवंगत अरुण जेटली भी दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान इंडिया टीवी के मालिक रजत शर्मा संग एबीवीपी सदस्य रहे थे।
धामी जी 2002 से 2006 तक भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष और फिर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष भी रहे हैं. धामी जी निवर्तमान मुख्यमंत्री रावत तथा पूर्व मुख्यमंत्री और अभी महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी के अलावा डिफेंस मिनिस्टर राजनाथ सिंह के करीबी रहे हैं। वह उत्तराखंड में कोशियारी सरकार के दौरान मुख्यमंत्री के बाकायदा सलाहकार रहे थे।
सीबीआई जांच-
तीरथ सिंह रावत ने बतौर मुख्यमंत्री नर्सिंग भर्ती की तारीखों में बार-बार बदलाव किये। आरोप है कि इन बदलाव के पीछे का कारण धन का लेनदेन था। उन्होंने कई मसलों पर बेतुके बयान दिए। उन पर ‘ कुंभ टेस्टिंग घोटाले ‘ में लिप्त होने का भी आरोप है।
उत्तराखंड हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने हाल में केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के एक मामले में एफआईआर दर्ज कर छानबीन करने के आदेश दिए हैं। जिन आरोपों की सीबीआई जांच का आदेश उच्च न्यायालय ने दिया है वे त्रिवेंद्र रावत के मुख्यमंत्री बनने से पहले के हैं। उन पर ‘ ढैंचा बीज घोटाला ‘ में गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। भ्रष्टाचार के मामलों में जोर शोर करने वाली भाजपा ने इस बारे में चुप्पी साध रखी है।
बहरहाल,यह साफ है कि तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से संवैधानिक संकट के कारण हटाने की मोदी सरकार, भाजपा और हड़बड़ हड़बड़ मीडिया का दावा सत्य नहीं हैं। उन्हें उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की शुरू जांच से डर कर मुख्यमंत्री पद से हटाया गया है। सीबीआई फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी का पिंजरे में बंद तोता नहीं है। क्योंकि उसके नए निदेशक की हालिया नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री मोदी, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन वी रमन्ना और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन मजूमदार की हाई पावर्ड कमेटी की बैठक में मोदी जी की मंशा धरी की धरी रह गई। नए निदेशक के रूप में महाराष्ट्र के अरबों रुपये के तेलगी रेवेन्यू स्टाम्प घोटाला की सफलतापूर्वक जांच करने वाले आईपीएस अफसर सुबोध कुमार जायसवाल को ही सबसे सीनियर होने के नाते इस पद पर नियुक्ति करने के जस्टिस रमन्ना के आग्रह पर मोदी जी को भी हामी भरनी पड़ी। इतना तो तय है कि मोदी जी का चुनावी ऊंट अब पहाड़ के नीचे आ गया है।
इंडिया दैट इज भारत में आबादी के हिसाब से सबसे बड़े प्रांत, उत्तर प्रदेश का पेट चीर कर 9 नवम्बर 2000 को बनाए पृथक राज्य, उत्तराखंड की सेहत के रखवाले होने का दंभ भरने वाले बहुत है पर दरअसल है कोई भी नहीं। होते सही रखवाले तो इस राज्य के विधिक रूप से अस्तित्व में आने के बाद के इन 21 बरसों में कोई तो टिकता।
कहते हैं उत्तराखण्ड में कोई भी नेता किसी भी दूसरे को अपना नेता नहीं मानता। इसकी साफ झलक उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान केंद्र में कांग्रेस की पीवी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा आन्दोलनकारियों को वार्ता के लिए दिल्ली बुलाने पर दिख गई। प्रधानमंत्री से वार्ता के लिए 65 संगठनों के नेता पहुंच गये।
दलबदल-
उत्तराखंड में दलबदल का सिलसिला तेज हो गया है। शुरुआत भाजपा ने की थी जो कांग्रेस के एक और दो निर्दलीय विधायकों को पार्टी में शामिल करा चुकी है। कांग्रेस ने भाजपा को जवाबी झटका देकर कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य व उनके विधायक पुत्र संजीव आर्य की घर वापसी करा दी। घर वापसी इसलिए कि आर्य पहले कांग्रेस में ही थे और वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान वह भाजपा में शामिल हुए थे।
2016 के बाद उत्तराखंड में दलबदल और बढ़ा है। तब कांग्रेस के एक पूर्व मुख्यमंत्री समेत नौ विधायकों ने एक साथ भाजपा का दामन थाम लिया था। 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान एक कैबिनेट मंत्री समेत दो विधायक कांग्रेस छोड़ भाजपा में चले गए थे। 2007 में भुवन चंद्र खंडूड़ी के लिए कांग्रेस के टीपीएस रावत और 2012 में विजय बहुगुणा के लिए भाजपा के किरण मंडल ने सीट छोड़ी थी। दलबदल के मामले में उत्तराखंड हरियाणा से कमतर नहीं है।
नए जिले-
कांग्रेस की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने वादा किया है कि उनकी पार्टी सत्ता में आने पर नए नए जिले बनाएगी। उन्होंने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में कहा भाजपा सरकार ने नए जिलों के मुद्दे पर कुछ भी ठोस नहीं किया है। इस चुनाव के बाद कांग्रेस सरकार बनने पर दो साल के भीतर नए जिलों पर काम पूरा कर लिया जाएगा। रावत ने कहा- डीडीहाट, रानीखेत, पुरोला के लोग अपना अलग जिला चाहते हैं।
कोटद्वार, नरेंद्रनगर, काशीपुर, गैरसैंण, वीरोंखाल, खटीमा के लोगों की भी नए जिले की मांग है। उनके मुताबिक कांग्रेस सरकार ने इन जिलों को बनाने के लिए 2016 में एक सौ करोड़ रुपये की व्यवस्था की थी। हरीश रावत एवं कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल ने ‘घर घर कांग्रेस हर घर कांग्रेस’ अभियान के तहत देहरादून की बाल्मीकि बस्तियों में लोगों को संबोधित कर कहा कि प्रदेश में बेरोजगारी और महंगाई बढ़ती जा रही है। जनता त्रस्त है पर सरकार का अफसरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं है। भाजपा की सरकार कारपोरेट,भूमि एवं खनन मफियाओं के सहारे संचालित है। वह उनके धन से कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश कर रही है। सरकार से हर वर्ग परेशान है।
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा में महिलाओं को भी चुनाव कमान दी गई है।भाजपा ने राज्य की 70 विधानसभाओं में महिलाओं को भी सहप्रभारी बनाया है। मुख्यमंत्री धामी उत्तराखंड चुनाव में एनडी तिवारी के नाम को भुनाने की जुगत में हैं।
महामारी – रोजगार
कोरोना कोविड 19 महामारी की दूसरी लहर के बाद उत्तराखंड में व्यापार-व्यवसाय ठप है। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने महामारी से निपटने में राज्य सरकार के ‘ कुप्रबंधन ‘ को जिम्मेवार ठहराते हुए वार्षिक ‘ चार धाम यात्रा ’ पर रोक लगा दी थी। इस यात्रा से असंख्य लोगों को रोजगार के अवसर मिलते रहे हैं। महामारी के चलते लगातार दो बरस से यह यात्रा बाधित रही। इससे रोजी-रोटी का संकट बढ़ गया। हाल में अदालती रोक टोक शिथिल कर दी गई है और यह धार्मिक यात्रा देर से शुरू हो गई है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो इस पहाड़ी राज्य की अवाम की नजर में उत्तराखण्ड में पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी से लेकर बिल्कुल टटका-टटकी 11वे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी तक सब के सब ‘ कामचलाऊ ‘ ही हुए हैं।