हमने जब पत्रकारिता को चुना, तब हमारे सामने कुछ आदर्श थे। हमारे गृह जिले कानपुर में पत्रकारिता की चर्चा होती, तो गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम आता था। वकालत हमारे परिवार का व्यवसाय रहा है। हमने भी वकालत पढ़ी और कुछ दिन की भी, मगर दिल ओ दिमाग में पत्रकारिता छाई थी। मुश्किल से परिवार राजी हुआ। लखनऊ से पत्रकारिता की यात्रा शुरू की। हमारे संपादक विनोद शुक्ल ने अवसर देते वक्त गणेश शंकर विद्यार्थी के कई वृत्तांत सुनाये। हमने उन्हें आदर्श बना लिया। विद्यार्थी जी न सही, उनकी चरण रज को तो माथे पर लगा ही सकते हैं।
लखनऊ में संवाददाता और उपसंपादक की भूमिका के दौरान, जब कभी किसी सांप्रदायिक घटना पर खबर लिखते, तब हम “एक समुदाय” शब्द का प्रयोग करते थे। कोशिश रही कि खबर को खबर ही रहने दें, न कि सांप्रदायिक बना सस्ती बिकाऊ सामग्री बनायें। हिंदुस्तान में संपादक रहने के दौरान आगरा की एक घटना काबिल ए जिक्र है, जब एक हत्या को सभी प्रतिद्वंदी अखबार सांप्रदायिक रूप दे रहे थे। हमने अपने प्रधान संपादक शशि शेखर जी को तथ्यों से अवगत करा दिशा निर्देश मांगा। उन्होंने पत्रकारिता का बड़ा मंत्र “जो है, जैसा है और जहां है, वैसा ही प्रस्तुत करो”, दिया। कुछ देर हम पीछे दिखे मगर बाद में विश्वसनीयता के बूते तेजी से आगे बढ़ नंबर-1 हुए। यही तो विद्यार्थी जी ने सिखाया था। 2009 में जब न्यूज चैनल से जुड़ा, तब भी यही होता था, मगर अब चैनलों और अखबारों में जो परोसा जा रहा है, क्या वह पत्रकारिता का अंश मात्र भी है? यह बड़ा सवाल है। इन हालात को देखकर हम कई बार खुद को उसमें योग्य नहीं पाते। तमाम बड़े समूहों के समाचार चैनलों और अखबारों में जिस तरह हिंदूवादी, मुस्लिम परस्त, खालिस्तानी, पाकिस्तानी और ईसाइयत जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है, वह देखकर लगता है कि आज विद्यार्थी जी होते, तो शायद पत्रकारिता को कलंक मानते।
गणेश शंकर विद्यार्थी सदैव राजनीति और धर्म के घालमेल के खिलाफ थे। उन्होंने लिखा था, ‘देश की आजादी के लिए वह दिन बहुत बुरा था, जिस दिन आजादी के आंदोलन में खिलाफत, मुल्ला, मौलवियों और धर्माचार्यों को स्थान दिया गया।’ उन्होंने महात्मा गांधी के अनुयायी होते हुए भी, खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने पर उनका विरोध किया था। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1930 में जब उन्हें यूपी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया, तब उन्होंने सद्भाव की सियासत को आगे बढ़ाया था। सियासी जुड़ाव के बावजूद उन्होंने रीढ़वान और सद्भाव की पत्रकारिता से कभी समझौता नहीं किया। सांप्रदायिकता से लड़कर सद्भाव बनाने की कोशिश करते हुए उन्होने अपने प्राणों की आहुति दी। 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी के अगले ही दिन कानपुर हिंदू-मुस्लिम दंगे की आग में जल उठा था। विद्याथीर्जी लोगों को शांत करने और पीड़ितों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने में लगे थे। मुस्लिम आबादी में तो उन्हें सफलता मिली, मगर अपने हिंदू बाहुल्य चौबे गोला में 25 मार्च, को उनकी हत्या कर दी गई। मारकाट के बीच दो दिन बाद उनका शव अस्पताल में बदतर हालत में मिला। अंग्रेजी हुकूमत ने उनके शव को हाथरस की गैंगरेप पीड़िता की तरह गुपचुप जलवा दिया। उन्होंने अपनी कलम से सुधारवादी क्रांति को बढ़ावा दिया, जहर को नहीं। 26 अक्तूबर 1890 को इलाहाबाद में जन्मे और 26 मार्च 1931 में कानपुर में उनका शव मिलने के 41 साल के दौरान उनकी पत्रकारिता हो या राजनीति या फिर आजादी का आंदोलन, सभी में उन्होंने सद्भाव और राष्ट्र को जिया। वो पांच बार जेल गये मगर न कभी माफी मांगी और न जमानत।
आज राजनीति और पत्रकारिता, दोनों सांप्रदायिकता के रंग में रंग चुके हैं, तब विद्यार्थी जी का याद आना स्वाभाविक है। उनकी शहादत को पंडित नेहरू ने अपनी राजनीति में कभी धूमिल नहीं होने दिया। सर्वधर्म समभाव और सर्वजन सुखाय की नीति पर खड़ी होने वाली कांग्रेस ने देश को आजादी दिलाई और उसका निर्माण भी किया मगर इन दिनों उसमें भी धार्मिकता का लचीलापन देखने को मिल रहा है, हालांकि वह कट्टरतापूर्ण नहीं है। धार्मिक मान्यता सदैव निजी विषय होता है, उसे सार्वजनिक या राजनीतिक मंच पर प्रदर्शित नहीं करना चाहिए। अगर कांग्रेस सांप्रदायिक और जातिवादी दलों की तरह दिखावे की कोशिश करेगी, तो उसमें और दूसरों में फर्क क्या रह जाएगा? कांग्रेस का इतिहास सत्ता से अधिक, सिद्धांतों-मूल्यों और नीतियों की रक्षा का रहा है। स्वार्थ और लोलुप नेताओं के पीछे चलने के बजाय, लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष और सद्भाव स्थापित करने वाले कार्यकर्ताओं की फौज तैयार करने का वक्त है। कांग्रेस को अब बदलते समाज में घोले जा रहे जहर को पीकर भी, भारत और उसकी संस्कृति की रक्षा की कोशिश करनी होगी। यही बात पंडित नेहरू ने अपनी पुस्तक “भारत एक खोज” में समझाई है। आज भी देश में बहुतायत उसी वर्ग का है, जो सद्भाव, समग्र विकास और सर्वजन हिताय की सोचता है। यही कारण है कि 58 फीसदी मतदाता सांप्रदायिक दलों को वोट नहीं देता है। 1937-46 के दौरान जब मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा देश को बांटने की बात कर रहे थे, तब यूपी की 58 से 68 फीसदी जनता कांग्रेस के साथ खड़ी थी। आजादी के बाद जब राष्ट्र निर्माण की बात चली, तब यूपी की 90 फीसदी और देश की तकरीबन 75 आबादी कांग्रेस के साथ थी। पत्रकारिता का चेहरा भी सृजनात्मक था, न कि नफरती।
हमारे नेताओं और पत्रकारों को भेड़ चाल के बूते अपनी जगह बनाने के बजाय लोक हित के विषयों पर अडिग रहना चाहिए। देश, महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी,अपराधीकरण और सार्वजनिक संपतित्यों के लूट का शिकार है। जनता तमाम तरह के करों के बोझ में दबी जा रही है। लोग इलाज के अभाव में मर रहे हैं। सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था पंगु हो गई है। कर्ज का बोझ बढ़ रहा है और आमदनी घट रही है। ऐसे में नेताओं के मंदिर-मस्जिद,गुरुद्वारों-गिरजाघरों में जाने से जनता का भला नहीं हो सकता। आमजन को एक आदर्श व्यवस्था की जरूरत है। धार्मिकता को अपनी तिजोरी का विषय बनाकर, उन्हें सर्वजनहित पर सार्वजनिक बहस करने का कांग्रेसी इतिहास है। भारतीय मीडिया पर धार्मिक और नफरती सामग्री या कार्यक्रमों को प्रतिबंधित करना चाहिए। धार्मिक यात्राओं के लिए सरकारी मदद पूरी तरह बंद होनी चाहिए। जाति और धर्म के नाम पर वोट की राजनीति दंडनीय अपराध होना चाहिए। किसी और से तो नहीं मगर कांग्रेस से तो यही उम्मीद की जाती है। सोनिया गांधी ने कांग्रेस जनों को कड़ा संदेश दिया है मगर उसका पालन भी होना जरूरी है। प्रियंका गांधी ने एक अच्छी शुरुआत की है और राहुल गांधी ने त्रिपुरा में मुस्लिम समुदाय के लोगों की टारगेट हत्यायें हों या फिर कश्मीर में पंडितों पर हमले, दोनों का खुलकर विरोध करके कांग्रेस की नीतियों को जिंदा किया है। कांग्रेस अपनी नीतियों, मूल्यों और आदर्शों पर चलकर ही सबसे आगे निकल सकती है। अगर वह भी भाजपा या देश की दूसरी जाति-धर्म आधारित पार्टियों की पिछलग्गू बनी, तो न वह रहेगी और न देश बचेगा।
यह कठिन वक्त है। हमें महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, एनी बेसेंट, गणेश शंकर विद्यार्थी, मदन मोहन मालवीय और बाल-लाल-पाल की नीतियों को पर चलकर एक बार फिर से देश को आजाद कराना है, उस कट्टर सांप्रदायिकता-जातिवाद से जो हमारे देश को खोखला कर रही है। हमें समझना होगा,धर्म-जाति से पहले देश और उसकी विरासत मायने रखती है। कांग्रेस की राजनीति शिक्षा, समग्र विकास और सर्वजन हिताय पर आधारित रही है और वही रहनी भी चाहिए। नेताओं और असहिष्णु जनता को मनाने के लिए धार्मिक दिखने की नहीं। पत्रकारिता का भी यही धर्म है कि हम सहिष्णु देश बनायें, सांप्रदायिक और विघटनकारी नहीं, क्योंकि सत्ता सबकुछ नहीं होती मगर मानवता सबकुछ होती है। हमारी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस सांप्रदायिकता से लड़ते हुए ही अपने प्राणों की आहुति दी थी। जिस पर कुछ कट्टर धार्मिक संगठनों ने देश को अराजकता की आग में झोक दिया था और दाग कांग्रेस पर लगा था।
जय हिंद!
(लेखक मल्टीमीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं )