एक वो भी ज़माना था जब पूरे देश में कांग्रेस की तूती बोलती थी। केंद्र से लेकर देश के हर राज्य तक केवल कांग्रेस की ही सरकार हुआ करती थी और एक ज़माना आज का है, जब केंद्र में दूसरी बार कांग्रेस के हाथ से सरकार बनाने का मौका निकला और राज्यों में भी उसका शासन सिमटता रहा।
हालत ये है कि आज देश के तीन राज्य ही ऐसे रह गए हैं जहां कांग्रेस की अपने बूते बनी सरकारें वजूद में हैं। ये राज्य हैं – पंजाब , छत्तीसगढ़ और राजस्थान। इसके अलावा महाराष्ट्र और झारखंड जैसे कुछ राज्यों में भी यह पार्टी सरकार में शामिल है, लेकिन इन राज्यों में कांग्रेस की नहीं गठबंधन की सरकार हैं और गठबंधन सरकार की मुखिया कांग्रेस पार्टी नहीं बल्कि शिवसेना और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जैसी सी पार्टियां हैं। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सत्ता के इस तरह सिमट जाने के बाद भी देश की इस सबसे पुरानीऔर इतिहास की सबसे बड़ी पार्टी का अंतर्कलह शांत होने को नहीं आ रहा है।
देश के इन तीनों राज्यों के कांग्रेसी अपनी सारी उर्जा प्रदेश स्तर की गुटबाजी की लड़ाई में ही झोंक देना चाहते हैं। पंजाब में मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह बनाम प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू की लड़ाई राष्ट्रीय स्तरपर चर्चा के केंद्र में है तो राजस्थान में 40 – 45 साल के सचिन पायलट 70 साल के दिग्गज नेता मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को ही निपटाने में लगे हैं। उधर आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ राज्य में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपनी ही सरकार के एक मंत्री सिंहदेव के निशाने पर इसलिए हैं क्योंकि उनको ढाई साल बाद भूपेश बघेल के स्थान पर बारी – बारी से मुख्यमंत्री बनाने का भरोसा दिया गया था और ढाई साल का यह समय पूरा हो गया है….
याद हो कि 2014 के लोकसभ चुनाव से पहले भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था , काफी हद तक भाजपा अपने अभियान में सफल भी हुई है। कांग्रेस मुक्त भारत की रही – सही कसर कांग्रेस के नेता ही आपस में लड़ – लड़ कर पूरी कर देना चाहते हैं। सात साल पहले केंद्र की सत्ता से बेदखल होने बाद होना तो ये चाहिए था कि पार्टी एकजुट होकर सत्तारूढ़ भाजपा का विरोध करती पर यह आपस में ही लड़ने लगी।
केन्द्रीय नेतृत्व से नाराज रहने वाला एक 23 सदस्यीय गुट ही अलग बन गया। इस समूह के कपिल सिब्बल , मनीष तिवारी , आनंद शर्मा , शशि थरूर , गुलाम नबी आजाद सरीखे ज्यादातर सदस्य वो हैं जो पार्टी के आला नेतृत्व की कृपा से ही यहाँ तक पहुंचे हैं लेकिन आज उनको नेतृत्व में खोट नजर आने लगा है। उम्मीद की जा रही थी कि, गांधी परिवार के हस्तक्षेप से पंजाब कांग्रेस पार्टी का अंदरूनी संकट समाप्त हो जाएगा और पार्टी एकजुट हो कर अगले वर्ष की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट जायेगी लेकिन जिस तरह से प्रदेश पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने पलटी मारी है उससे वह भ्रम टूटने के साथ ही ऐसा भी लगने लगा है कि सिद्धू अपने निजी लाभ के लिए पार्टी को छोड़ने और समर्थक विधायकों के साथ आप या किसी अन्य पार्टी का दामन थामने से भी संकोच नहीं करेंगे।
यह काम विधानसभा चुनाव से पहले भी हो सकता है और बाद में भी। नवजोत सिंह सिद्धू किसी भी कीमत पर राज्य का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। सिद्धू खेमा विधानसभा चुनाव से पहले पर जिस तरह से अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मुहिम में लगा हुआ है, लगता तो यही है कि उनका वन पॉइंट एजेंडा अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाना है।
उधर, छत्तीसगढ़ में करीब तीन साल पहले कांग्रेस नेता राहुल गाँधी द्वारा सुझाया गया स्पलिटलीडरशिप का फार्मूला ही कांग्रेस एकता के गले की फांस बन गया है। गौरतलब है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की शानदार जीत
के बाद राज्य के नेताओं के गुटीय विवाद को सुलझाने के क्रम में लिए गए स्प्लिट लीडरशिप के फैसले के तहत यह तय किया था। पहले ढाई साल भूपेश बघेल राज्य के मुख्यमंत्री होंगे और अगले ढाई साल टी एस सिंहदेव राज्य के मुख्यमंत्री होंगे। ढाई साल का यह समय इस साल जून में पूरा हो गया है और टी. एस. सिंह देव ने पार्टी को राहुल गांधी के वादे की याद दिलानी शुरू कर दी।
टीएस सिंह देव पिछले ढाई वर्षों से प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री थे, कागजों पर अब भी हैं, पर जब सरकार को करोना के आशंकित तीसरे दौर से लड़ने की तैयारी करनी थी तब सिंह देव ने नाराज़ हो कर अपने आप को मंत्रालय के काम काज से दूर कर लिया। स्प्लिट लीडरशिप का यह सिद्धांत आम तौर पर गठबंधन की सरकारों के सन्दर्भ में लागू किया जाता है लेकिन छत्तीसगढ़ में अपनी ही पार्टी की सरकार के सन्दर्भ में इस फ़ॉर्मूले को लागू करने की बात कह कर एक भूल तो राहुल गाँधी ने की ही है अब इसका निदान खोजना उन्हीं को भारी पड़ने लगा है। पिछले दिनों दिल्ली में इस मामले पर राहुल गाँधी के निवास पर राहुल के साथ ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल , स्वास्थ्य मंत्री सिंहदेव , राज्य के प्रभारी पार्टी पदाधिकारी पीएल पुनिया और पार्टी के संगठन महामंत्री के.सी. वेणुगोपाल के साथ हुई तीन घंटे की बैठक में काफी कुछ कहा – सुना गया लेकिन ऐसा लगता है कि राहुल गांधी अपने वादे से मुकर गए हैं और बघेल को जीवनदान मिल गया है।
राजस्थान अभी भी गहलोत और पायलट में उलझा है तीसरे कांग्रेस शासित प्रदेश राजस्थान में घमासान पिछले 15 महीनों से चल रहा है। राजस्थान में अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग भी नहीं है। पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के गुट की मांग सिर्फ इतनी ही है कि पायलट के करीबियों को मंत्री मंडल और पार्टी के प्रदेश इकाई में जगह मिले। पायलट गुट का विद्रोह कांग्रेस आलाकमान ने पिछले साल यह कह कर शांत कर दिया था कि उनकी मांग मानी जाएगी। एक के बाद एक, पार्टी के बड़े नेता जयपुर के चक्कर लगा चुके हैं पर गहलोत ने किसी की बात नहीं सुनी और पायलट गुट को अभी भी दरकिनार कर रखा है।
गांधी परिवार में शायद इतनी शक्ति नहीं है कि वह गहलोत और पायलट को आमने सामने बिठा कर इस समस्या का हल निकालें। अब बस इंतजार इसी का है कि कब पायलट गुट एक बार फिर से विद्रोह का बिगुल बजाएगा। और अगर ऐसा हुआ तो नुकसान कांग्रेस पार्टी का ही होगा। कांग्रेस शासित राज्यों के साथ ही पार्टी उन राज्यों में भी जबरदस्त आंतरिक कलह का शिकार है जहां दूसरे दलों की सरकारें वजूद में हैं। इसका एक उदाहरण दिल्ली का पड़ोसी हरियाणा ही है। हरियाणा में नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा और प्रदेश अध्यक्ष कुमारी शैलजा के बीच की लड़ाई जग जाहिर है , इसके साथ ही तमिलनाडु में नेतृत्व परिवर्तन के नाम पर विवाद और उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद के दावेदार को चुनने का विवाद ने पार्टी के आला नेताओं की नींद हराम कर रखी है। समझ में नहीं आता कि. राज्य स्तर के आंतरिक कलह को सुलझाने के बजाय पार्टी आलाकमान 2024 के लोकसभ चुनाव में विपक्षी एकजुटता की कोशिशों को प्राथमिकता क्यों दे रहा है।