भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने एक व्याख्यान में कहा, “बड़े पैमाने पर गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन, असमानताओं और कथित अज्ञानता के बावजूद स्वतंत्र भारत के लोगों ने खुद को बुद्धिमान साबित किया है। जनता ने अपने कर्तव्यों का बखूबी पालन किया है। अब उन लोगों की बारी है, जो राज्य के प्रमुख अंगों का संचालन कर रहे हैं। उन्हें यह विचार करना है कि क्या वे संवैधानिक जनादेश पर खरे उतर रहे हैं? सार्वजनिक विचार-विमर्श, जो तर्कसंगत और उचित दोनों हो, को मानवीय गरिमा के एक अंतर्निहित पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए। यह एक सार्थक लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
न्यायपालिका को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, विधायिका या कार्यपालिका के जरिए नियंत्रित नहीं किया जा सकता, वरना ‘कानून का शासन’ भ्रामक हो जाएगा”।
जस्टिस रमन्ना ने सरकार को बड़ी सीख दी है। बीते कुछ सालों के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी है। शिक्षा और स्वास्थ सेवायें बदहाली का शिकार हैं। महंगाई और बेरोजगारी ऐतिहासिक रूप से चरम पर है। किसान से लेकर प्रोफेशनल्स तक संकट के दौर में जी रहे हैं। बेटियां और व्यापारी सुरक्षित नहीं हैं। सरकार अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों से बचने के लिए वह सब कर रही है, जो जनसामान्य के जीवन को खतरे में डालती और तनाव बढ़ाती है। तुर्रा यह है कि, सरकार दिनरात जुटी हुई है।
इस वक्त देशी मीडिया में तीन बातें छाई हुई हैं। पहली धर्मांतरण, दूसरी खालिस्तानी नेटवर्क और तीसरी विपक्षी दलों में अंदरूनी कलह। हमारा संविधान अनुच्छेद 25 में सभी को धर्म की स्वतंत्रता देता है। अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध मानने-आचरण करने के साथ ही उसका प्रचार प्रसार करने की स्वतंत्रता भी है। यह अधिकार, धर्म परिवर्तन के लिए विवश नहीं कर सकता, किंतु कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से अपना धर्म चुन सकता है। सामान्य तौर पर गरीबी और भुखमरी से जूझ रहे लोगों को जिस धर्म संस्था से मदद और आश्रय मिलता है, वे उसको अपना लेते हैं। यह अपराध नहीं है बल्कि सरकार के संवैधानिक कर्तव्यों को पूरा करने में असफल रहने का प्रमाण है। इन दिनों धर्मांतरण के नाम पर रोजाना मुकदमें दर्ज किये जा रहे हैं। चंद आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धर्मांतरण करने वाले मजबूर लोगों की सामाजिक सुरक्षा के लिए सरकार के पास कुछ नहीं है। इस शब्द के जरिए सांप्रदायिक एजेंडा सेट किया जा रहा है, जो नफरत का जहर घोलने के लिए काफी है।
तीन विवादित कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब से शुरू हुए किसान आंदोलन ने बड़ा रूप ले लिया है। इसे तोड़ने के लिए कथित खालिस्तानी कनेक्शन बनाया जा रहा है। विदेश में बसे परिवारों से आने वाली आर्थिक मदद को इसका आधार बनाया जाता है। हमारा देश मुद्दों की राजनीति करता रहा है मगर इस वक्त विरोधी दलों में फूट और अंतरकलह मुद्दा बन रहा है। सत्ता से इतर उन सभी दलों को जनता के लिए घातक या सत्ता का विकल्प न होने के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। ये बातें सत्ता को मुफीद और मीडिया को लाभ दिलाने वाली हैं।
अगस्त 2019 में सरकार ने बगैर लोकतांत्रिक प्रक्रिया पूरी किये अनुच्छेद 370 खत्म कर दिया था। इसको खत्म करने के साथ सपने दिखाये गये, कि कश्मीर स्वर्ग बनने वाला है मगर दो साल बाद वहां हालात बद से बदतर हुए हैं। न कश्मीरी पंडितों को ठौर मिला और न उन्हें अपने घर। उनको जो नौकरियां मिलती थीं, वो भी बंद हो गईं। भारत में पिछली सरकार के मुकाबले मौजूदा सरकार के वक्त में सांप्रदायिक बवाल के मामलों में 28 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। 2014 में सांप्रदायिक बवाल की 133 घटनायें हुई थीं जो बढ़कर 194 हो गईं। कोरोना काल की शुरुआत के वक्त में मरकज के नाम पर मुसलमानों को कोरोना फैलाने का दोषी ठहराकर हमले और मुकदमें किये गये। दिल्ली में चल रहे सीएए और एनआरसी के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन पर हमला किया गया। दिल्ली को सांप्रदायिक दंगों में झोंक दिया गया, जिसमें हजारों लोगों का जीवन खतरे में पड़ा। मुस्लिम समुदाय के लोगों के घरों और दुकानों में आगजनी-लूट की गई। दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोगों पर की जबकि कई घटनाओं में वीडियों सच बयां कर रहे थे। इन दंगों के जरिए जो जहर बहुसंख्यकों में बोया गया, वह खतरनाक है।
छह महीने बाद देश के पांच राज्यों में चुनाव की प्रक्रिया शुरू होनी है। ऐसे वक्त में संवेदनशील राज्यों में सांप्रदायिकता को प्रधान मुद्दा बनाने के लिए एकतरफा कार्रवाई शुरू की जा चुकी है, जिससे मतदान हिंदू-मुस्लिम के एजेंडे पर हो सके।
हम सभी को पता है कि सरकार की नीतियों के चलते देश में बेरोजगारों की आधिकारिक संख्या 25 करोड़ पहुंच गई है जबकि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के मुताबिक भारत में 40 करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं। बेरोजगारी दर 9.2 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। नतीजतन, देश में आत्महत्याओं की दर भी तेजी से बढ़ी है। 23 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे पहुंच चुके हैं। मध्यम वर्ग सिमटता जा रहा है और गरीब बढ़ते जा रहे हैं। दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज लोगों की संख्या 80 करोड़ से अधिक हो गई है। थोक महंगाई दर भी करीब 13 फीसदी पहुंच रही है। घरेलू आवश्यक वस्तुओं की कीमत पिछले सात सालों के मुकाबले दोगुना से अधिक हो गई है। बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा देने का दावा करने वाली सरकार के आंकड़े ही बताते हैं कि सरकारी स्कूलों में 3 फीसदी इंटरनेट सेवा भी नहीं है। इन स्कूलों में 5 फीसदी कंप्यूटर भी नहीं हैं। 71.26 फीसदी निजी स्कूलों में भी इंटरनेट नहीं है, जबकि 64.73 फीसदी स्कूलों के पास अपने कंप्यूटर भी नहीं हैं। बावजूद इसके, सरकार दावा करती है कि वह बेहतरीन शिक्षा दे रही है। बैंकों का कर्ज न अदा कर पाने के कारण तीन हजार कंपनियां एनसीएलटी में दीवालिया होने के लिए खड़ी हैं। अब तक करीब एक हजार कंपनियों को दीवालिया घोषित किया गया है, जिनकी संपत्ति से बैंकों का 15 फीसदी कर्ज भी वापस नहीं आ सका है।
अर्थव्यवस्था में राहत के नाम पर कर्ज का पैकेज एक बार फिर ऐलान कर दिया गया। यह कर्ज लेकर उसको चुकाने की हालत में न होने के कारण कंपनियां और लोग कर्ज लेने से बच रहे हैं। तमाम बड़ी कंपनियों ने भी अपने कर्ज कम करके काम को समेटा है। चंद कारपोरेट घरानों को छोड़कर कोई भी उद्योग बढ़त की ओर नहीं है। यह बात भारत के वित्त आयोग की रिपोर्ट से भी साफ होती है।
हमारा दुर्भाग्य यह है कि सरकार इन अव्यवस्थाओं और बीमारियों से लड़ने के बजाय अपने ही नागरिकों से लड़ने में लगी है। वह सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स और किसानों से एफआईआर-एफआईआर खेल रही है। मुखर युवाओं को मुलजिम बनाकर जेल में डाला जा रहा है। इन हालात में चीफ जस्टिस रमन्ना का यह सवाल वाजिब है कि संवैधानिक जनादेश पर सरकार कितना खरा उतर रही है? असल में सरकार का दायित्व है कि वह सभी के लिए स्वर्णिम भविष्य का मार्ग बनाये। देश की जनता खुशहाली के साथ अपनी संवैधानिक आजादी से जिये। बच्चों और युवाओं के भविष्य की राह बेहतरीन हो। संकट तो यह है कि सरकार सिर्फ यही नहीं कर रही, बाकी उन सभी में वह दिनरात लगी हुई है, जिनके जरिए मतों का तुष्टीकरण किया जा सके। अगर यही हाल रहे तो विस्टन चर्चिल का आजादी के छह माह पहले अपनी संसद में की गई भविष्यवाणी सत्य हो जाएगी, जो भारत को सिर्फ बरबादी देती है, स्वर्णिम भविष्य नहीं।
जय हिंद!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं।)