प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा साल 2019 के मई महीने में दूसरी बार भाजपा नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार का गठन करने के बाद किया जाने वाला मंत्रिमंडल विस्तार चर्चा के केंद्र में है। यूँ तो दूसरी सरकार का यह विस्तार तो पहला ही है जिसे विस्तार इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि इसमें बड़े पैमाने पर उलट – फेर और फेर बदल की संभावनाएं बनी हैं और सब कुछ बड़े पैमाने पर हुआ है। इसके चर्चा में रहने के अनेक कारणों में कुछ प्रमुख कारण यह भी हैं कि इस बार बहुत कुछ पहली बार हुआ है या हो रहा है।
आम तौर पर भारत की संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री अपनी सरकार , देश और पार्टी की क्षेत्रीय और राष्ट्रीय जरूरत को ध्यान रखते संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप अपने मंत्रिमंडल का गठन और समय – समय पर जरूरत के मुताबिक़ इसमें फेर – बदल करते भी रहते हैं और इसे किसी भी तरह गलत नहीं कहा जा सकता। यह प्रधानमंत्री का संवैधानिक अधिकार भी है। शायद इसीलिए इस पर बहुत ज्यादा चर्चा भी नहीं होती। अलबत्ता ऐसे फेरबदल से कुछ समय पहले और कुछ समय बाद तक इतनी चर्चा जरूर होती है कि देर – सबेर क्यों कौर कब मंत्रिमंडल में फेरबदल होगा , कौन आएगा और कौन जाएगा। क्यों किसी को बाहर किया जाएगा और किसी को मंत्रिमंडल में क्यों शामिल किया जाएगा। मंत्रिमंडल का गठन होने के बाद इन्हीं तमाम तर्कों को व्यवहार और यथार्थ की कसौटी पर कसते हुए इसकी विवेचना की जाती रही है .मंत्रिमंडल विस्तार में भी तब खींचतान तब ज्यादा हो जाती है जब गठबंधन की सरकार हो और मुख्य सत्तारूढ़ दल को गठबंधन के सहयोगी दलों को एडजस्ट करने की दिक्कत हो।
इसके विपरीत जब मुख्य सत्तासीन पार्टी के पास लोकसभा के 300 से भी ज्यादा सदस्यों का बहुमत हो तब मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर कई महीनों तक चलने वाली इस तरह की चर्चा आम तौर पर देखने को नहीं मिलती। इस लिहाज से मौजूदा चर्चा अपने आप में दिलचस्प लगती है। भाजपा के पास पूर्ण से ज्यादा बहुमत है , ऐसे में उसे घटक दलों की नाराजगी को लेकर भी कोई चिंता नहीं होनी चाहिए थी फिर भी यह सब हो रहा है तो कोई ख़ास बात जरूर होगी। इस बार केन्द्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल और विस्तार को लेकर बहुत कुछ नया हुआ है और पहली बार भी हुआ है इसलिए एक अलग नजरिए से चर्चा होना भी स्वाभाविक है।
इस बार न केवल बड़े पैमाने पर मंत्रिमंडल के मौजूदा सदस्यों के कामकाज की पड़ताल की गई बल्कि मंत्री के रूप मे योग्यता की कसोटी पर खरे न उतरने वाले मंत्रियों के अन्यत्र उपयोग की संभावनाओं का ख्याल करते हुए राज्यपाल के रूप में एडजस्ट करने की कोशिश भी की गई। इसके अलावा दूसरी पार्टियों से भाजपा में आये साथियों को एडजस्ट करने जैसी कई बातों पर गंभीरता से विचार विमर्श करने का काम भी किया गया और इस गंभीर विचार विमर्श के बाद अंतिम रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अनुमति लेने के बाद ही इस पूरी प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया। इसमें वक़्त तो लगाना ही था और जब वक़्त लगा तो लम्बे समय तक इस मुडी को चर्चा में रहना भी था।
यह सब इसलिए करना पड़ा क्योंकि मंत्रिमंडल का विस्तार करने के क्रम में प्रधानमंत्री के दिमाग में तीन बातें बहुत तेजी से चल रही थीं एक – अगले साल होने वाले सात विधानसभाओं के चुनाव दो – 20 24 का लोकसभा चुनाव और कोरोना संक्रमण की वजह से सरकार की लोकप्रियता में आयी कमी। इनसे पार कैसे पाया जाए यही सब मंथन करते मंत्रिमंडल विस्तार के लिए नए मंत्रियों की सूची को अंतिम रूप देने में समय लगा और चर्चा को बल मिला।
राजनीतिक कारणों के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करना इसलिए भी बहुत जरूरी हो गया था क्योंकि केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सिर्फ 53 मंत्री हैं जबकि कानूनन 81 मंत्री हो सकते हैं। हमारे देश का एक क़ानून है जिसके तहत कोई भी सरकार विधायी निकायों की कुल सदस्य संख्या के 15 फीसदी की संख्या तक मंत्री बनाने का अधिकार रखती है। इसका मतलब यह हुआ कि जिस राज्य में विधानमंडल के कुल सदस्यों की संख्या सौ है वहाँ की सरकार 15 सदस्यीय मंत्रिमंडल का गठन कर सकती है जिसमें सरकार का मुखिया यानी मुख्यमंत्री भी शामिल है। इसी तरह संसद के दोनों सदनों की कुल संख्या के 15 प्रतिशत लोगों को प्रधानमंत्री समेत केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान दिया जा सकता है।
इस सम्बन्ध में एक गौर करने लायक बात यह है कि 2014 में जब नरेंद्र मोदी पहली बार सत्ता में आए तो उनकी कैबिनेट में महज 45 मंत्री शामिल थे। तब प्रधानमंत्री ने मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस का नारा दिया। हालांकि, तीन साल बाद ही हालात बदले और उनकी कैबिनेट में मंत्रियों की संख्या बढ़कर 76 हो गई। 2019 में दोबारा सत्ता में आने के बाद मोदी कैबिनेट में 58 मंत्रियों ने शपथ ली। केन्द्रीय मंत्रिमंडल के ताजा विस्तार के पूर्व केन्द्रीय मंत्रियों की यह संख्या घट कर 53 हो गई थी। गौरतलब है कि 2003 में किये गए (91वें संविधान संशोधन में यह व्यवस्था की गई थी कि केंद्र और राज्य सरकारें विधायी निकायों की कुल संख्या के 15 फीसदी से अधिक संख्या वाले मंत्रिमंडल का गठन नहीं कर सकतीं, यह क़ानून 1 जनवरी 2004 को लागू कर दिया गया था। इस हिसाब से मोदी मंत्रिमंडल के मंत्रियों की संख्या कम ही थी। इस क़ानून के हिसाब से केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अभी भी अधिकतम 28 और मंत्रियों को शामिल करने की पूरी गुंजाइश थी।