सत्रहवीं लोक सभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत के बाद केंद्र में दूसरी बार नरेंद्र मोदी सरकार का गठन होते ही राजकाज के कई नए और पुराने मुद्दे उठने लगे हैं। इनमें ‘ एक राष्ट्र-एक चुनाव ’ का मुद्दा भी शामिल है , जिसका सीधा सरल तात्पर्य यह है कि केंद्रीय विधायिका के निम्न सदन- लोकसभा के चुनाव के साथ ही देश के सभी राज्यों की विधान सभाओं के भी चुनाव एकसाथ कराने की बाध्यकारी विधिक व्यवस्था कायम हो।
इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने 19 जून को उन सभी राजनीतिक दलों के प्रमुखों की नई दिल्ली में एक बैठक बुलाई जिनके लोकसभा अथवा राज्य सभा में कम से कम एक सदस्य हैं. बैठक में ऐसी 40 पार्टियों के प्रमुख को आमंत्रित किया गया था। उनमें से 24 ने इसमें भागीदारी की। जिन 16 पार्टियों ने इसमें भाग नहीं लिया उनमें कांग्रेस ,बहुजन समाज पार्टी , समाजवादी पार्टी , तृणमूल कांग्रेस , आम आदमी पार्टी , द्रविड़ मुनेत्र कषगम , तमिलनाडु में अभी सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक , तेलांगाना में सत्तारूढ़ तेलांगाना राष्ट्र समिति , राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और तेलुगु देशम पार्टी प्रमुख थे।
बैठक में उपस्थित नेताओं में बिहार के मुख्यमंत्री एवं जनता दल -यूनाइटेड के अध्यक्ष नीतीश कुमार, ओड़िसा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक, जम्मू -कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेशनल कांफ्रेस के नेता फारूक अब्दुल्ला, जम्मू -कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री एवं पीपुल्स डेमोक्रेटिक
पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी भी थे।
पत्रकारों को इस बैठक का ब्योरा नई सरकार के नए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दिया। उन्होंने दावा किया कि अधिकतर राजनीतिक पार्टियों ने एक राष्ट्र-एक चुनाव के प्रस्ताव का समर्थन किया है. उन्होंने कहा कि आमंत्रित कम्युनिस्ट पार्टियों में से दो – सीपीआई और सीपीएम ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए जो अलग थे लेकिन उन्होंने भी इस सोच का विरोध नहीं किया है।
बैठक में मोदी जी ने कहा कि इस मसले पर एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई जाएगी। यह कमेटी इसके सभी पक्षों पर विचार करके सरकार को अपनी रिपोर्ट देगी। इस कमेटी के गठन के बारे में कोई ब्योरा नहीं दिया गया।
इस बात पर आम सहमति है कि देश में व्यापक चुनाव सुधार की बहुत ज़रूरत है। इसके लिए निर्वाचन आयोग , विभिन्न राजनीतिक दलों और ‘ असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ‘ ( एडीआर ) जैसी ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने कई बार ठोस सुझाव दिए हैं ।
पर मोदी सरकार के पास चुनाव सुधार के नाम पर सिर्फ़ एक एजेंडा है – ‘एक देश-एक चुनाव’। भाजपा देश की राजनीतिक व्यवस्था और चुनाव प्रणाली में सुधार की बातें पहले भी करती रही है। पूर्व में उसके कुछ नेताओं ने देश में ‘ राष्ट्रपति शासन प्रणाली ’ कायम करने के पक्ष में भी बातें कही थी। मोदी राज में उसके पक्ष में अभी तक खुल कर बातें नहीं कही गई है। लेकिन प्रकारांतर से उसी शासन प्रणाली को बेहतर बताने की कोशिशें चल रही हैं। भाजपा का पूरी तरह मोदी जी पर एक व्यक्तित्व केंद्रित चुनाव उन कोशिशों को ही प्रतिबिंबित करता है। ऐसा माहौल खड़ा कर दिया गया गया है कि लोग संसदीय लोकतंत्र में नहीं बल्कि राष्ट्राध्यक्ष प्रणाली के तहत हैं और वे अपने सांसद नहीं बल्कि मोदी जी को चुन रहे हैं।
सीपीएम ने प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई बैठक में भाग लेने वाली सभी पार्टियों के बीच अपना एक नोट वितरित कर उसका सार्वजनिक खुलासा भी किया है । इस पार्टी की राय में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराये जाने का प्रस्ताव बुनियादी तौर पर संघीयतावाद एवं लोकक्तन्त्र विरोधी है और इसलिए संविधान विरोधी भी है। पार्टी के अनुसार इस प्रस्ताव पर अमल से विधायिका के प्रति कार्यपालिका(सरकार) के उत्तरदायित्व रहने की संवैधानिक व्यवस्था में बाधा आ जाएगी।
संविधान की धारा 75 ( 3 ) के तहत केंद्र में मंत्रिपरिषद की सामूहिक जिम्मेवारी लोकसभा के प्रति है। उसी तरह संविधान की धारा 164 ( 3 ) के तहत राज्यों में मंत्रिपरिषद की सामूहिक जिम्मेवारी विधान सभा के प्रति है।
सीपीएम नेता एस रामचंद्रन पिल्लै ने इस अवधारणा को अव्यावहारिक करार देते हुए कहा है कि इसके जरिए लोगों के जनादेश को तोड़-मरोड़ा जा सकता है। इस बैठक का कांग्रेस पार्टी ने बहिष्कार कर कहा था कि सरकार संसद में इस पर बहस कराए ।
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री एवं बसपा प्रमुख मायावती ने ट्वीट किया : यह वास्तविक मुद्दा नहीं है। अगर बैठक ईवीएम द्वारा कराये जा रहे चुनाव से संविधान और लोकतंत्र के लिए उत्पन्न खतरे पर बुलाई गई होती तो वह उसमे भाग लेती।
उनका कहना था: बैलेट पेपर के बजाए ईवीएम के माध्यम से चुनाव की सरकारी जिद से देश के लोकतंत्र एवं संविधान को असली खतरे का सामना है. ईवीएम के प्रति जनता का विश्वास चिन्ताजनक स्तर तक घट गया है। ऐसे में इस घातक समस्या पर विचार करने हेतु अगर बैठक बुलाई गई होती तो मैं अवश्य ही उसमें शामिल होती।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री एवं टीआरएस के अध्यक्ष केसीआर ने कहा : वहां चर्चा करने के लिए क्या है? हम केवल केंद्र के साथ संवैधानिक संबंध बनाए रखेंगे। केंद्र से बात करने का कोई फायदा नहीं है। हमें राज्य के लिए रुपया नहीं मिला। मैंने पहले ही कहा है कि मोदी एक फांसीवादी सरकार चलाते हैं। यह तथ्य है।
इस प्रस्ताव का विरोध करने वालों के बहुतेरे सवाल हैं। एक प्रमुख सवाल यह है कि जब निर्वाचन आयोग को हालिया लोक सभा चुनाव कराने में दो माह से ज्यादा लग गए तो वह कैसे लोक सभा के साथ ही सभी विधान सभाओं के भी चुनाव कराने में सक्षम होगा ?
इस बारे में पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त ओ पी रावत का कहना है कि जब इस बार के आम चुनाव में चार राज्यों – सिक्किम , अरुणाचल प्रदेश , आंध्र प्रदेश और ओड़िसा की विधानसभा के लिए भी एकसाथ चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराये जा सके तो एक राष्ट्र एक चुनाव के प्रस्ताव पर अमल संभव है। उनका तर्क है कि कि इस तरह चुनाव कराने से प्रत्येक पोलिंग बूथ पर और सिर्फ एक टेबल तथा एक -एक ईवीएम और वीवीपीएटी मशीन की जरुरत पड़ेगी। उनके अनुसार सुरक्षा बंदोबस्त पर भी खर्च नहीं बढ़ेगा।
वैसे , स्वयं रावत जी ने इस वर्ष के आरम्भ में मुख्य निर्वाचन आयुक्त पद से सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद मीडिया से बातचीत में कहा था कि आयोग लोक सभा के साथ ही सभी राज्यों की विधान सभाओं के भी चुनाव एकसाथ कराने तैयार तो है पर यह व्यावहारिक कदम नहीं होगा।
तब श्री रावत ने निर्वाचन आयोग के आंकलन के हवाले से बताया था कि लोकसभा समेत सभी राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव एकसाथ कराने के लिए 23 लाख इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों ( ईवीएम ) और 25 लाख वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रोल ( वीवीपीएटी ) मशीनों की जरुरत होगी। इसके लिए ईवीएम पर 4600 करोड़ रूपये और वीवीपीएटी पर 4750 करोड़ रूपये का खर्च आंका गया है। सुरक्षागत आदि कारणों से नई ईवीएम और वीवीपीएटी मशीनों का उपयोग 15 वर्ष तक ही किया जा सकता है। इसलिए उनकी खरीद पर हर 15 वर्ष अलग से 10 हजार करोड़ रूपये का खर्च आएगा। उनके रख -रखाव का खर्च अलग होगा। अगर ‘ एक राष्ट्र एक चुनाव ‘ पर अमल किया जाता है तो इन नई मशीनों का सिर्फ तीन बार इस्तेमाल किया जा सकेगा। अभी इन मशीनों को एक राज्य से दूसरे राज्य में भेज कर उनका अनेक बार इस्तेमाल किया जाता है।
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एच एस ब्रह्मा के अनुसार अगर मोदी सरकार एक राष्ट्र एक चुनाव का प्रस्ताव कार्यान्वित कर सकी तो यह चुनाव व्यवस्था में बहुत बड़ा सुधार होगा। उनकी राय में इसके लिए कुछेक संवैधानिक प्रावधानों में केवल मामूली परिवर्तन करने होंगे। इस कदम से निर्वाचन आयोग पर भार नहीं बढ़ेगा बल्कि कम ही होगा , राजकाज में अनुशासन बढ़ेगा। उनका कहना है कि बार-बार के चुनाव से न केवल खर्च बढ़ता है बल्कि समाज ,राजनीति और अर्थ व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एस कृष्णमूर्ति के अनुसार एक राष्ट्र, एक चुनाव का विचार काफी आकर्षक है, लेकिन जन प्रतिनिधियों के लिए निर्धारित कार्यकाल की खातिर संवैधानिक संशोधन के बिना इसे लागू नहीं किया जा सकता।
कृष्णमूर्ति ने कहा कि इस प्रस्ताव पर अमल से कई फायदे होंगे। लेकिन इसके कार्यान्वयन में सबसे बड़ी बाधा संवैधानिक प्रावधान हैं।
एक राष्ट्र एक चुनाव का प्रस्ताव नया नहीं है। वर्ष 2003 में भी भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि सरकार लोकसभा और विधान सभा चुनाव एक साथ कराए जाने के मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर रही है। तब केंद्र में भाजपा के ही नेतृत्व की सांझा सरकार थी।
प्रधानमन्त्री नरेंद मोदी ने पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर भारत में ‘ एक राष्ट्र एक चुनाव ‘ की अपनी बात पर जोर देकर बाद में उसी वर्ष नीति आयोग की बैठक में राज्यों के मुख्यमंत्रियों के समक्ष औपचारिक रूप से यह प्रस्ताव रखा था। तब नीति आयोग की बैठक के बाद उसके उपाध्यक्ष राजीव
कुमार ने कहा था कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि देश लगातार चुनाव मोड में ही रहता है। इससे विकास कार्य पर बुरा असर पड़ता है। लोकसभा एवं। विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने के सुझाव पर अमल की शुरुआत देश भर में सभी चुनावों के लिये एक ही वोटर लिस्ट बनाने के कार्य से हो सकती है.
नीति आयोग का सुझाव है कि वर्ष 2024 से लोकसभा और विधानसभााओं के चुनाव एकसाथ दो चरण में कराये जाने चाहिए। निर्वाचन आयोग भी कह चुका है कि वह एकसाथ सभी चुनाव कराने के लिए तैयार है।
पिछले वर्ष विपक्षी राजनीतिक दलों ने प्रस्ताव के पक्ष अथवा विरोध में औपचारिक रूप से कुछ खास नहीं कहा था। लेकिन आम चर्चा में यह तथ्य इंगित किया गया था कि भारत संघीयतावादी गणराज्य है , जिसके संघ -राज्य के संघटक सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव,केंद्र की विधायिका (संसद ) के निम्न सदन ( लोकसभा ) के चुनाव के साथ ही कराने की अनिवार्यता का कोई संवैधानिक प्रावधान ही नहीं है।
लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों की विधान सभाओं के भी चुनाव कराने की व्यवस्था का प्रावधान रखने का विकल्प संविधान सभा के सम्मुख खुला था। पर संविधान के रचियताओं ने भारत में संवैधानिक लोकतंत्र के हितों के संरक्षण के लिए बहुत सोच -समझ कर केंद्र के केंद्रीयतावाद की प्रवृति पर अंकुश लगाना और राज्यों की संघीयतावाद को प्रोत्साहित करना श्रेयस्कर माना।
इस प्रस्ताव को लेकर पिछले वर्ष ही केंद्र सरकार के विधि मंत्रालय ने सांविधिक विधि आयोग को एक नोट भेजकर उसके मुख्यतः तीन बिंदुओं पर परामर्श माँगा था। पहला यह कि इस उपाय को अपनाने से चुनाव कराने के राजकीय खर्च
में कमी आने के तर्क की वास्तविकता क्या है। दूसरा यह कि इससे भारत की राजनीति की सांविधिक संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के वृहत्तर आयाम को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचेगा। तीसरा यह कि निर्वाचन आयोग की आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य क्या सच में बाधित होते हैं।
विधि आयोग , सरकार को समय -समय पर वैधानिक उपायों के बारे में अपने परामर्श देता है। सरकार के लिए उसका परामर्श मानना आवश्यक नहीं है। स्वतन्त्र भारत में अब तक 21 विधि आयोग बन चुके हैं , जिसका कार्यकाल तीन वर्ष का होता है।
विधि आयोग को भेजे नोट में इस बात का उल्लेखा था कि ‘ एक राष्ट्र एक चुनाव ‘ के पक्ष में सबसे दमदार तर्क यह है कि इससे चुनाव कराने पर राजकीय खर्च में भारी कमी आएगी। चुनाव कराने पर राजकीय खर्च खर्च प्रति मतदाता 2009 में 12 रूपये और 2014 के आम चुनाव में 17 रूपये पड़ा था। विधि आयोग को खर्च में संभावित कमी की वास्तविक परख कर अपना परामर्श देने कहा गया था।
विधि मंत्रालय के नोट में कहा गया है कि सभी निर्वाचित निकायों के चुनाव एकसाथ कराने के लिए मतदान कर्मियों और सुरक्षा कर्मियों की जरुरत और बढ़ेगी। विधि आयोग से पूछा गया था कि इन सबके मद्देनजर वास्तविक रूप से राजकीय खर्च कम होंगे या बढ़ेंगे। नोट में कहा गया है कि आदर्श चुनाव आचार संहिता के बारे में यह तर्क दिए जा रहे हैं कि इसके लागू हो जाने से सारे विकास कार्य बाधित हो जाते है। सम्बंधित निर्वाचन क्षेत्रों में सामाजिक -आर्थिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है। नोट में यह भी रेखांकित किया गया कि आदर्श चुनाव आचार संहिता , चुनाव के 35 दिन पहले ही लागू किया जाता है और वह चुनाव परिणाम निकलते ही ख़त्म हो जाता है। इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि आदर्श चुनाव आचार संहिता चालू योजनाओं पर नहीं बल्कि नई योजनाओं पर लागू होते हैं। एक बिंदु यह भी है कि हमारे लोकतंत्र की ‘ पवित्रता ‘ के संरक्षण के लिए नियमित अंतराल पर चुनाव कराने के क्या लाभ हैं ? एकसाथ सभी चुनाव कराने से मतदाताओं पर यह असर पड़ सकता है कि वे केंद्र और अधिकतर राज्यों में वर्चस्व कायम किये हुए किसी पार्टी विशेष को ही तरजीह देंगे। इसलिए इस उपाय का प्रभाव संक्रामक प्रवर्ति या भेड़चाल में परिणत हो सकता है। इसका परिणाम अंततः उन क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के खिलाफ जा सकता है जो स्थानीय सामाजिक और आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अहम प्रश्न यह है कि क्या यह बेहतर नहीं होगा कि नियमित अंतराल पर चुनाव कराने की मौजूदा व्यवस्था बनायी रखी जाए क्योंकि इससे पार्टियों और उनकी सरकारों पर दबाब रहता है कि वे लोकतांत्रिक राजनीति का प्रभुत्व कायम रखें।
विधि आयोग ने इस प्रस्ताव पर पिछले वर्ष अगस्त में जारी अपनी प्रारम्भिक रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव दो चरणों में कराए जा सकते है बशर्ते संविधान के कम से कम दो प्रावधानों में संशोधन किए जाएं और बहुमत से राज्यों द्वारा उनका अनुमोदन किया जाए. आयोग ने इस बारे में सभी सम्बद्ध पक्षों के साथ और अधिक विचार-विमर्श करने की जरुरत बतायी। आयोग का कहना है भले ही लोकसभा एवं विधान सभा चुनावों को एकसाथ कराये जाने के मार्ग में विभिन्न अड़चनों पर विचार कर लिया गया है किंतु कुछ मुद्दों पर अभी तक विचार किया जाना बाकी है। आयोग ने सभी पक्षों से इस बात पर सुझाव देने को कहा कि क्या एकसाथ चुनाव करवाया जाना किसी भी तरह से लोकतंत्र, संविधान के मूलभूत ढांचे या देश की संघीय नीति के साथ छेड़छाड़ होगी। विधि आयोग ने इस तरह की विशाल कवायद के लिए सख्त कानूनी ढांचे की सिफारिश भी की है।
भाजपा अध्यक्ष अमत शाह ने एक साथ चुनाव कराने के समर्थन में पिछले वर्ष विधि आयोग को पत्र लिखा था. उन्होंने अपने इस पत्र में मौजूदा व्यवस्था में देश में लगातार होने वाले चुनावों से सरकारी कामकाज में होने वाली ‘ बाधाओं ‘ का जिक्र किया था और चुनावों पर भारी-भरकम खर्च के बोझ से बचने की जरुरत पर भी बल दिया था।
भाजपा के नेता विनय सहस्त्रबुद्धे कहते है एक राष्ट्र एक चुनाव से भारत के संघात्मक प्रशासनिक ढांचा को नुकसान की बात करने वाले लोग मतदाताओं की बुद्धिमता का अपमान कर रहे हैं। उनके अनुसार ये चुनाव अगर एकबारगी नहीं तो दो बार में कराये ही जा सकते हैं जिसमे देश के आधे राज्य में पहले और फिर शेष राज्यों में चुनाव हों।
सरकार और सत्ता पक्ष की दलील है कि ऐसी स्थिति में जहां भारी आर्थिक बोझ से बचा जा सकेगा वहीं राज्यों को बार-बार चुनावी आचार संहिता का भी सामना नहीं करना होगा। फलस्वरूप विकास कार्यों में कम से कम रुकावट आएगी। इसके अलावा काले धन पर अंकुश लगेगा और आम लोगों को भी बार-बार चुनावों के दौरान होने वाली परेशानी से नहीं जूझना होगा। भाजपा का दावा है कि इससे चुनाव प्रक्रिया सीमित हो जाएगी और परिणामस्वरूप जातीय और सांप्रदायिक सद्भाव भी बरकरार रहेगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ने कहा है कि एक राष्ट्र, एक चुनाव भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का फैंसी आइडिया है जो न तो संभव है और न ही जिसकी आवश्यकता है। पार्टी महासचिव एस सुधाकर रेड्डी ने हैदराबाद में मीडिया से बातचीत में कहा कि कोई राज्य सरकार किसी वजह से अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाती है तो वहां नया चुनाव कराना ही होगा। लोगों को अपनी सरकार चुनने के लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है और न ही उन्हें अगले चुनाव तक इंतजार करने के लिए कहा जा सकता है।
विपक्ष की दलील है कि प्रस्तावित व्यवस्था में कम संसाधनों के साथ चुनाव मैदान में उतरने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के लिए वजूद का संकट पैदा हो जाएगा. साथ ही क्षेत्रीय मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहेंगे और वोटरों का भ्रम बढ़ेगा. इसके अलावा चुनावी नतीजों में काफी देरी होगी।
सीपीआई के नेता एवं राज्य सभा सदस्य डी राजा कहते हैं कि विविधतापूर्ण भारत में भाजपा एक राष्ट्र-एक संस्कृति-एक राष्ट्र-एक भाषा लागू करना चाहती है जो सही नहीं है। एक राष्ट्र, एक चुनाव का ताजा प्रस्ताव भी उसी सिलसिले की अगली कड़ी है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी को भेजे अपने पत्र में कहा है कि केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर जल्दबाजी दिखाने की बजाय पहले एक श्वेतपत्र तैयार करना चाहिए।
साथ ही विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा जरूरी है। उनके अनुसार इतने कम समय में एक राष्ट्र, एक चुनाव जैसे संवेदनशील और गंभीर विषय पर कोई फैसला करना उचित नहीं होगा. इस बारे में संवैधानिक विशेषज्ञों, चुनाव विशेषज्ञों और तमाम दलों के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श जरूरी है. तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ने अनुरोध किया है कि इस मुद्दे पर पर्याप्त समय देकर सभी सम्बद्ध पक्षों के विचार जानना जरूरी है. सिर्फ ऐसा करने से ही इस अहम मुद्दे पर ठोस सुझाव मिलेंगे।
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का कहना है ‘ एक देश-एक चुनाव ’ के प्रस्ताव से सत्ता और शक्ति के विकेंद्रीकरण के बजाय केंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ेगी, जो अंततः हमारी विकासशील लोकतांत्रिक व्यवस्था को निरंकुशता और तानाशाही की तरफ़ ले जा सकती है। यही कारण है कि यह प्रस्ताव हमारे विशाल देश और उसके लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है। यह राष्ट्रवाद का एक मायावी मुहावरा रचता है पर वास्तविक अर्थों में राष्ट्र के लिए बेहद घातक है। उनके अनुसार यह देखकर विस्मय होता है कि जो सत्ताधारी पार्टी हर क़ीमत पर गुजरात में दो राज्यसभा सीटों के चुनाव अलग-अलग कराने पर आमादा है, वह संपूर्ण देश में ‘एक देश -एक चुनाव’ के लिए प्रस्ताव ला रही है। 2017 में किसी न किसी तरह जीत सुनिश्चित करने के लिए गुजरात विधानसभा के चुनाव कुछ समय के लिए टाल दिये गए, जबकि हिमाचल प्रदेश के साथ ही वहाँ भी चुनाव होने थे। हिमाचल प्रदेश के चुनाव घोषित हो गए। वहाँ 4 नवम्बर को मतदान हुआ। पर गुजरात के चुनाव दो चरणों में 13 और 17 दिसम्बर, 2017 को हुए। दोनों प्रदेशों के नतीजे 20 दिसम्बर को एक साथ घोषित हुए। यानी हिमाचल की जनता को अपनी नई सरकार के लिए मतदान करने के बाद भी डेढ़ महीने तक इंतजार करना पड़ा। इससे क्या नतीजा निकाला जाए?
सवाल यह है कि क्या मौजूदा सत्ताधारी दल को ‘एक देश-एक चुनाव’ के लागू होने से देश का कोई भला हो या नहीं हो, अपने दल का भला ज़रूर नज़र आ रहा है? सर्वदलीय सहमति के बग़ैर केंद्र सरकार ने बैठक के दौरान इस विषय पर विशेषज्ञ-राय देने के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी बनाने का ऐलान कर दिया। कमेटी के सदस्यों के बारे में कोई सूचना नहीं दी गई। सरकार इतनी जल्दी में क्यों है? इस विषय पर व्यापक बहस से पहले ही वह एक उच्चस्तरीय समिति क्यों बना रही है?
प्रस्तावित चुनाव व्यवस्था में क्षेत्रीय दल कमजोर होंगे और कथित राष्ट्रीय दल अपनी कॉरपोरेट समर्थित ताक़त के साथ उन पर और हावी होंगे। इसका सीधा असर किसानों, मजदूरों, आम लोगों और यहाँ तक कि स्थानीय स्तर के नये उभरते उद्योगपतियों पर भी पड़ेगा। यानी कॉरपोरेट के अंदर भी विविधता के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचेगी। सियासत और सत्ता में समाज के व्यापक हिस्सों का प्रभाव और कम हो जायेगा। इससे सत्ता और शक्ति के विकेंद्रीकरण के बजाय केंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ेगी, जो अंततः हमारी विकासशील लोकतांत्रिक व्यवस्था को निरंकुशता और तानाशाही की तरफ़ ले जा सकती है। यही कारण है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ का प्रस्ताव हमारे जैसे विशाल देश और उसके लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है। यह राष्ट्रवाद का एक मायावी मुहावरा रचता है पर वास्तविक अर्थों में राष्ट्र के लिए बेहद घातक है।
केंद्र और राज्य स्तर पर अलग अलग होने वाला चुनाव एक साथ संपन्न कराने की नई व्यवस्था के लागू हो जाने के बाद देश में पांच साल में सिर्फ एक ही बार चुनाव होगा। नीति आयोंग चाहता है कि 2024 से लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव एकसाथ किया जाए। इसके लिए कुछ विधानसभाओं की अवधि को घटाकर तथा कुछ की अवधि को बढ़ाकर किया जा सकता हैं। 1950 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही करवाये जाते रहे थे। 1967 के बाद कई राज्यों में चलती हुई सरकारें अल्पमत में आने की प्रथा प्रारम्भ हो गई। जिस कारण वह परम्परा खत्म हो गई। एक साथ चुनाव से जो लाभ बताये जा रहे है उनमें खर्च की बचत सर्वप्रमुख है। यह तर्क है कि प्रस्ताव पर अमल से सरकारी खजाने पर खर्च का बोझ कम पड़ेगा। 2009 के लोकसभा चुवान में 1,100 करोड़ और 2014 के लोकसभा चुनाव में 4,000 करोड़ रूपये खर्च हुआ था।
हर साल औसतन पांच राज्यों के चुनाव होते रहते हैं। इसके कारण सरकारी कोष पर ही नहीं पार्टियों पर बहुत ज्यादा वित्तीय बोझ पड़ता है. प्रस्ताव के समर्थन में कहा जा रहा है इससे कम अवधि के लिए आचार संहिता लागू होगी और फलस्वरूप सामान्य सरकारी कामकाज में बार-बार रुकावट नहीं आएगी। जबकि बार-बार चुनाव होने से इस तरह की बाधाएं ज्यादा आती हैं। यह भी तर्क दिया गया है कि लोकसभा एवं विधानसभाओं का चुनाव एक साथ होने से चुनाव प्रक्रिया में काले धन के प्रवाह पर रोक लगेगा। तर्क है कि मौजूदा व्यवस्था में बार-बार चुनाव कराने से शिक्षा क्षेत्र के काम-काज प्रभावित होते हैं , शिक्षकों को चुनाव कार्य में लगा दिया जाता हैं , चुनावी रैलियों से यातायात पर असर पड़ता है.ऐसे में अगर बार-बार होने वाले चुनावों के बजाय एक बार में दोनों चुनाव होतें हैं तो इस तरह की दिक्कतो का सामना कम करना पड़ेगा। यह भी तर्क है कि नई व्यवस्था में मतदाताओं की भागीदारी बढ़ेगी क्योंकि देश के बहुत से लोग रोजगार या अन्य वजहों से दुसरें जगहों पर रहतें हैं। अलग-अलग समय पर चुनाव होने के वजह से वे अपने मूल स्थान पर मतदान करने नही जातें हैं। अगर एक साथ चुनाव होगें तो, इनमें से बहुत सारे लोग एक बार में दोनों चुनाव होने के कारंण मतदान करने अपने मूल स्थान पर जा सकतें हैं।
संविधान के निर्माताओं ने तो संविधान में चुनाव की दलीय-व्यवस्था की भी कल्पना नहीं की थी। उनके दिमाग में जन-प्रतिनिधि का चुनाव था, जिससे जनप्रतिनिधि सभा (संसद) गठित होनी थी। संविधान में राजनीतिक दलों का उल्लेख बाद के दिनों में दल-बदल क़ानून के संदर्भ में एक संशोधन के मार्फत जोड़ा गया। यह भी ग़ौरतलब है कि संविधान सभा में निर्वाचन की प्रक्रिया पर बहुत लंबी बहस हुई। पर पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का प्रावधान नहीं तय किया गया। संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 तक, भारत में निर्वाचन की प्रक्रिया और प्रणाली की चर्चा है। इसमें केंद्रीय और प्रांतीय, दोनों चुनावों की चर्चा है। उनके लिए प्रावधान तय किये गए हैं। पर संविधान में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि हमारे केंद्रीय और प्रांतीय चुनाव हर हालत में एक ही साथ कराए जायेंगे।
बहरहाल , इतना साफ है कि मोदी सरकार ‘ एक राष्ट्र एक चुनाव ‘ के अपने प्रस्ताव पर चुप नहीं बैठी है. यह ‘ हठी ‘ प्रस्ताव आगे क्या गुल खिलायेगा तत्काल उसके कयास ही लगाए जा सकते।
{लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक मामलों के जानकार हैं}