ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: आज भी याद आते हैं साल भर पुराने वो दिन जब कोरोना महामारी का पहली बार नाम सुना था। शुरू में खबर चीन से आई, फिर चीन के वूहान प्रांत से भारत के केरल होते हुए पूरे देश में लोग कोरोना महामारी से संक्रमित होने लगे थे। चीन और भारत के साथ ही दुनिया के दूसरे कई देशों में एक साथ लाखों नहीं बल्कि करोड़ों लोग इस बीमारी का शिकार हो चुके थे। गरीब, अविकसित, पिछड़े और तीसरी दुनिया के नाम से पहचाने जाने वाले छोटे देशों की तो कोरोना ने हालत खराब कर ही दी थी, अमेरिका जैसे विकसित देश के साथ ही यूरोप के ब्रिटेन जैसे वो देश भी जो अपने साम्राज्य के कभी ख़त्म न होने का डंका पीटा करते थे वो भी इस बीमारी का इतनी बुरी तरह शिकार हो गए थे कि इन देशों को भी अपने नागरिकों को इस बीमारी से बचा पाना संभव नहीं हो सका था। पहले तो बीमारी ही समझ में नहीं आई थी। इलाज तो तब होता जब रोग समझ में आता , ऐसा नहीं हो सका तो शुरू में असंख्य लोग बगैर इलाज के ही मर गए थे।
धीरे – धीरे देश दुनिया के डॉक्टर्स को वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों को रोग समझ में आया तो निदान के लिए दवा उपलब्ध नहीं थी। हालत ये हो गई थी कि पिछले साल यानी 2020 के मार्च से लेकर अगस्त तक पूरे छः महीने कहाँ बीत गए किसी की समझ में नहीं आया। समझ में एक ही बात आई कि रोग से बचने के लिए लोग घर से निकलना ही बंद कर दें। लोग घर से न निकलें इसके लिए लॉकडाउन नामक इलाज ही दुनिया के सभी देशों की सरकारों को एकमात्र रास्ता नजर आया।
शुरू के पूरे तीन महीने तो इसी लॉक डाउन के चलते न तो स्कूल – कॉलेज में पढ़ाई हुई , न दुकाने खुली , न दफ्तरों कारखानों में काम हुआ , न हवाई जहाज दौड़े , न समुद्री जहाज़ों ने पानी काटा , न बसे चली और न ही पटरियों पर रेल की धकधक हुई। कुल मिला कर सब जगह शांति थी। फिल्मो की शूटिंग थम गई थी खेतों में हल नहीं चले। कहीं कुछ हुआ ही नहीं तो प्रकृति की शान्ति में भी कोई बाधा नहीं पहुँची और पर्यावरण प्रदूषण भी नहीं हुआ। नदियाँ , झरने , तालाब , जंगल , गाँव और शहर सभी जगह शांति के साथ ही सुरक्षा और स्वच्छता भी चाक – चौबंद देखी गई। पिछले साल जून के महीने के बाद धीरे – धीरे अन लॉक की प्रक्रिया शुरू हुई और धीरे धीरे करके एक स्थिति ऐसी भी आई जब धीरे – धीरे सब कुछ खुल गया। जीवन सामान्य होने लगा था , लोग सँभलने भी लगे थे। ऐसा करते – करते दिसम्बर का महीना भी आ गया और इंसान का जीवन फिर से पटरी पर आने लगा था कि एक बार फिर कोरोना की ऐसी धमक वापस आ गई जिसने काम पर गए लोगों को वापस अपने घरों की तरफ जाने को मजबूर कर दिया। पिछले साल के रोंगटे खड़े कर देने वाले वो दृश्य एक बार फिर एक – एक कर आँखों के सामने आने लगें हैं जिन्हें देख – सुन कर ऐसा लगने लगा था, कि तमाम तरह की वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की करने के बावजूद आज का इंसान भी प्रकृति की कोरोना जैसी बीमारी के सामने कितना निरीह और असहाय। आज के इंसान का दर्द कोरोना की ख़बरों की शीर्षकों के इस कोलाज से समझा जा सकता है।
पिछले साल मार्च – अप्रैल के इन्हीं दिनों में कोरोना की वजह से देश की राजधानी की क्या हालत हो गई थी, इसे समझने के लिए कुछ दिन पूर्व एक हिंदी अखबार में प्रकाशित दिल्ली की एक खबर की ये पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं। यह खबर दिल्ली के इण्डिया गेट से सम्बंधित है और इसमें इण्डिया गेट के मिजाज को कुछ इस तरह व्यक्त किया गया है , ” मैं दिल्ली के दिल में बसा इण्डिया गेट हूँ , ढलते दिन के साथ दूधिया रोशनी से मेरी चमक बढ़ जाती है .हवा में उड़ाते रंग – बिरंगे गुब्बारे मेरी शोभा बढ़ाते हैं। देश के कोने – कोने से मेरा दीदार करने आये लोगों का हूजूम यहाँ मेले जैसा माहौल बनाता है। मैं वर्षों से इस नज़ारे का आनंद उठाता आया हूँ। लेकिन पिछले साल 24 मार्च 2020 के दिन यहाँ का नजारा एकदम बदला हुआ था , दिन ढल चुका था , हर तरफ दूधिया रोशनी थी लेकिन उसे देखने वाला कोई नहीं था। न लोगों का हूजूम था , न ही कोई शोर शराबा। हर तरफ पसरे सन्नाटे को बीच – बीच में पुलिस वाहन के सायरन की आवाज काट रही थी। देश की राजधानी दिल्ली जो हमेशा से ही जश्न और सैर – सपाटे के लिए पहचानी जाती है उस दिन कोरोना की वजह से मानो थम सी गई थी। एक तरह के चक्का जाम और अलसाए सन्नाटे के बीच जो एक चीज सुनाई और दिखाई दे रही थी, वो थी सायरन का शोर और चिड़ियों की चहचहाहट। शहर में लॉक डाउन लग चुका था और मैं अपने आँगन में लोगों के आने का इन्तजार कर रहा था। मेरे गलियारे में मौजूद बच्चों का पार्क भी शांत था , वहाँ झूले तो थे खेलने वाले बच्चे नहीं थे .”
कोरोना के चलते दिल्ली के दिल इण्डिया गेट को अपने मूल स्वभाव में वापसी करने में कई महीनों का समय लगा था। इण्डिया गेट ही क्यूँ पूरे देश की ही हालत ऐसी हो गई थी। सब कुछ बंद हो गया था। आना जाना , उठना – बैठना , मिलना – जुलना , खेलना – कूदना कुछ भी तो चालू नहीं था अब कल्पना करें कि अगर वैसी ही स्थिति फिर आ गई तो क्या होगा ? उस तरह के हालात की तो आज कल्पना करते ही मन अन्दर से सिहर उठता है। इस बीच जोश, जज्बे , जीवटता और जूनून की असंख्य ऐसी जीवंत कहानियां भी सुनने को मिली जो संकट के समय मानवता के प्रति प्रेम और त्याग के अन्यतम उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत करने योग्य हैं। इन कहानियों को इनके शीर्षकों से ही समझने की कोशिश करें तो कह सकते हैं , “शादी के चार दिन बाद ही इलाज में जुट गए थे राहुल “,” घर वालों ने कहा छोड़ दो नौकरी , पर डटी अनु “, ” इलाज के लिए तीन महीने तक घर नहीं जा पायी ऋतु ” , और “मोहसिन ने 2700 संक्रमित शव अंत्येष्टि स्थल तक पहुंचाए ” कोरोना दौर के इन नायक नायिकाओं की कहानियां जिन लोगों की हैं, उनमें एक हैं दिल्ली के डॉक्टर राम मनोहर लोहिया स्थित अस्पताल के नियो नाटोलोजी विभाग के अस्सिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर राहुल चौधरी। कोरोना फैलने के चलते राहुल को शादी के चार दिन बाद ही वापस काम पर लौटना पडा था। पिछले साल 12 मार्च को उनकी शादी थी और 17 मार्च को वो वापस काम पर थे।
डॉक्टर राहुल की तरह केट्स एम्बुलेंस में कोरोना मरीजों को अस्पताल पहुंचाने के काम में लगी तकनीकी सहायक अनु चौहान से उनके घर वालों ने नौकरी छोड़ देने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने साफ़ मन कर दिया था। दिल्ली के ही लोक नायक जय प्रकाश अस्पताल के आपात विभाग में कार्यरत डॉक्टर ऋतु सक्सेना कोरोना मरीजों का इलाज करने की वजह से पूरे तीन महीने अपने घर ही नहीं एम्बुलेंस चालक मोहसिन ने जाति , धर्म , वर्ण और वर्ग की परवाह किये बगैर ही कोरोना से मारे गए सताईस सौ से अधिक मृतकों के शव अंत्येष्टि स्थल तक पहुंचाए थे।
जोश , जज्बा जीवटता और जूनून का प्रतीक बने डॉक्टर राहुल , तकनीकी सहायक अनु चौहान , डॉक्टर ऋतु सक्सेना और एम्बुलेंस ड्राईवर मोहसिन ये कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें एक प्रतीक माना जा सकता है। कोरोना से लड़ाई के भयानक दौर में ऐसे नायक – नायिकाओं की संख्या एक – दो में नहीं लाखों में थी और इनको कोरोना योद्धा नाम भी दिया गया था और वास्तव में चिकित्सा क्षेत्र की इस टीम ने काम भी बिलकुल वैसा ही किया था जैसा हमारी सेना के जवान युद्ध के समय शत्रु देश की सेना के साथ लड़ते हुए देश की सीमा पर करते हैं। इसी कड़ी में राज्यों के पुलिस बलों तथा केंद्र और प्रदेश की सरकारों से जुड़े अर्ध – सैनिक संगठनों के जवानों ने भी कोरोना से लड़ाई के दौर में महत्वपूर्ण और प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया था . आज भी ये सभी लोग उसी मुस्तैदी से अपने काम में लगे हैं।
इस बीच इस महामारी की वजह से अवसाद भी पैदा हुआ और धीरे – धीरे दवा की खोज भी हो गई तथा रोग का शिकार होने से पहले ही रोकथाम का इंतजाम करने की गरज सी वेक्सीन यानी टीके का इंतजाम भी हो गया और टीकाकरण की योजनाएं भी बना ली गई हैं। यहाँ तक भी सब कुछ ठीक ही चल रहा था। अपने देश भारत की बात करें तो यहाँ दो – तीन किस्म के कोरोना प्रतिरोधी टीके विकसित भी कर लिए गए हैं दुनिया के दूसरे देशों की मदद से भारत में इनका उत्पादन भी बड़े पैमाने पर शुरू ही गया है . टीके की कोई कमी नहीं है। टीके का हमारे देश में इतना ज्यादा उत्पादन हो रहा है कि अपनी जरूरत का उपयोग करने के बाद हम दुनिया के कई देशों को इसका निर्यात भी सस्ते दाम पर कर रहे हैं। यहाँ तक भी सब कुछ एकदम ठीक चलता रहा , अचानक इसमें एक मोड़ तब आया जाब कोरोना का टीका लगाने के बाद कई मरीजों के शरीर में खून का थक्का बनने की शिकायतें आने लगी और हमारे भारत जैसे देश में टीका लगाने के बाद कुछ लोगों के मरने की ख़बरें भी सामने आने लगी ।
यही नहीं पहले कहा गया था कि कोरोना के टीके की दो डोज दो हफ्ते के अंतराल में दी जाएंगी, अब टीके के दो डोज के बीच की इस अवधि को बढ़ा कर आठ हफ्ते यानी दो माह करने की ख़बरें आ रही हैं। इससे अजीब कुहासे जैसी स्थिति बन रही है। आश्चर्य इस बात को लेकर भी होता है कि एक तरफ तो कोरोना के संभावित संक्रमण को देखते हुए एक बार फिर लॉक डाउन लगाने की आशंका व्यक्त की जा रही है वहीँ दूसरी तरफ चुनावी रैलियों और धार्मिक समागमों पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध लगाने की प्राथमिकता कहीं दिखाई नहीं देती।