ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: किसी भी लोकतांत्रिक देश में निष्पक्ष चुनाव संचालन की सबसे बड़ी और एकमात्र भूमिका चुनाव आयोग की ही होती है और भारत भी इसका अपवाद नहीं है। देश की आजादी के बाद से आज तक संसद और विधान मंडलों के साथ ही स्थानीय निकायों के जितने भी चुनाव हुए हैं सभी में किसी न किसी रूप में चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर चर्चा होती ही रही है। इन चर्चाओं में कभी उसकी निष्पक्षता की जोर शोर से प्रशंसा की गई तो कभी इसी मसले पर उसकी बुरी तरह आलोचना भी हुई है।
इस सदी के पाचवें दशक के अंतिम दशक में देश के आजाद होने के पांच साल बाद 1952 में जब अपने देश के संविधान के अनुपालन में प्रांतीय विधान मंडलों के साथ ही देश की संसद के लिए पहली बार चुनाव आयोजित किये गए थे उससे पहले ही चुनाव आयोग का गठन भी हो चुका था। आजादी के बाद के करीब दो दशक तक तो किसी को भी चुनाव आयोग की निष्पक्षता की पड़ताल करने का मौका नहीं मिल सका था, क्योंकि तब तक स्थितियां कुछ और थीं और आमतौर पर चुनाव आयोग को सरकारी प्रवक्ता नहीं माना जाता था। आजादी के बाद सातवें दशक में जब इंदिरा गाँधी देश की प्रधान मंत्री बनी थीं उसके करीब एक दशक तक यह लगने लगा था कि चुनाव आयोग के दांत टूट चुके हैं और अब वो गरजने वाला शेर नहीं बल्कि दम हिला कर एचएमवी ( हिज / हर मास्टर्स वौइस् ) के रिकॉर्ड की तरह मालिक / मालकिन की हाँ में हाँ मिला कर चलने वाला एक संस्थान बन गया है। बाद के दौर में टीएन शेसन नाम के एक व्यक्ति ने इस संस्थान को दांत दिए और निष्पक्ष तरीके काम करने वाले संस्थान की मान्यता भी दी। दुर्भाग्य से पिछले कुछ साल से चुनाव आयोग अपनी यह पहचान गवा चुका है, स्थिति एचएमवी के रिकॉर्ड वाले एक विश्वसनीय पालतू प्राणी जैसी हो गई है। इस पृष्ठभूमि में चुनाव आयोग पर विस्तार में चर्चा करना समय के सन्दर्भ में प्रासंगिक भी हो जाता है।
गौरतलब है कि निर्वाचन आयोग या चुनाव आयोग एक संवैधानिक निकाय है जिसका काम देश की संसद के दोनों सदनों के साथ ही राज्यों के विधान मंडलों के प्रतिनिधियों , राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति जैसे शीर्ष संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के लिए चुनाव् का संचालन करना है। इसके अलावा भी अनेक निकायों के चुनाव भी चुनाव आयोग की देख रेख में ही संचालित किये जाते हैं। भारतीय संविधान के भाग 15 में चुनाव प्रक्रिया का ही उल्लेख है। संविधान के इसी भाग के अंतर्गत संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के तहत चुनाव आयोग के गठन की बात कही गई है। इसी नियमावली के तहत चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति , शक्तियों , कार्य कार्यकाल और पात्रता आदि के सम्बन्ध में विस्तृत प्रावधान उपलब्ध कराये गए हैं। संविधान में एक सदस्यीय चुनाव आयोग का प्रावधान था लेकिन 16 अक्टूबर 1989 को राष्ट्रपति की एक अधिसूचना के जरिये इसे तीन सदस्यीय बना दिया गया था। इसके बाद भी पुनर्मूषको भव की भावना के तहत कुछ समय के लिए इसे फिर एक सदस्यीय चुनाव आयोग बना दिया गया था, लेकिन इसके कुछ साल बाद ही 1993 में एक बार फिर इसका तीन सदस्यीय स्वरुप फिर से बहाल कर दिया गया था। गनीमत है पिछले लागभग ढाई दशक से चुनाव आयोग का यह तीन सदस्यीय स्वरूप बरकार है। इस व्यवस्था के तहत चुनाव आयोग में एक मुख्य निर्वाचन ( चुनाव )आयुक्त और दो निर्वाचन ( चुनाव ) आयुक्त होते हैं। इसी नियम के तहत सुनील अरोरा फिलहाल देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त हैं आयोग का मुख्यालय ( सचिवालय ) दिल्ली में है और इसके तीनों आयुक्तों की नियुक्ति 6 साल या 65 वर्ष तक की आयु के कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वरीयता क्रम के अनुसार इन तीनों में सबसे वरिष्ठ चुनाव आयुक्त को मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में काम करना होता है चुनाव आयुक्तों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समकक्ष का दर्जा प्राप्त है। इसी के अनुसार वेतन और भत्ते पाने अधिकारी भी चुनाव आयुक्त होते हैं।
संवैधानिक पद होने के नाते मुख्य चुनाव आयुक्त को संसद द्वारा ही हटाया जा सकता है। इस मामले में भी वही प्रक्रिया अपनाई जाती है जो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या न्यायाधीश को उसके पद से हटाये जाने के लिए अपनाई जाती है। गौरतलब है देश के सर्वोच्च न्यायालय , राज्यों के उच्च न्यायालयों के मुख्य समेत सभी न्यायाधीशों, भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक समेत संवैधानिक पदों पर आसीन ऐसे पद धारकों को दुर्व्यवहार या पद के दुरुपयोग का आरोप सिद्ध होने पर या अक्षमता के आधार पर संसद द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर ही उनके पदों से हटाया जा सकता है।
यही प्रक्रिया मुख्य निर्वाचन आयुक्त को हटाने के लिए भी अपनाई जाती है। इसके लिए संसद के सदन में दो तिहाई बहुमत होने के साथ ही सदन के कुल सदस्यों के कमसे कम पचास फीसदी का मतदान में भाग लेना भी जरूरी है। दिलचस्प बात यह है कि इन संवैधानिक पदों में से किसी को भी हटाने के लिए संविधान में महाभियोग शब्द का उपयोग नहीं किया गया है। इस शब्द का उपयोग केवल राष्ट्रपति को उसके पद से हटाने के लिए किया जाता है जिसके लिए संसद के दोनों सदनों में उपस्थित सदस्यों की कुल संख्या के दो – तिहाई सदस्यों के विशेष बहुमत की जरूरत होती है ।अन्य किसी मामले में यह प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती। संविधान प्रदत्त दायित्वों के तहत चुनाव आयोग को संसद और विधान मंडलों के प्रतिनिधियों , राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव कराना होता है। महत्वपूर्ण बात चुनाव संचालन कराना नहीं बल्कि राज्यों और राष्ट्र के स्तर पर समय – समय पर होने वाले चुनावों का कार्यक्रम तय करना तथा चुनाव के दौरान एक प्रशासनिक इकाई के रूप में व्यवस्था संचालन करना है। चुनाव आयोग ही पूरे देश में वोटर लिस्ट तैयार करता है और उसके आधार पर वोटर कार्ड तैयार करने और उनके वितरण का काम भी करता है ।
चुनाव आयोग की कार्य सूची में सिर्फ चुनाव संचालन जैसे काम ही दर्ज नहीं हैं बल्कि इसे वोटिंग और वोटों की गिनती के लिए स्थानों का निर्धारण करने से लेकर शांतिपूर्ण तरीके से मतदान संपन्न कराने का होता है। ऐसे शुरू से लेकर आखिर तक के सभी कार्य चुनाव आयोग की देख रेख में ही संपन्न होते हैं इस लिहाज से ये बहुत ही जिम्मेदारी का काम माना जाता है। इसके साथ ही राजनीतिक दलों की मान्यता , उन्हें चुनाव चिह्नों का आबंटन , उनके आपसी विवादों का निपटारा ,संसद और विधान मंडलों में किसी वजह से अयोग्य ठहराए गए सांसदों और विधायकों के सदन की बैठकों में भाग लेने के अधिकार संबंधी मामलों पर फैसला देने , चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता तैयार करने और जारी करने के साथ ही उस पर सख्ती से अमल करने, चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च की अधिकतम राशि निर्धारित करने और उसे लागू करने की जिम्मेदारी भी चुनाव आयोग की ही होती है। भारत का चुनाव आयोग 1952 से अब तक चुनाव संचालन करने की अपनी भूमिका का सफलतापूर्वक सञ्चालन कर रहा है।चुनाव में लोगों की अधिकतम भागीदारी सुनिश्चित करने में इस संस्थान की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। देश में होने वाला हर चुनाव राष्ट्रीय एकता अखंडता को बनाए रखते हुए सभी संवैधानिक प्रावधानों का इमानदारी से पालन करते हुए निष्पक्ष तरीके से संपन्न हो जाए यह एक महत्वपूर्ण काम है जिसे चुनाव आयोग को निष्ठा और समर्पण के साथ करना होता है।इसके लिए आयोग का चुनावी प्रक्रिया में राजनीतिक दलों और हितधारकों के साथ मिल कर चलना भी जरूरी होता है। ऐसा करके ही चुनाव आयोग चुनाव से जुड़े हर पक्ष को विश्वास में लेकर चुनावी प्रक्रिया और चुनावी प्रशासन के बारे में जागरूकता पैदा कर सकता है। इससे चुनाव के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ने के साथ ही इस प्रक्रिया को मजबूत बनाने में भी मदद मिलती है।