ये शहर है सपनों का, अरमानों का, ख्वाहिशों का, यहाँ के कमरे भले छोटे हों लेकिन सपनों का विशाल खुला आसमान है। लेकिन इसी शहर की गलियों में कांच की तरह बिखरते सपने भी हैं, ख़ाक होते अरमान भी हैं और दम तोडती ख्वाहिशें भी हैं। यहाँ जिन्दगी की नाजुक डोर हाथ से छूटती है और छीन ले जाती है परिवारों से उनकी खुशियाँ। जो जिन्दगी बनाने चले थे वही मौत के आगोश में समा गये। कुछ तो मजबूरियां रही होंगी वरना कोई अपने सपनों को यूँ नहीं जलाता। सपनों के इस शहर का नाम है कोटा। कोटा – नाम तो सुना ही होगा। आज बच्चों, अभिभावकों, समाज, शासन, प्रशासन हर किसी के माथे पर चिंता की लकीरें हैं। अफ़सोस सवाल तो सबके जहन में है लेकिन जवाब किसी के पास नहीं। आठ महीने और 24 मौतें। ये कोई समान्य आंकड़ा नहीं है। अगस्त के महीने में ही कोटा में दो छात्रों ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। आज के इस विडियो में हम जानने समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर क्या वजहें हो सकती हैं जिसके चलते कोटा में उज्ज्वल भविष्य के सपने लेकर आया छात्र मौत के अँधेरे कुँए में जा गिरता है।
जरा आकड़ों पर गौर करें ! आठ महीने 24 मौतें। ये आंकड़ा ही दिल दहला देने को काफी है। कोटा पुलिस के मुताबिक साल 2015 में 17, 2016 में 16, 2017 में सात. 2018 में 20, 2019 में 8 बच्चों ने अपना जीवन समाप्त कर लिया। हाँ साल 2020 और इक्कीस में एक भी मौत नहीं हुई लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि कोटा में सब कुछ सही हो गया। बल्कि इन दो सालों में कोरोना के चलते कोचिंग संस्थान ही पूरी तरह बंद रहे। और जब खुले तो उसके खौफनाक परिणाम सबके सामने हैं। आइये मिलकर समझने की कोशिश करते हैं।
सबसे पहले बात छात्र के नजरिये से। कोटा में सबसे पहले कदम रखते समय उसके साथ होते हैं, दो चार भारी भरकम बैग जिसमें उसकी जरूरत का तमाम सामान होता है। लेकिन क्या बस इतना ही? नहीं। उसके साथ होता है उससे कहीं ज्यादा वजन। ऐसा वजन जो दुनिया के किसी भी वजन से ज्यादा होता है और ये वजन वो खुद या ये समाज नंगी आँखों से कतई नहीं देख सकता। ये वजन है उस पर लदा अपेक्षाओं का बोझ। अपेक्षा उसके माँ बाप की, अपेक्षा इस समाज की, अपेक्षा उसकी खुद की, माँ बाप जब अपने जिगर के टुकड़े को हॉस्टल में भर्ती कराकर वापस घर के लिए निकलते हैं तो उनकी आँखें अपने बच्चे से यही कह रही होती हैं कि बेटा कामयाब होकर हो लौटना। अगर बेटा कामयाब होगा तो इसमें माँ बाप की भी तो कामयाबी होगी। बच्चे को कोटा भेजने का मकसद सिर्फ उसके सपने पूरे करना नहीं बल्कि माँ बाप के सपने पूरा करना भी है जिन्हें वो खुद कभी पूरे नहीं कर सके। महज सोलह सत्रह साल के अबोध बच्चे भला क्या मनोदशा होती होगी उनकी| वो बच्चे जिन्हें हर हाल में कामयाब होना ही होगा| नाकामयाब होने का विकल्प ही नहीं है उनके पास।
वो सपने पूरे करने के लिए रणभूमि में डट जाता है। देखते ही देखते कोचिंग, पढाई, किताबें, वीकली टेस्ट, मंथली टेस्ट, यूनिट टेस्ट, ये टेस्ट, वो टेस्ट उसको चारों ओर से दबोच लेते हैं। आने वाले कुछ सालों के लिए यही उसकी दुनिया बन जाती है। उसे पता ही नहीं चलता कि कब वो एक रेस का हिस्सा बन चुका है। पहले पहल तो उस रेस में आगे निकलने और बने रहने की जीतोड़ कोशिश करता है लेकिन भगवान ने तो हर बच्चे को अलग बनाया है और हर एक को अलग दिमाग बक्शा है। ऐसे में अक्सर कुछ बच्चे सपनों की रेस में पीछे छूटने लगते हैं। उनके अंदर ये खौफ बैठ जाता है कि अगर कहीं वो इस दौड़ से बाहर हो गये तो क्या होगा। समाज, माँ बाप तो छोड़िये उन्हें खुद से नजरें मिलाने में भी डर लगने लगता है। तमाम सवालों के ज्वालामुखी से रह रहकर उठने वाला लावा उन्हें सिर्फ एक ही जवाब देता है| जवाब जो सिहरन पैदा कर दे। जवाब जो रूह को अंदर तक कंपा दे। जवाब जो जिन्दगी को मौत से मिला दे।
सोलह साल का अविष्कार भी तो महाराष्ट्र से अपने और अपने माँ बाप के सपने पूरे करने के लिए ही कोटा आया था | छह महीने ही तो हुए थे कोचिंग करते हुए। रविवार का दिन था| लेकिन कोटा के लिए क्या संडे क्या मंडे| ये शहर तो हफ्ते के सातों दिन चलता है| यहाँ संडे का मतलब है टेस्ट। अविष्कार भी हर संडे की तरह उस संडे भी टेस्ट देने के लिए कोचिंग पहुंचा। टेस्ट देकर वो रूम से बाहर निकला। लेकिन इसके बाद वो नीचे जाने के बजाय बिल्डिंग के छठे माले पर जा पहुंचा और वहां से उसने अपने जीवन की आखिरी छलांग लगा दी। अविष्कार जिसे छलांग लगानी थी जीवन में आगे बढ़ने की, अपने और माँ बाप के अरमान पूरे करने की, कैरियर में बहुत ऊपर तक जाने की आखिर वो ये आखिरी छलांग क्यों लगा बैठा? न ये अकेला अविष्कार है और न ये छलांग। पहले भी ये होता रहा है और अगर अब भी न चेते तो आगे भी होता रहेगा।
अब बात करते हैं माँ बाप और समाज के नजरिये से। हर माँ बाप हमेशा यही चाहता है कि उनके बच्चों के पास अच्छा कैरियर हो। इस चक्कर में बच्चों के अंदर बचपन से ही अपेक्षाओं के बीज बोने शुरू कर दिए जाते हैं। आज समाज में जबर्दस्त कम्पटीशन है। कम्पटीशन सिर्फ स्कूल कोचिंग की क्लासेज में ही नहीं बल्कि समाज में भी होता है। एक होड़ होती है दौड़ होती है जिसे सबको जीतना है। आज फैसले अपनी इच्छा से या बच्चों के टैलेंट के आधार पर नहीं बल्कि समाज के अनुसार होते हैं। हम तो अपने बच्चे को कोटा भेजेंगे क्योंकि हमारे किसी पडोसी ने या फिर रिश्तेदार ने अपने बच्चे को भेजा है। हम किसी से कम तो हैं नहीं। फिर समाज में ताल ठोंक के सीना चौड़ा करके बताया जाता है कि हमारा बेटा या बेटी भी कोटा में कोचिंग कर रही है। यकीन मानिये बच्चों को कोटा भेजना अब समाज में एक स्टैट्स सिंबल बन चुका है।
माँ बाप जब अपने बच्चों को कोटा छोड़ने जाते हैं तो वो खूब नसीहतें देते हैं कि बेटा खूब मन लगाकर पढ़ना कामयाब होकर ही लौटना लेकिन वो ये बताना भूल जाते हैं कि अगर कामयाब न हो सके तो क्या करना| हर माँ बाप को अपने बच्चों को बताना चाहिए कि अगर फेल हो भी गये तो क्या हुआ कोशिश तो की, फेल हो गये तो क्या हुआ हम तो हैं, फेल हो गये तो क्या हुआ अपना घर तो है, फेल हो गये तो क्या तुम्हारे आँसू छुपाने के लिए माँ की गोद और हौसला बढ़ाने के लिए बाप का कंधा तो है। यकीन मानिये जिस दिन हर माँ बाप अपने बच्चों में ये विश्वास पैदा कर देंगे कोटा में बच्चों का बिल्डिंग से छलांगें लगाना, पंखों से लटकना बंद हो जायेगा।
अब बात कर लेते हैं इस देश के एजुकेशन सिस्टम की। आज हालत ये है कि बच्चों को नम्बर दिए नहीं बल्कि बांटे जा रहे हैं। परीक्षायें महज औपचारिकता रह गई हैं। आज छात्र से ज्यादा परीक्षा तो शिक्षक की होती है। उसे हर छात्र को पास जो करना है। आज कोई छात्र चाहे तो भी फेल नहीं हो सकता। क्योंकि नम्बर तो मिलने ही हैं भले ही आंसर शीट कोरी हो। एक दौर था जब फर्स्ट डिविजन वालों का समाज में अलग ही रुतबा हुआ करता था। अच्छे नम्बरों से सेकंड डिविजन लाने वाला भी खुद को गुड सेकंड डिविजन कहता था। थर्ड डिविजन लाने वाला इतने में ही खुश हो जाता था कि कम से कम पास तो हुआ। लेकिन आज ये हालत हो गई है कि फर्स्ट डिविजन की कोई वैल्यू तब तक नहीं है जब तक नम्बर 80 परसेंट से ऊपर न हों। आज हर कोई पास हो रहा है वो भी बहुत अच्छे नम्बरों से। हो सकता है हम गलत हों लेकिन रिजल्ट आने पर एक बार को तो खुद छात्र भी हैरान जरूर होता होगा क्योंकि उसे उतने नम्बर मिले होते हैं जितने लायक पेपर उसने किया ही नहीं।
सारी समस्या ही यहीं से शुरू होती है। स्कूली परीक्षाओं में बंट रहे नम्बर अब योग्यता का पैमाना नहीं बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा ही उजागर करते हैं। ये नम्बर गलतफहमी की ओर ले जाते हैं| एक ऐसी गलतफहमी जो छात्र के कैरियर और जीवन पर भारी बहुत भारी पड़ने जा रही होती है। बात तब गंभीर हो जाती है जब ऐसी ही गलतफहमी उसके माँ बाप को भी हो जाती है। दोनों को ही लगता है कि बच्चा बहुत टैलेंटेड है, और यही गलतफहमी उन्हें कैरियर के चयन में गलत दिशा की ओर ले जाती है। वास्तव में अगर नम्बर बाँटना ही शिक्षा व्यवस्था का मकसद है तो जरूरत है ऐसी व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन लाने की जहाँ नम्बर रेवड़ियों की तरह बांटे नहीं बल्कि योग्यता के आधार पर दिए जाते हों।
एक और जरूरी बात कभी आपने IIT ज़ी, एडवांस और नीट जैसे पेपर के स्टैण्डर्ड के बारे में सोचा है? ये पेपर देखकर अच्छे अच्छों के दिमाग ठंडे पड़ जायेंगे। कहने को भले पेपर में 12th स्टैण्डर्ड के सवाल पूछे जाते हों लेकिन हकीकत इससे एकदम अलग है। अदभुत प्रतिभा वालों को छोड़ दिया जाये तो पढने में ठीक ठाक छात्र भी बिना कोचिंग किये ऐसे सवालों का बाल भी बांका नहीं नहीं कर सकता। प्रश्न पत्र के इतने कठिन स्टैण्डर्ड का आखिर क्या औचित्य हो सकता है। क्या योग्यता जांचने के लिए कठिन प्रश्न ही एकमात्र पैमाना है? क्या चीजों को थोड़ा सा आसान नहीं किया जा सकता? जबकि इसके तमाम फायदे हैं। इससे न केवल छात्रों पर दबाव कम होगा बल्कि कुकुरमुत्तों की तरह उगते जा रहे कोचिंग संस्थानों पर भी लगाम लग सकेगी। जरूरत है। इन एग्जाम का पैटर्न और सिलेबस तय करने वाले जिम्मेदारों को इस पहलू पर विचार करने की।
हम बातें कितनी भी कर लें लेकिन उनके समाधान भी हमें ही ढूढने होंगे, छात्र, माँ बाप, शासन प्रशासन अगर मिलकर अपनी जिम्मेदारियों को समझें तो कोटा में न कोई बच्चा कूदेगा न कोई लटकेगा। यहाँ की फिजाओं में महकेगी तो सिर्फ सुनहरे भविष्य की सौंधी खुशबू….
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