हमारे संविधान के अनुच्छेद 23 और 24 में नागरिकों को अत्याचार, शोषण, भेदभाव और कुरीतियों से बचाने की व्यवस्था बना, समानता का अधिकार दिया गया था। इसमें सकारात्मक रक्षात्मक समानता की व्यवस्था की गई है। देश की आजादी के पूर्व हमारे यहां सभी तरह की कुरीतियां,भेदभाव, शोषण और अत्याचार होते रहते थे। कुछ सामाजिक, कुछ राजनीतिक, कुछ धार्मिक, कुछ लैंगिक और कुछ संपत्ति की असमानता और शोषण आम बात थी। इन सभी का हल संविधान निर्माताओं ने मौलिक अधिकारों के जरिए निकाला था। इसकी संरक्षा का दायित्व न्यायपालिका को सौंपा गया था, जिससे सियासी दल या लोग तुष्टीकरण न कर सकें। दुर्भाग्य से 1970 के दशक से इसको सियासी हथियार बनाया जाने लगा।
देश की राजनीति मुद्दों पर आधारित होने के बजाय जाति-धर्म का खेल बन गई। नतीजतन, आज देश गंभीर संकटों से गुजर रहा है। चुनावी हार-जीत का गणित जाति-धर्म के मतों से तय होता है। हमारा देश महंगाई, भ्रष्टाचार, सार्वजनिक संपत्तियों-कंपनियों की लूट का शिकार है। देश की सीमायें, महिलायें और व्यापारी लगातार असुरक्षित होते जा रहे हैं। बावजूद इसके, कहीं से भी मुद्दों पर संघर्ष का शोर सुनाई नहीं देता है। इससे सवाल उठता है कि क्या सियासी दल सिर्फ सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं? हमने विपक्षी दलों के संघर्ष का एक युग देखा है। इस वक्त वही विपक्ष गायब है। कोई भी मीडिया में मुद्दों को लेकर सड़क पर संघर्ष करता नहीं दिखता है।
आज हालात ये हैं कि देश में जनता और राष्ट्र की कोई ऐसी समस्या नहीं है, जो मौजूद न हो और मुद्दा न बन सकती हो। देश में गरीबी और भुखमरी लगातार बढ़ रही है। सार्वजनिक संपत्तियां बेचकर सरकार कारपोरेट कंपनियों को लाभ पहुंचा रही है। रोजगार का भारी संकट है। किसान सड़कों पर हक की लड़ाई लड़ते मर रहे हैं। दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के परिजन प्रताड़ित किये जा रहे हैं। उनकी बेटियां गैंगरेप का शिकार हो रही हैं। सत्ता उन्हें इंसाफ दिलाने के बजाय बचाव में नजर आती है। मंत्री और उनके परिजन सरेआम अराजकता फैलाते हैं। उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता है। रक्षक ही भक्षक बन नागरिकों को मार रहे हैं। धार्मिक और जातिगत कट्टरता समस्या बन गई है। विपक्षी नेताओं को निरोधक कानूनों के जरिए रोका जा रहा है। अधिकतर विपक्षी दलों के नेता आज्ञाकारी बनकर सरकारी प्रतिबंधों को मानकर घर पर ही बैठ जाते हैं। ये नेता संघर्ष करने की बात सिर्फ चुनावी मौके पर करते हैं। सभी अपनी सुविधानुसार सड़क पर निकलते और फिर बैठ जाते हैं। वो पुलिस से लड़ने और लाठियां खाने से डरते हैं। वो जेल जाने से भी डरते हैं। वो हिरासत में लिये जाने से बचने की जुगत लगाते हैं। वो ट्वीटर पर विरोध करते दिखते हैं मगर सड़क पर उनकी उपस्थिति नहीं मिलती है। वो पीड़ितों के पास तब जाते हैं, जब सुरक्षित माहौल बन जाता है। वो जाति-धर्म का गुणाभाग लगाकर शोषित-पीड़ित से मिलने निकलते हैं। उनके लिए मुद्दों पर सरकार का विरोध सिर्फ अखबारों और चैनलों पर दिये गये बयानों तक ही सीमित हो जाता है।
विपक्षी दलों की सड़क पर नगण्य उपस्थिति देखकर ही सरकार में बैठे नेता, उन पर उलट हमला करते हैं। इन सब के बीच, जब प्रियंका गांधी ने नारा दिया, लड़की हूं, लड़ सकती हूं, तब सत्तारूढ़ दल से अधिक विपक्षी दलों में कुलबुलाहट हुई। राजनीतिक गणितज्ञों ने कहा, इस नारे से क्या होगा? कांग्रेस के पास वोट बैंक तो है नहीं। न हिंदू उनका है और न मुस्लिम उनका, न सिख उनका है और न ईसाई। जातिगत गणित भी उनके समर्थन में नहीं है, क्योंकि न यादव, न काछी, न कुर्मी, न गुर्जर, न दलित, न बनिया, न राजपूत, न जाट और न ही ब्राह्मण का वोट बैंक उनके पास है। कांग्रेस के नेताओं, यहां तक कि राहुल गांधी और प्रियंका ने भी इस टिप्पणी पर कोई जवाब नहीं दिया। वो अपनी धुन में लगे हुए हैं। सत्ता सुख भोगने के आदी जी-23 के कांग्रेसी नेताओं ने उन दोनों की नीतियों और संघर्ष पर तीखे हमले किये, मगर वो रुक नहीं रहे। नतीजा क्या होगा, यह भविष्य के गर्त में है मगर हमें पिछले पांच सालों के दौरान कोई भी विपक्षी दल जनता के मुद्दों को लेकर उनकी तरह सड़कों पर संघर्ष करता नहीं दिखा। इस दौरान चाहे महंगा रक्षा खरीद सौदा हो, या सार्वजनिक संपत्तियों के बेचने का मुद्दा, चाहे कारपोरेट को फायदा देकर आमजन का हक मारने की लड़ाई हो या जीएसटी और धार्मिक कट्टरता, चाहे जातिगत भेदभाव के हमले हों या फिर महिला उत्पीड़न, चाहे महंगाई की मार हो या शिक्षा की बदहाली, सभी मुद्दों पर सड़क पर सिर्फ राहुल की कांग्रेस ही नजर आई है।
आपको याद होगा, जब देश में नोटबंदी और जीएसटी लागू की गई, तो सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में ही किया था मगर उसे जनता का समर्थन नहीं मिला, अब वही जनता इनसे परेशान है। जब रॉफेल सहित अन्य तमाम रक्षा खरीद सौदे हो रहे थे और देश की सीमाओं पर चीनी अतिक्रमण, तब भी राहुल गांधी ने जमकर हमला बोला। जब मॉब लिंचिंग हो रही थीं, और सब खामोश थे, तब भी सड़क पर कांग्रेस ही उतरी। जब कठुआ सहित तमाम राज्यों में बेटियों की आबरू लूटी गई, तो आवाज कांग्रेस ही बनी। जब लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को पंगु किया जा रहा था, तब भी राहुल गांधी ने खुलकर हमला किया। जब कोविड-19 महामारी में पूरा विपक्ष अपने घरों में कैद हो गया था, तब सड़क पर राहुल गांधी ही नजर आये। प्रियंका गांधी और राहुल की टीम ने सेवा का मोर्चा संभाला। जब उन्नाव में एक बेटी भाजपा विधायक की हवस का शिकार बनी और उसके परिवार के सदस्यों की हत्यायें हुईं, तब भी सड़क पर प्रियंका-राहुल ही उतरे। जब हाथरस में दलित बेटी को गैंगरेप के बाद मार डाला गया, तब भी राहुल-प्रियंका सड़क पर संघर्ष करते दिखे।
जब सोनभद्र में 10 आदिवासियों को शोषण का शिकार बनाकर मार डाला गया, तब भी प्रियंका सड़क पर थीं। जब बलिया में भाजपा नेताओं ने हत्यायें कीं, तब भी कांग्रेस मैदान में थी। किसानों के हक मारने का अध्यादेश और कानून जब सामने आया, तब भी सबसे पहले सड़क पर राहुल गांधी ही निकले। इस दौरान प्रियंका गांधी और राहुल गांधी आधा दर्जन बार पुलिस हिरासत में लिये गये। उन पर मुकदमें दर्ज हुए। पुलिसिया से लेकर राजनीतिक सभी तरह के हमले उन्होंने झेले। जांच एजेंसियों के नोटिस से लेकर तमाम तरह से उन्हें डराने की कोशिश भी हुई, मगर कोरोना महामारी को भूलकर वो अपनी टीम के साथ सड़क पर संघर्ष करते दिखे। दूसरी तरफ कांग्रेस के तथाकथित बड़े नेता घरों से भी नहीं निकले। समाजवादी पार्टी (सपा) हो, या बहुजन समाज पार्टी (बसपा), ममता बनर्जी की टीएमसी हो या बादल की अकाली दल, या अन्य कोई क्षेत्रीय दल, सभी के नेता खामोशी से घरों में बैठे, अपनी सुविधा अनुसार सिर्फ ट्वीट-ट्वीट खेलते रहे।
अब जब प्रियंका जाति-धर्म और क्षेत्र की राजनीति से हटकर महिला, किसान और युवाओं को इंसाफ का मुद्दा बना रही हैं, तब यही विपक्षी दल उन पर हमलावर होते दिख रहे हैं। सत्ता का उन पर हमला लाजिमी है मगर विपक्षी दल ही सबसे बड़े विपक्षी दल को टॉरगेट करें, तो उनके नेताओं पर सवाल उठने लाजिमी हैं। आखिर उनको डर किस बात का है? अगर उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है, तो फिर ईडी, सीबीआई, आयकर और पुलिस का डर उन्हें क्यों सताता है? देश की आजादी की लड़ाई में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने नौ साल जेल में कठोर कारावास काटा। गांधी-नेहरू, पटेल और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने लाठियां भी खाईं और जेल भी गए। गांधी-नेहरू परिवार के एक दर्जन लोगों शहीद भी हुए। इन नेताओं को सोचना चाहिए कि जब वो जनता की आवाज बनेंगे। उनके मुद्दों पर लड़ते दिखेंगे, तभी जीतेंगे। अगर डरी हुई सियासत करेंगे, तो यूं ही रेंगते रहेंगे।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक-मल्टीमीडिया हैं।)