कांग्रेस देश की मुख्य विपक्षी पार्टी है, यह एक सच्चाई है और देश का हर इंसान इस सच्चाई से वाकिफ है। यह सच्चाई सिर्फ आज की नहीं है आज से सात साल पहले से देश के लोग इस सच्चाई से वाकिफ हैं। वाकिफ तो खुद कांग्रेस भी है लेकिन इस दौरान कांग्रेस ने कभी यह दिखाने की कोशिश नहीं की कि वो एक विपक्षी पार्टी है और उसका काम सरकार की नीतियों – योजनाओं और कामकाज का विरोध करना है।
राजनीति में विरोध करने का मतलब यह भी होता है कि विरोधी पार्टी को धरना – प्रदर्शन करते हुए पुलिस की लाठियों, पानी की बौछारों और आमने – सामने की हाथापाई जैसे कारनामों का सामना भी करना पड़ता है, और यह सब करते हुए कई बार थाना – जेल भी जाना पड़ता है।
2014 के बाद से आज तक सात साल में ऐसा कोई मामला देखने में नहीं आया है जबकि इसी पार्टी ने 1977 में पहली बार केंद्र में सत्ता से बाहर होने के कुछ ही महीने के बाद यह एहसास करा दिया था कि वो सत्ता संचालन के साथ ही विपक्ष की राजनीति करना भी अच्छी तरह से जानती है। पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष स्वर्गीय इंदिरा गांधी के नेतृत्व में तत्कालीन विपक्ष ने जनता सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया था और तीन साल के भीतर ही ( 1980 में ) सरकार में वापसी कर ली थी।
इसी तरह 1989 में दूसरी बार केंद्र की सत्ता से दूर होने पर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष और विपक्ष के नेता स्वर्गीय राजीव गांधी ने विपक्ष की भूमिका निभाते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह की नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार का विरोध करने के साथ ही भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को फलीभूत करने वाली वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के सोमनाथ से लेकर अयोध्या के बीच की गई राम रथ यात्रा के विरोध में समूचे उत्तर में सद्भावना यात्रा का आयोजन भी किया था। विपक्ष के इस कार्यक्रम का असर यह हुआ कि जिस जन नाराजगी के चलते कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था वो नाराजगी धीरे – धीरे कम होती गई और 1991 में कांग्रेस की पुनः सत्ता में वापसी भी हो गई।
कांग्रेस की सत्ता में वापसी की एक वजह हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की शहादत भी थी लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि राजीव गांधी ने विपक्ष के नेता की भूमिका का निर्वाह भी बहुत बेहतरीन तरीके से किया था। राजीव गांधी के आकस्मिक निधन के बाद कांग्रेस में नेतृत्व का संकट भी खड़ा हो गया था गाँधी – नेहरु परिवार में ऐसा कोई व्यक्ति तब था नहीं जिसे पार्टी की कमान सौंपीं जाती। राजीव – सोनिया के दोनों बच्चे प्रियंका और राहुल बहुत छोटे लगभग बच्चे ही थे और दूसरी तरफ सोनिया गांधी पहले 31 अक्टूबर 1984 को सास इंदिरा गांधी और इसके सात साल बाद 1991 में अपने पति राजीव गांधी के आतंकियों की गोली का निशाना बनने से अन्दर ही अन्दर इस कदर भयभीत हो चुकी थीं कि उन्होंने बच्चों की जान की डर से राजनीति से दूर रहना ही उचित समझा। अंत में 1997 -98 में वो कांग्रेस में सक्रिय हुईं और उनकी इसी सक्रियता की वजह से साल 2004 में पूरे आठ साल बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो सकी थी।
कांग्रेस ने उसके बाद पूरे एक दशक तक डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में अच्छी सरकार चलाई भी। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस हारी तो यह उम्मीद की जा रही थी कि पांच साल बाद कांग्रेस सत्ता में वापसी अवश्य करेगी। पांच साल बाद कांग्रेस की सत्ता में बात इसलिए भी कही जा रही थी क्योंकि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को उस चुनाव में पूर्ण बहुमत मिला था और अधबीच सरकार गिरने की कोई संभावना किसी को भी नजर नहीं आ रही थी। इस दौरान कांग्रेस को भी आक्रामक विपक्ष की भूमिका निभाने की कोई जल्दबाजी करना ठीक नहीं समझा , इसका नतीजा इस रूप में सामने आया कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पहले से अधिक बहुमत के साथ वापस आ गई। कांग्रेस के अंतर्कलह और विपक्षी पार्टी के रूप में उठ कर खड़े न होने का खामियाजा इस रूप में भुगतना पड़ा किअन्य विपक्षी पार्टियां भी खुल कर सरकार के विरोध में खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। यही नहीं देश की बसपा सरीखी कई छोटी – बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों ने तो केंद्र सरकार की हाँ में हाँ मिलाने में ही अपनी खैर समझी। नतीजा विपक्ष अविश्वसनीय हो गया।
इस पृष्ठभूमि में सभी पहलुओं पर गंभीरता पूर्वक विचार करें तो ऐसा लगता है कि विगत शुक्रवार 20 अगस्त 2021 को कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में देश के 19 विपक्षी दलों के नेताओं की जो वर्चुअल बैठक हुई है वो भारत की विपक्षी राजनीति के सन्दर्भ में एक मील का पत्थर साबित होगी। कहना गलत नहीं होगा कि 19 जुलाई से 8 अगस्त तक चले संसद के मॉनसून सत्र के दौरान पेगासस जासूसी मामले और किसान आन्दोलन के मामले में विपक्षी एकता ने विपक्ष के संसद के बाहर सड़क में भी एकजुट रहने का सबक सिखाया है। सोनिया गांधी की इस बैठक से दो संकेत साफ़ मिले हैं। एक यह कि विपक्षी दलों को भी यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई है कि अगर विपक्ष इसी तरह आपस में लड़ता रहा तो सरकारी पार्टी मलाई खाती रहेगी। इसलिए विपक्ष का एकजुट होना उनके अपने वजूद के लिए भी बहुत जरूरी है। इसके साथ ही यह भी एक सच्चाई है कि कांग्रेस के बिना विपक्ष का एकजुट होना असंभव है लिहाजा विपक्षी एकजुटता के लिए विपक्ष की सबसे बड़ी और देश की सबसे पुराणी कांग्रेस पार्टी को नेतृत्व देना ही होगा।
विपक्ष के नेताओं को यह भी लगने लगा है कि मजबूरी ही सही पर विपक्षी एकता के लिए एक मजबूती भी है कांग्रेस। कहने का मतलब यह कि कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता का भी कोई मतलब नहीं है। उधर कांग्रेस को भी यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई है कि देश की एक मजबूत सरकार की खिलाफत के लिए मजबूत विपक्ष का होना भी बहुत जरूरी है और मजबूत विपक्ष बनाने के लिए उसे ” बिग ब्रदर ” का भाव त्याग कर सबके साथ मैत्री का भाव अपनाना होगा .. शुक्रवार की इस वर्चुअल बैठक में कांग्रेस और विपक्ष के अन्य दलों को बीच बनी मौन स्वीकृति को सोनिया गाँधी के संबोधन में इस रूप में देखा जा सकता है , ” देश के लोकतंत्र को बचाने और संविधान की सुरक्षा के लिए संसद और संसद के बाहर बड़ी निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी। देश के सभी विपक्षी दल 2024 के लोकसभा चुनावके लिए एकजुट हों और देश के संवैधानिक प्रावधानों और स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों में विश्वास रखने वाली सरकार के गठन के लिए अपनी दलगत विवशताओं से उपर उठें .”