“इदं न मम.. ” ये संस्कृत के शब्द हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में , विशेष कर एक हिन्दू भारतीय परिवार के सन्दर्भ में इन शब्दों का उपयोग इंसान के अंतिम संस्कार ( दाहगंगा संस्कार ) के समय महापंडित के निर्देशानुसार करते हैं। इंसान के अंतिम संस्कार के समय चिता की अग्नि को संबोधित करते हुए कहे जाने वाले ये शब्द, विस्तार में इस तरह व्यक्त किये जाते हैं “आग्नये स्वाहा , आग्नयेइदं न मम ..” इसके साथ ही महापंडित मृतक के संस्कार करने वाले परिजनों से कहते हैं , अब मृत देह पर घी मल कर बोलिए ..” प्रेताय , इदं न मम ” आम तौर पर हमारे देश में इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु के बाद तक संपन्न होने वाले सभी तरह के संस्कार धोती – कुर्ता तिलक और चोटी धारी, पुरोहितों और पंडितों की पुरुष बिरादरी द्वारा संपन्न कराये जाते हैं, लेकिन अब समय बदल रहा है। बदलते समय में महिलायें भी ये सब काम करवाने लगी हैं।
दक्षिण भारत में तो महिला पुरोहितों की अवधारणा काफी पहले
से रही है लेकिन ये महिलायें भी मॉस के व्रत और त्याहारों
के अलावा बच्चे के छट्ठी , नामकरण , अन्न प्रासन , मुंडन , यज्ञोपवीत और विवाह संकारों तक ही अपने को सीमित
रखती हैं। इसी तरह की महिला पंडित ने ही कुछ समय पूर्व फिल्म अभिनेत्री दिया मिर्जा का स्वयंबर रचाया था लेकिन
कुछ पारिवारिक दिक्कतों और मजबूरियों के चलते उत्तर भारत के अनेक राज्यों में महिला महापंडित अंतिम संस्कार जैसे कर्मकांड भी संपन्न कराने लगी हैं।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव की ऐसी दो महिला महापंडितों
की कहानी अभी कुछ दिन पहले ही हिंदी के एक दैनिक में भी प्रकाशित हुई थी। उन्नाव के अचलगंज शमशान में पंडागिरी करने वाली इन दो महिलाओं के नाम हैं क्रांति पंडा, सुषमा पंडा ..ये दोनों महिलायें बहुत ही निष्ठां और इमानदारी के साथ अपना काम करती हैं लेकिन कई बार जब कम उम्र की मृत देह का अंतिम संस्कार करवाना पड़ता है तब उनकी आँखें नम भी हो जाती हैं। ये दोनों महिलायें इस वजह से इस पेशे में आयीं की उनके पति यह काम करते थे।
पति की मृत्यु के बाद उनके पास सिर्फ दो ही विकल्प थे। एक यह की वो दूसरों के भरोसे गिडगिडाते हुए अपना जीवन यापन करें या फिर पति के पेशे को अपना कर आत्म सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करें। सुषमा और क्रान्ति ने आत्म सम्मान से जीने के विकाल्प को चुना और इस काम में लग गयीं। उन्नाव के अचलगंज के बलाई घाट पर अंतिम संस्कार के समय किया जाने वाला मंत्रोच्चार का यह महिला स्वर हर कोई सुन सकता है। सुषमा और क्रान्ति की यह कहानी देख और सुन कर किसी को भी यह अहसास तो हो ही जाता है की जीवन में कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता और न ही हमेशा के लिए यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि अमुक काम सिर्फ महिलाओं के लिए है और अमुक काम सिर्फ पुरुषों के लिए।
महिलायें घर के साथ – साथ बाहर के काम भी कर कर सकती हैं और पुरुष भी बाहर का काम करते हुए घर के अन्दर के कामों में भी हाथ बंटा सकते हैं। घर के ये काम खाना बनाने से लेकर बर्तन मांजने , कपडे धोने , घर की झाडू बुहारी करने और दूध देने वाले पालतू पशुओं का ख्याल रखने तक कुछ भी हो सकते हैं। सवाल यह भी है की जब आज की महिलायें फिल्मों और खेलों में काम करने , पुलिस और फ़ौज की नौकरी करने , रेल और हवाई जहाज चलाने , खेती – बाडी करने और ऐसे ही उन तमाम कामों को कर सकती हैं जो पुरुषों के अधिकार क्षेत्र वाले माने जाते हैं। तो फिर पुरोहिताई के क्षेत्र में उनके आने पर भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए . जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह यह भी एक क्षेत्र है लेकिन सच्चाई यह भी है कि कोई भी महिला स्वेच्छा से यह काम करने के लिए आगे नहीं आयेगी।
विशेष परिस्थितियों और मजबूरी में ही कोई महिला इस तरह शमशान को अपनी कर्मस्थली बनायेगी। क्रान्ति और सुषमा के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है। उन्नाव के अचलगंज के बलाई घाट की इन दो महिला पंडों ने अपने पतियों की मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार कराने के काम को एक विरासत के रूप में स्वीकार कर लिया है क्रांति और सुषमा को यह विरासत किसी ने जबरदस्ती नहीं दी है बल्कि उन्होंने आत्म सम्मान के खातिर इस विरासत को खुद ही स्वीकार किया है।
भूमिहीन सुषमा और क्रांति के पास इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था। पति बेटा की मृत्यु के बाद वैकल्पिक रोजगार की कोई व्यवस्था होती या फिर घर की आर्थिक स्थिति मजबूत होती तो शायद ये भी शमशान को अपने रोजगार का आधार नहीं बनाती लेकिन ऐसा कुछ नहीं था तो मजबूरी में ही सही , इन दोनों महिलाओं को इस विकल्प का उपयोग करना ही पड़ गया। इन दोनों महिला पंडो को एक महीने में औसतन 15. से 20 मृतकों के संस्कार कराने को मिल जाते हैं।
एक संस्कार के सात सौ से लेकर एक हजार रुपये की फीस के हिसाब से हर महीने 15 से 20 हजार रुपये ही इनकी झोली में आ पाते हैं। इसके अलावा गंगा स्नान करने आये लोग श्रद्धा पूर्वक अपनी तरफ से कुछ दे तो उसे इनकी अतिरिक्त आय कहा जा सकता है , पर इसके अलावा इनके पास आय का कोई दूसरा साधन नहीं है। अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक इन दोनों महिलाओं को न तो विधवा पेंशन मिलती है, और न ही सरकार की आवास और दूसरी योजनाओं का ही कोई लाभ इन्हें मिलता है।
क्रांति पांडा की बीस साल पहले शादी हुई थी , तभी वो इस इलाके में आयी थीं और पिछले दस साल से वह विधवा का जीवन निर्वाह करते हुए यह काम कर रही हैं . . . क्रांति पंडा के दो बच्चे हैं बेटी की शादी हो गयी है और बेटा कहीं बाहर मजदूरी करता है। इसी घाट पर काम करते हुए सुषमा के पति की मौत के बादउसने यह काम संभाल लिया था। सुषमा के मुताबिक़ उसके पास दो ही रास्ते बचे थे या तो मजदूरी करे या फिर पति की विरासत संभाले। पति की विरासत संभालने के नाम पर लोगों ने डराया भी बहुत लेकिन सुषमा ने किसी की नहीं सूनी , जो अच्छा लगा वही रास्ता चुना। आज यही रास्ता उनके गुजर बसर का आधार बन गया है। आसपास के दो दर्जन गाँव के मृतकों का संस्कार सुषमा को करना होता है इसलिए घाट तो रोज ही आना पड़ता है।