ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: असम का चुनाव देश के अन्य राज्यों के चुनाव से हर बार थोड़ा सा अलग ही होता है, लेकिन इस बार यह चुनाव कुछ ज्यादा ही अलग हो गया है। देश के केरल और तमिलनाडु की तरह असम की भी कुछ अलग तरह की पहचान है। मसलन जिस तरह तमिलनाडु ने सबसे पहले देश को चुनाव के दौरान तोहफों की घोषणा करने वाले प्रदेश के रूप में एक अलग पहचान दी, कराल की पहचान इसलिए बनी क्योंकि आजाद भारत में पहली कम्युनिस्ट सरकार इसी राज्य में बनी थी और आज भी बारी – बारी से कभी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले एलडीऍफ़ की सरकार इस राज्य में बनती है तो कभी कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीऍफ़ (संयुक्त लोकतांत्रिक गठबंधन) की सरकार का गठन होता है। इसी तरह असम भी का अलग किस्म का राज्य है। अलग किस्म का इसलिए क्योंकि प्रफुल्ल कुमार महंत के रूप में इस राज्य को देश का सबसे कम उम्र का मुख्य मंत्री देने का गौरव प्राप्त है। 70 के दशक के अंतिम वर्षों में आसू
( आल असम स्टूडेंट्स यूनियन ) के बैनर तले हुए राज्यव्यापी आन्दोलन के बाद गठित असम गण परिषद् नामक पार्टी के टिकट पर विधान सभा का चुनाव जीतने के बाद जब प्रफुल्ल कुमार महंत राज्य के मुख्य मंत्री बने थे तब उनकी उम्र 33 साल की थी , आज वो 67 साल के हो चुके हैं। श्री महंत ने आसू को कुशल नेतृत्व प्रदान किया था , इस संगठन का आन्दोलन सफल भी रहा और जनता की मांग ही इसी नेतृत्व को चुनाव की राजनीति में उतरना पड़ा था, तब श्री महंत वो चाहते तो इसी छात्र संगठन के बेनर पर भी चुनाव लड़ सकते थे लेकिन उन्होंने प्रादेशिक राजनीति को छात्र राजनीति से अलग रखना ही बेहतर समझा था और आसू के स्थान पर अगप के नाम से नई पार्टी का पंजीकरण करवाया गया। ये बात 1985 की है। इस साल दो महत्वपूर्ण काम हुए एक विधान सभा चुनाव में अगप ने कांग्रेस समेत सभी पार्टियों का सूफड़ा ही साफ़ कर दिया था।
वैसे भी तब कांग्रेस के अलावा और कोई महत्वपूर्ण पार्टी असम में थी नहीं। कांग्रेस के सफाए के बाद असम में प्रफुल कुमार महंत के नेतृत्व में अगप की प्रचंड बहुमत वाली सरकार वजूद में आयी थी . इस सरकार ने वायदे के मुताबिक़ केंद्र की तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार के साथ राज्य में राजनीतिक स्थिरता और स्थायी शांति की स्थापना की गरज से एक समझोता किया था जिसे असम समझौता नाम दिया गया था।इस समझौते में इस सीमान्त राज्य की कमोबेस सभी समस्याओं को हल करने के प्रावधान उपलब्ध कराये गए थे। असम के सन्दर्भ में इसे मील का पत्थर माना जाता है और जब कभी जरूरत होती है, इसी समझौते की तरफ इशारा किया है। इस बार असम विधान सभा का चुनाव इसलिए भी ख़ास है क्योंकि इस बार जिस पार्टी को व्यवस्था के प्रति जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है वो न तो कांग्रेस जैसी है और न ही अगप जैसी क्षेत्रीय पार्टी। इस बार व्यवस्था विरोधी नाराजगी का सामना कर रही है जो पांच साल पहले कांग्रेस को हरा कर विजयी बनी थी।2016 के चुनाव में हुई भाजपा की इस जीत में अगप और कांग्रेस के बागियों की भी बहुत बड़ी भूमिका थी। इन दोनों ही पार्टियों के कई नेता तब भाजपा में शामिल हुए थे। राज्य मंत्री मंडल के ज्यादातर सदस्य इन्हीं दो पार्टियों के पूर्व सदस्य हैं .असम में विधान सभा की 126 सीट हैं। भाजपा ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिल कर कम से कम सौ सीट जीतने का लक्ष्य रखा है। ताजा राजनीतिक परिदृश्य के मुताबिक राज्य में भाजपा , कांग्रेस और अगप के बीच त्रिकोणीय मुकाबला है। तीनों ही पार्टियों को अपनी और अपने बल पर सौ फीसदी जीत का विश्वास नहीं है। भाजपा को व्यवस्था विरोधी नाराजगी का भय सता रहा है तो कांग्रेस दिग्गज नेताओं के अभाव से जूझ रही है। भाजपा जमीन से जुड़े अपने हेमंत बिस्वा जैसे जिन नेताओं पर भरोसा किये बैठी है वो भी उसके अपने नहीं हैं कांग्रेस से डेपुटेशन पर आये हैं , कब वापस चले जाएँ कुछ पता नहीं है। अगप में भी पहले जैसा जोश नहीं है।
इन हालात में असम का चुनाव इस बार दिलचस्प ही नहीं बल्कि अनिश्चय का प्रतीक बन गया है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गाँधी ने कुछ दिन पहले अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश भरने की कोशिश भी की लेकिन दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उनकी कोशिश कितनी कामयाब होगी। भाजपा केंद्र सरकार द्वारा लागू किये गए नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर जैसे उपायों के जरिये मतदाताओं का धर्म के आधार पर बंटवारा करने की कोशिश में लगी हुई है उसे उम्मीद है कि राज्य में मुस्लिम वोटों के विभाजन से हिन्दू वोटों का उसके पक्ष में ध्रुवीकरण होगा और उसे फायदा मिलेगा।
लेकिन कांग्रेस और मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पार्टी आल इण्डिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के बीच हुए समझौते से भाजपा की परेशानी बढ़ गई है। उधर, नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध से जन्मी असम जातीय परिषद और रायजोर दल असमिया बहुल इलाकों में भाजपा के खिलाफ लोगों को एकजुट करने में जुट गई हैं।इस बीच बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट यानी BPF ने भी भाजपा गठबंधन से अलग होने का ऐलान कर दिया। इससे भाजपा की चिंता और बढ़ गई है ऐसा लग रहा है कि असम में इस बार का मुकाबला पार्टियों के गठबंधन के बीच होगा।एक तरफ भाजपा ,असम गण परिषद और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल पार्टी को साथ लेकर चुनाव में उतरेगी वहीं कांग्रेस ने 6 राजनीतिक दलों के साथ महागठबंधन बनाया है। इस महागठबंधन में एआईडीयूएफ समेत सभी वामदल भी शामिल है। असम की कुल साढे तीन करोड़ आबादी में 34% मुसलमान हैं और 33 मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटें ऐसी है जहां मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका निर्णायक होती है। इस लिहाज से भी इस बार का असम चुनाव और मुद्दे दोनों ही बहुत दिलचस्प हो गए हैं।
ताजा संस्करण देखा , अच्छा लगा वाकई ताजा जानकारियाँ हैं बधाई !