बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की समाजशास्त्र विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर प्रतिमा गोंड ने स्त्री के नाम से पूर्व लगने वाला उपसर्ग कुमारी अथवा श्रीमती (जो उनकी वैवाहिक स्थिति की परिचायक है) को आर्टिकल 21 और 14 के विरुद्ध मानते हुए 24 जनवरी 2023 को सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी जिस पर दिनांक 15 मई को सुनवाई हुई।
इस केस में आए निर्णय के संदर्भ में दिनांक 18 मई को पराड़कर भवन,काशी पत्रकार संघ, वाराणसी में एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य रुप से प्रतिमा गोंड, इंदु पांडे, प्रज्ञा सिंह, नीति, धनन्जय और राजेश उपस्थित रहे।
इस बैठक में जो विचार रखे गए उनमें – लैंगिक असमानता के कारक कई बार अति सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष होने के कारण सामाजिक संरचना में आसानी से विलीन हो जाते हैं और इन्हें प्रथम दृष्टया में समझना मुश्किल होता है। परन्तु स्त्री असमानता को पोषित करने में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसमें से एक कारक है मनुष्य की प्रथम पहचान अर्थात उसका नाम । पुरुष तो अपने नाम के साथ समृद्ध खड़ा है परंतु स्त्री के नाम से पूर्व ही उसकी प्रथम पहचान बनती है – वैवाहिक स्थिति, जिसे नाम से पूर्व कुमारी या श्रीमती लगाकर स्थापित किया जाता है।
प्रतिमा गोंड ने कहा कि इस अतः इस तथ्य को आधार बनाते हुए जनहित याचिका दायर की गयी जिसको माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह कहते हुए डिसमिस किया गया है कि ” यह किसी व्यक्ति के चयन पर निर्भर है कि वह किसी उपसर्ग का प्रयोग करे अथवा नहीं, इसलिए इसपर सामान्य आदेश नहीं पारित हो सकता है।”
गोंड ने कहा कि मेरी जानकारी के अनुसार माननीय सर्वोच्च नयायालय से जुड़े दस्तावेज़ में उपसर्ग के संदर्भ में प्रथम बार इस प्रकार की बात आई है | यदि इस वक्तव्य पर ध्यान दें तो पाते है कि उपसर्ग के चयन की स्वतन्त्रता पहले से ही संविधान द्वारा निर्दिष्ट है लेकिन विडंबना है कि चयन की स्वतन्त्रता पर आधारित होने के बावजूद ऐसा व्यवहार में नहीं पाया जाता है कि अगर कोई व्यक्ति न चाहे तो अपने नाम के पूर्व उपसर्ग नहीं लगाये । लगाने की इच्छा के लिए तो विकल्प है परन्तु इच्छा नही होने पर क्या विकल्प है | अब शासन, प्रशासन, सरकार एवं समाज की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो ऐसी परिस्थिति तैयार करें जिसमें हमारे चयन की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो सके क्योंकि अभीतक तो सामान्यतः फार्म इत्यादि भरने पर उपसर्ग का कॉलम (अर्थात कुमारी/श्री/श्रीमती) पहले से ही दिया रहता है। यहाँ मामला थोड़ा अजीब है क्योंकि चयन की स्वतंत्रता विकल्पों के साथ नहीं मिल सकती। इसलिए इच्छा व चयन की स्वतंत्रता हेतु सभी प्रकार की सरकारी या गैर सरकारी कार्यप्रणाली में या तो उपसर्ग के विकल्प को हटाया जाए या विकल्पों में “उपरोक्त कोई नही” जैसा एक अलग कालम बनाये। अब यह तय करना सरकार एवं शासन का कार्य है।
आगे की रणनीति के बारे में बताते हुए प्रतिमा गोंड ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और लैंगिक समानता के पैरोकारों के साथ बातचीत के आलोक में हम संसद में बैठे अपने सक्षम जन प्रतिनिधियों, संस्थाओं, लोगों को पत्र लिखकर उनसे संपर्क इत्यादि करके इस विषय पर चर्चा करने और पहलकदमी का आह्वान करेंगे । साथ ही इस मूल केस में उच्चतम न्यायालय में रिव्यु पेटिशन दायर करने के लिए भी विचार बनाया जा रहा है|
इस संदर्भ में बैठक के माध्यम से सरकार, शासन, प्रशासन, आदरणीय जन प्रतिनिधयों, समाज एवं मीडिया से अनुरोध किया गया कि वे स्त्री की गरिमापूर्ण व संविधानिक उपस्थिति एवं स्त्री के नाम के साथ पहचान की इस मुहीम आगे ले जाने में सहयोग प्रदान करें।
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