नई दिल्ली: सियासी सिख कैदी रिहाई मोर्चा (दिल्ली) के नेताओं ने खुलासा किया है कि कथित तौर पर आतंकवादी गतिविधियों या जघन्य अपराधों में शामिल रहे व्यक्ति को भी भारतीय संविधान के दायरे में आती ‘आपराधिक प्रक्रिया संहिता’ अपनी सज़ा समीक्षा के लिए अपील दायर करने का अधिकार देती है। हालांकि आमतौर पर यह प्रचारित किया जाता है कि ऐसे कैदियों के पास सजा समीक्षा का विकल्प नहीं होता है। रिहाई मोर्चा के कार्यकारिणी बोर्ड सदस्य डॉ. परमिंदर पाल सिंह, चमन सिंह शाहपुरा, दलजीत सिंह और अवतार सिंह कालका ने मीडिया से बात करते हुए दावा किया कि दिल्ली सरकार का सज़ा समीक्षा बोर्ड कानूनी मानदंडों की अनदेखी करते हुए कथित तौर पर सभी कैदियों के लोकतांत्रिक व मानवाधिकारों का हनन कर रहा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के 2003 के आदेश को सार्वजनिक करते हुए मोर्चा नेताओं ने बताया कि आयोग ने अपने आदेश में भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ‘आपराधिक प्रक्रिया संहिता’ की धारा 432, 433 और 433 ए के तहत उम्रकैद की सजा काट रहे सभी कैदियों को समय से पहले रिहाई करवाने के लिए तय मंचों पर अपील करने का अधिकार दिया हुआ है। इसके अलावा समय से पहले रिहाई की पात्रता और नियमों का भी बाखूबी उल्लेख किया है। आयोग ने विभिन्न श्रेणियों में 7, 10, 14 और 20 साल के कारावास को आजीवन कारावास के रूप में निर्धारित किया है। लेकिन सिख कैदियों को 25-30 साल की सजा काटने के बावजूद भी इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है।
रिहाई मोर्चे नेताओं ने बताया कि आतंकवादी गतिविधियों या जघन्य अपराधों में शामिल रहे व्यक्ति को भी समय से पहले रिहाई की मांग करने का अधिकार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 20 साल की सजा काटने के बाद दिया हुआ है। दिल्ली में इसी आधार पर 2004 में दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा सजा समीक्षा बोर्ड का गठन किया गया था। सज़ा समीक्षा बोर्ड के गठन से संबंधित दस्तावेज सार्वजनिक करते हुए नेताओं ने कहा कि लगातार आम आदमी पार्टी के समर्थक दावा कर रहे हैं कि दिल्ली सरकार के पास कैदियों को रिहा करने का अधिकार नहीं है। हालांकि बोर्ड की संगठनात्मक संरचना में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दिल्ली के जेल मंत्री इसके चेयरमैन होंगे। 2011 में जेल विभाग की तत्कालीन प्रमुख और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की अध्यक्षता में इसी सज़ा समीक्षा बोर्ड ने भाई गुरदीप सिंह खैरा की रिहाई के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। लेकिन कर्नाटक में एक और मामला लंबित होने के कारण उन्हें अभी तक रिहा नहीं किया गया है। सज़ा समीक्षा बोर्ड की हर 15 दिनों में बैठक होनी आवश्यक है, लेकिन दिल्ली सरकार मानवाधिकारों की परवाह किए बिना विसंगतियां पैदा करने से पीछे नहीं हट रही है और 24 बैठकों के मुकाबले साल में केवल 3-4 बैठकें की जा रही है।नतीजतन कैदियों के लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।
भाई दविंदर पाल सिंह भुल्लर के मामले में केजरीवाल ने 2014 में उनकी रिहाई के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था। लेकिन अब इनकी सरकार के सजा समीक्षा बोर्ड ने भाई भुल्लर की रिहाई के प्रस्ताव को चार बार खारिज कर दिया है।