ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: मौजूदा साल 2021 में हो रहे विधानसभा चुनाव के तीन चरण संपन्न हो चुके हैं 10 अप्रैल को चौथे चरण का चुनाव होना है। चौथे चरण का यह चुनाव केवल बंगाल में होना है। इससे पहले तीन चरणों में दिनांक 27 मार्च , 1 अप्रैल और 6 मई को संपन्न चुनाव में तो असम ने भी बंगाल का साथ दिया था। असम के साथ ही केरल , तमिलनाडु और पुदुचेरी में भी 6 अप्रैल को बंगाल और असम के साथ ही एक ही चरण में चुनाव संपन्न कराये गए थे ,लेकिन तीसरे चरण के चुनाव के बाद बंगाल को एकला चलो की नीति पर अमल करते हुए 8 चरण के चुनाव का यह सफ़र अकेले ही तय करना पड़ेगा। बंगाल में 10 अप्रैल के बाद भी 17 , 20 ,22 और 29 अप्रैल को अलग – अलग चरणों में चुनाव संपन्न होने हैं। बंगाल इस देश का अपने किस्म का एक अकेला ही राज्य है।
राजनीति के सन्दर्भ में ही नहीं। धार्मिक और सामाजिक चेतना के सन्दर्भ में भी देखें तो बंगाल देश के अन्य सभी राज्यों से अलग ही दिखाई देता रहा है। बानगी के रूप में कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत को यूरोप से मिलाने वाला यही बंगाल राज्य है। इसी राज्य के कोलकाता शहर को अंग्रेजों ने भारत की राजधानी बनाया था वो बात अलग है कि बाद में अंग्रेजों ने ही राजधानी का दिल्ली तबादला कर दिया, के सन्दर्भ में कहा जाता है कि अंग्रेजी साहित्य में स्वच्छन्दतावाद (रोमेंटिशिज्म} या यूँ कहें छायावाद की जो धारा उन्नीसवीं सदी में शुरू हो चुकी थी वो बंगाल के रास्ते ही बीसवीं सदी में भारत पहुँची थी। इसी बंगाल ने रवीन्द्रनाथ टैगोर के माध्यम से भारत को पहला नोबल पुरस्कार दिलाया था। बाद में बंगाल के अमर्त्य सेन और एक अन्य भारतीय को नोबेल मिला था।
बंगाल ने हमको स्वामी विवेकानंद जैसा अंतर्राष्ट्रीय सन्यासी दिया। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने हिंदुत्व की महानता के सन्दर्भ में मानवता का जो पाठ पढ़ाया उसे वैश्विक मान्यता मिली। राजा राम मोहन रॉय और ईश्वर चन्द्र विद्यासागर सरीखे समाजसेवी इसी बंगाल ने दिए। एक लम्बी फेहरिश्त है बंगाल के योगदान की। इसी योगदान के सन्दर्भ में ही भारत का यह बंगाल राजनीतिक दृष्टि से भी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी बंगाल में मुस्लिम लीग और कट्टर हिंदूवादी पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई थी।
आजादी के बाद की राजनीति देखें तो जो बंगाल किसी जमाने में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था , आज उसी बंगाल में कांग्रेस के लिए पहचान का संकट पैदा हो गया है। कांग्रेस ही क्यों , कई दशक तक कांग्रेस का विरोध करती रही जिन वामपंथी पार्टियों ने बंगाल की सत्ता कब्जे में कर ली थी, और कई दशक तक जिस वाममोर्चे ने यहाँ राज किया था आज उसे भी सत्ता में आने के लिए कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ना पड़ रहा है। मजेदार बात यह भी है कि इस चुनाव में कांग्रेस और वाममोर्चा उसी ममता बनर्जी की नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ चुनाव मैदान में हैं जो कुछ दशक पहले तक खुद भी कांग्रेस में ही थी। ममता , वाममोर्चे को राजनीतिक प्रतिद्वंदी नहीं अपना व्यक्तिगत दुश्मन मानती हैं। वामपंथी पार्टियों के प्रति इसी नजरिए के चलते ही ममता कांग्रेस से अलग हुई थीं और आज कांग्रेस और वाममोर्चा उनके खिलाफ मुख्य प्रतिद्वंदी बने हुए हैं इस बार कहानी में कुछ घुमाव भी आया है। ममता बहुत भरोसेमंद तो कभी रही नहीं उत्तर प्रदेश में जो राजनीतिक भाव – ताव बसपा सुप्रीमो मायावती ने किसी जमाने में बना रखे थे वैसे ही भाव ममता ने बंगाल में बना कर रखे हैं। मायावती ने भी सरकार में बने रहने के लिए कभी अपनी धुर प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी के साथ तो कभी कांग्रेस के साथ तो कभी भाजपा के साथ सम्बन्ध बनाए थे लेकिन आज मायावती किसी के साथ नहीं हैं।