ज्ञानेन्द्र पाण्डेय: संवैधानिक मान्यता के तहत यह माना जाना चाहिए कि हमारा चुनाव आयोग निष्पक्ष है। कहना गलत नहीं होगा कि काफी हद तक भारत का निर्वाचन आयोग निष्पक्ष रहा भी है, कभी – कभी बीच – बीच में इसकी निष्पक्षता पर सवाल भी उठते रहे हैं लेकिन थोड़े दिन बाद ये विवाद ठन्डे पद जाते हैं। इस बार इन विवादों पर नए सिरे से चर्चा हो रही है और चर्चा भी ऐसी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही है।
हाल के ही दो उदाहरण असम और बंगाल चुनाव के दौरान देखने को भी मिले एक चुनाव में चुनाव आयोग की एक टीम ने ही एक राजनीतिक दल के वाहन में ईवीएम मशीन ले जाने से भी संकोच नहीं किया तो दूसरी घटना में चुनाव आयोग ने चुनाव में हो रही धान्ध्ले बाजी की शिकायत करने वाली पार्टी की नेता को ही दोषी करार दे दिया। शिकायतकर्ता ये महिला नेता और कोई नहीं खुद पश्चिम बंगाल की कार्यवाहक मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी हैं। गौरतलब है कि विगत गुरूवार 1 अप्रैल को ममता बनर्जी ने नंदी ग्राम चुनाव में हुई तथाकथित धांधली को लेकर चुनाव आयोग से शिकायत की थी। इन शिकायतों के जवाब में चुनाव आयोग ने शिकायतों की जांच करने के बजाय ममता बनर्जी को ही कई मामलों में दोषी करार दे दिया। ममता ने यह मामला अदालत में ले जाने की चुनौती दी है। कई बार ऐसा भ्रम होने लगता है कि चुनाव आयोग केंद्र सरकार के प्रवक्ता के रूप में काम कर रहा है। पांच राज्यों में हो रहे विधान सभा के ताजा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग से जुड़े इस तरह के ज्यादातर मामले पश्चिम बंगाल में ही देखने को मिल रहे हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि केंद्र और देश के ज्यादातर राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा को इन चुनाव में सबसे ज्यादा चुनौती बंगाल से ही मिल रही है और इसकी एक मात्र वजह भी ममता बनर्जी ही हैं। ममता अपने आक्रामक और मुंह फट अंदाज के लिए प्रसिद्द हैं और हाल ही में उन्होंने चुनाव आयोग के गठन को लेकर भी कुछ सवाल उठाये हैं उसकी वजह से भी केंद्र सरकार और उसके एजेंट के रूप में काम कर रहे चुनाव आयोग का ममता से नाराज होना स्वाभाविक है। शायद इसीलिए चुनाव आयोग की ममता पर आजकल ख़ास कृपा दिखाई दे रही है। ममता का यह सुझाव केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को अखरने वाला ही लगेगा कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए भी वैसा ही कोलेजियम होना चाहिए जैसा उच्च न्यायालयों और देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए गठित किया जाता है।
ममता की तरफ से उठाया गया यह एक ऐसा मुद्दा है जो हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए बेहद अहम हो गया है। इसकी अहमियत पहले कभी इतनी नहीं थी जितनी आज है। पहले भी कभी-कभार निर्वाचन आयोग के निर्णयों पर सवाल उठे थे, पर कुल मिलाकर आयोग ने अपनी साख बनाए रखी। इसकी गिनती देश की चुनिंदा ऐसी संस्थाओं में होती रही जिन्होंने अपनी विश्वसनीयता पर आंच नहीं आने दी और अपने काम से देश के भीतर ही नहीं, देश से बाहर भी अपना मान बढ़ाया। लेकिन हाल में हुए लोकसभा चुनावों और अब विधानसभा के ताजा चुनाव के दौर में इस शीर्ष संवैधानिक संस्था ने कई ऐसे निर्णय लिए हैं जिससे निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता और व्यवहार पर रह-रह कर जैसे सवाल उठे हैं उसकी इसकी साख पर बट्टा भी लगा है। अगर अंपायर या रेफरी की निष्पक्षता पर लोगों का भरोसा डिग जाए तो जहां हारने वाली टीम को अपनी हार का ठीकरा कहीं और फोड़ने का मौका मिल जाएगा, वहीं जीतने वाली टीम की कामयाबी को भी हमेशा ही शक की निगाह से देखा जाएगा।
इसलिए चुनाव आयोग की निष्पक्षता सुनिश्चित करना चुनाव का सबसे बुनियादी तकाजा है। पहले चुनाव आयोग एक सदस्यीय हुआ करता था। फिर इसे तीन सदस्यीय बनाया गया, इस तर्क पर कि दो और सदस्य रहने से मुख्य निर्वाचन आयुक्त को निर्णय प्रक्रिया में और निर्णयों के क्रियान्वयन में मदद मिलेगी। निर्वाचन आयुक्तों के चयन की मौजूदा प्रणाली यह है कि प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति उनकी नियुक्ति करते हैं। जाहिर है, व्यवहार में यह प्रणाली केंद्र में सत्तारूढ़ दल की पसंद के लिए पूरी गुंजाइश रखती है. अलबत्ता निर्वाचन आयुक्त के तौर पर नियुक्त किए गए नौकरशाह नियुक्ति के बाद राष्ट्रपति या सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं होते, न ही उन्हें सरकारी निर्णय से हटाया जा सकता है। यही उनकी स्वतंत्रता का आधार है। यही नहीं, निर्वाचन आयोग के पहले के कार्यकाल, छिटपुट विवादों को छोड़ कर, इस बात की गवाही देते हैं कि प्रधानमंत्री की सिफारिश पर चुने जाने की वजह से आयुक्तों की स्वतंत्रता प्रभावित नहीं हुई। लेकिन अब आयोग की साख जहां पहुंच गई है। इसलिए नियुक्ति प्रक्रिया पर पुनर्विचार किया जाना जरूरी हो गया है।
ममता बनर्जी ने कॉलेजियम प्रणाली का जो सुझाव दिया है वह पहली बार सामने नहीं आया है। आठ साल पहले, खुद भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी यह सुझाव दे चुके हैं। वर्ष 2012 में तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर उन्होंने निर्वाचन आयुक्तों तथा नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक (सीएजी) की नियुक्ति के लिए कोलेजियम का सुझाव दिया था, जिसमें प्रधानमंत्री, कानूनमंत्री, संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के नेता और प्रधान न्यायाधीश सदस्य हों, लेकिन तब कांग्रेस ने इस सुझाव को नजरअंदाज कर दिया था। अलबत्ता वाम मोर्च और कांग्रेस के सहयोगी दल द्रमुक ने आडवाणी के सुझाव का स्वागत करते हुए उसे लागू करने की मांग की थी। अगर यूपीए सरकार ने चाहा होता, तो उस समय निर्वाचन आयोग के लिए कॉलेजियम प्रणाली पर आसानी से सर्वसम्मति बन जाती। कॉलेजियम प्रणाली का प्रस्ताव आज और भी प्रासंगिक है, क्योंकि आयोग से निष्पक्षता की उम्मीद को ऐसी जबरदस्त ठोस पहले कभी नहीं लगी थी। फिर, निर्वाचन आयोग ही क्यों, सीएजी और राज्यपाल जैसे अन्य संवैधानिक पदों के लिए भी, नियुक्ति प्रक्रिया को सरकार (या सत्तारूढ़ दल) की पसंद पर निर्भर न रख कर स्वायत्त बनाने की जरूरत है। इस चुनाव से निकला चुनाव-सुधार का दूसरा अहम मुद्दा यह है कि जिस तरह उम्मीदवारों के लिए खर्च की सीमा तय है उसी तरह पार्टियों के भी खर्च की सीमा तय होनी चाहिए। यह सही है कि तमाम उम्मीदवार अपने चुनावी खर्चों का सही ब्योरा नहीं देते। लेकिन इसे कड़ाई से लागू करने और व्यावहारिक बनाने की जरूरत है, न यह कि यह छूट कानूनन कायम रहे कि कोई पार्टी चाहे तो कितना भी खर्च कर सकती है. चुनावी खर्च का चुनाव में साधारण लोगों की भागीदारी, लोक प्रतिनिधित्व के स्वरूप (चरित्र) और विधायिका को धनबल के प्रभाव से बचाने के तकाजे से सीधा वास्ता है। लेकिन हालत यह है कि चुनावी मैदान में संसाधनों की गैरबराबरी में जमीन-आसमान का फर्क आ चुका है।
छोटी पार्टियों, निर्दलीय उम्मीदवारों और साफ-सुथरी तथा वैकल्पिक राजनीति का सपना लेकर कभी-कभार या कहीं-कहीं चुनाव मैदान में उतरने वाले समूहों के लिए चुनाव दिनोंदिन चक्रव्यूह बनता गया है। दूसरी तरफ कॉरपोरेट कुबेरों से जिनके तार जुड़े हैं और चुनाव जीतने के लिए जो किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं उन्हें यह रास आता है कि चुनाव, खर्च का खेल बना रहे। लेकिन यह बड़ी ही चिंताजनक स्थिति है। पार्टियों के चुनावी खर्च की हदबंदी होनी चाहिए। अगस्त 2018 में खुद चुनाव आयोग ने इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों के बीच सहमति बनाने की पहल की थी। लेकिन मुख्य आयुक्त के पद से ओपी रावत की विदाई के बाद यह पहल जहां की तहां रह गई। इस दिशा में फिर से कोशिश होनी चाहिए। संसाधनों की गैर-बराबरी की बहस में यह सुझाव भी जब-तब आता रहा है कि चुनाव खर्च का बोझ सरकार (राज्य) वहन करे, यानी इसके लिए स्टेट फंडिंग की व्यवस्था हो। चुनाव सुधार के लिए बनी इंद्रजीत गुप्त समिति (1998) और चुनाव संबंधी कानूनों के सुधार पर विधि आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट (1999) में स्टेट फंडिंग के सुझाव को आंशिक रूप से स्वीकार किया था, इस शर्त के साथ कि ऐसी सहूलियत सिर्फ एक न्यूनतम वोट-प्रतिशत पाने वाले दलों के लिए ही हो, साथ ही, उन दलों पर आंतरिक चुनाव कराने जैसे नियमन के कुछ नियम-कायदे लागू किए जाए. पर प्रशासनिक सुधार और पुलिस सुधार की तरह चुनाव सुधार संबंधी रिपोर्टें भी ठंडे बस्ते में डाल दी गईं।
हाल के लोकसभा चुनाव से निकला तीसरा बड़ा मुद्दा यह है कि इलेक्टोरल बांड की व्यवस्था खत्म हो। राजग सरकार के पिछले कार्यकाल में की गई इस व्यवस्था के चलते चुनाव को धनबल से असीमित रूप से प्रभावित करने का रास्ता खुल गया है। यह सही है कि पहले भी कोई आदर्श स्थिति नहीं थी। लेकिन कोई पार्टी पैसे के कारण किसी की कठपुतली न बन जाए, इसे रोकने के लिए कुछ तजवीज की गई थी। यह प्रावधान था कि कोई कंपनी पिछले तीन साल के अपने शुद्ध औसत मुनाफे के साढ़े सात फीसदी से ज्यादा चंदा नहीं दे सकती। लेकिन इलेक्टोरल बांड आने से अब ऐसी कोई बंदिश नहीं है, यानी कोई कंपनी चाहे कितना भी चंदा किसी को दे सकती है। फिर, इलेक्टोरल बांड ने पूरे लेन-देन को छिपाए रखने की सुविधा कर दी है। विडंबना यह है कि छिपाने की छूट के पीछे भी पारदर्शिता की दलील दी गई! और चुनावी प्रावधान से संबंधित विधेयक को धन विधेयक (मनी बिल) के रूप में पारित कराया गया (जोकि नियमतः नहीं होना चाहिए था) ताकि राज्यसभा उसके आड़े न आए! इलेक्टोरल बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ की कीमतों में जारी किए गए थे। पंचानब्बे फीसद से ज्यादा बांड दस लाख और एक करोड़ की कीमतों वाले बिके. इससे समझा जा सकता है कि बांड के रूप में चंदा देने वाले किस वर्ग के लोग रहे होंगे। फिर, अनुमान है कि इलेक्टोरल बांड के रूप में नब्बे फीसद से ज्यादा रकम एक ही पार्टी को गई। अब वह पार्टी किसका हित साधेगी? जाहिर है, इलेक्टोरल बांड के प्रावधान ने चुनाव को पूरी तरह गैर-पारदर्शी और धन का अनियंत्रित खेल बना दिया है। साथ ही, नीति निर्माण की प्रक्रिया को भी, खासकर आर्थिक फैसलों, पर्यावरणीय मंजूरी, श्रम कानून आदि को परदे के पीछे से प्रभावित किए जाने का खतरा पैदा कर दिया है।
लिहाजा, इलेक्टोरल बांड को खत्म किया जाना चाहिए यहां जो तीन मुद्दे उठाए गए हैं उन्हें लोकप्रिय मांग और एक जन-अभियान में बदलने की जरूरत है। लोकतंत्र का मतलब बस चुनाव संपन्न हो जाना नहीं है, लोकतंत्र का मतलब यह भी है कि तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं बिना किसी दबाव के काम करें और उनकी विश्वसनीयता पूरी तरह बनी रहे।