प्रयागराज: यूपी विधानसभा चुनाव में सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन (2005 के पहले जैसी) का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, बिजली, खेती-किसानी आदि मुद्दों के बीच प्रदेश में इस बार यह मुद्दा भी है। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिससे सीधे तौर पर राज्य के करीब 28 लाख कर्मचारी, शिक्षक और पेंशनर्स जुड़ रहे हैं। इन्हें सिर्फ 28 लाख मान लेना ठीक नहीं होगा। यह शिक्षित वर्ग है समाज में राय कायम करता है। समाज में ना सही यदि परिवार में भी इन्होंने एक राय बना ली तो सीधे एक करोड़ से अधिक वोटर इससे प्रभावित दिखेंगे।
पुरानी पेंशन बहाली का सपा के वादा करने के बाद से राजनीतिक माहौल गर्म हो गया है। राज्य कर्मचारी चुनावी तंत्र में सबसे मजबूत स्तंभ बनकर खड़े रहते हैं, चाहे वह सरकारी अध्यापक हो, लेखपाल हो, सिपाही हो या अधिकारी वर्ग हो, लेकिन इतना साफ है कि यह बड़ा दांव कर्मचारियों और शिक्षकों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। अब यह मुद्दा कितना असरदार होगा और चुनाव को किस ओर ले जाएगा, इसके लिए 10 मार्च का इंतजार करना होगा।
ये कर्मचारी लंबे समय से पुरानी पेंशन योजना की बहाली की मांग कर रहे हैं। गुरुवार को सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने वादा किया कि अगर सूबे में उनकी सरकार बनी तो पुरानी पेंशन लागू की जाएगी। इसके पहले सीएम योगी आदित्यनाथ दिसम्बर 2018 में पुरानी पेंशन बहाली पर विचार कर अपनी रिपोर्ट देने के लिए एक कमेटी बनाई थी
सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की ओर से पुरानी पेंशन बहाली की घोषणा को लेकर सियासत तेज हो गई है। शिक्षकों और कर्मचारियों का एक वर्ग इस घोषणा को उम्मीदों भरी नजर से देख रहा है। साथ ही इसे कर्मचारी संघर्षों की जीत बता रहा हैं। वहीं बड़ी संख्या ऐसे शिक्षकों और कर्मचारियों की भी है, जो इसे महज चुनावी घोषणा मान रहे हैं।
पुरानी पेंशन बहाली के लिए अटेवा की ओर से राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया गया। कर्मचारी, शिक्षक, अधिकारी पेंशनर्स अधिकार मंच का भी गठन किया गया है। इनके अलावा शिक्षकों और कर्मचारियों के अलग-अलग संगठनों की ओर से भी आंदोलन जारी है। इन आंदोलनों के बीच सपा की ओर से पुरानी पेंशन की बहाली की घोषणा से राजनीतिक गलियारे के अलावा शिक्षकों एवं कर्मचारियों के बीच भी बहस शुरू हो गई है। अटेवा के प्रदेश संगठन मंत्री अशोक कनौजिया का कहना है कि अभी तक राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे से दूरी बना रखी थी। अखिलेश यादव की घोषणा से उम्मीद जगी है। उनका कहना है कि हालांकि मुलायम सिंह यादव के समय में ही एनपीएस लागू हुआ था। ऐसे में कई तरह के सवाल हैं लेकिन अब शिक्षकों और कर्मचारियों का दबाव बढ़ गया है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि सपा वादा पूरा करेगी।
कुछ केवल चुनावी घोषणा मानते हैं
कर्मचारी, शिक्षक, अधिकारी पेंशनर्स अधिकार मंच के वरिष्ठ प्रदेश उपाध्यक्ष राजेंद्र त्रिपाठी का कहना है कि अखिलेश यादव की घोषणा का हम स्वागत करते हैं। पेंशन राज्य का मुद्दा है। इसलिए उम्मीद करते हैं कि यह व्यवस्था लागू होगी। वहीं एक शिक्षक नेता इसे सिर्फ चुनावी घोषणा मानते हैं। वह कहते हैं कि केंद्र में लागू होने के बाद सबसे पहले उत्तर प्रदेश में यह लागू हुआ और उस समय मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। इसके अलावा 2016 में अखिलेश यादव सरकार में आंदोलन के दौरान लाठीचार्ज में शिक्षक की मौत हो गई थी।
शिक्षकों और कर्मचारियों की ओर से पुरानी पेंशन की लगातार मांग की जा रही है। इसी का दबाव है कि एनपीएस में जमा होने वाली सरकार की हिस्सेदारी को 10 से बढ़ाकर 14 प्रतिशत कर दिया गया है। कई अन्य संशोधन भी किए गए हैं। आगे भी पुरानी पेंशन की मांग उचित फोरम पर उठाई जाएगी।
पुरानी पेंशन को लेकर सोशल मीडिया पर भी बहस छिड़ गई है। शिक्षकों के एक ग्रुप पर जारी बहस में एक वर्ग अखिलेश यादव की घोषणा के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है तो कई विरोध में हैं। शिक्षकों का कहना है कि सांसद रहते हुए योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य भी इसकी वकालत कर चुके हैं लेकिन सरकार बनने के बाद दोनों नेता इसे भूल गए। अब अखिलेश यादव ने भी वही तीर छोड़ा है।तमिलनाडु में डीएमके ने भी चुनाव से पहले पुरानी पेंशन लागू करने का वादा किया था लेकिन सरकार बनने के बाद धन की कमी बताकर मामला केंद्र के हवाले कर दिया गया। एक शिक्षक का यह भी कहना है कि पश्चिम बंगाल में पुरानी पेंशन इसलिए लागू है कि क्योंकि वहां 2020 तक पांचवां वेतन आयोग लागू रहा। छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद वहां भी स्थिति बदल गई।
सपा की ओर से पुरानी पेंशन बहाली की घोषणा के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संघटक कॉलेजों के शिक्षकों ने भी मांग तेज कर दी है।