हमने अपने जीवन में जब मुख्यमंत्री शब्द समझा तो सामने पंडित नारायण दत्त तिवारी को पाया। नाम के साथ ‘पंडित’ की संज्ञा का प्रयोग भली भांति सोचकर कर रहा हूं। जब तिवारी जी के निधन का अलर्ट हमें मिला, उस वक्त हम अपने बास के साथ दिल्ली के एक पंचसितारा होटल में कुछ जरूरी चर्चा कर रहे थे। इस खबर को कितनी महत्ता से लेना है, इस पर हमने टीम को निर्देश जारी किए तो हमारे साथ बैठे सहयोगी ने कुछ आपत्ति की मगर हमारे सीएमडी ने उनकी महत्ता एक शब्द में इंगित कर दी कि एनडी बड़े व्यक्तित्व थे।
पंजाब-हरियाणा के चैनल और अखबारों के लिए यह खबर बड़ी नहीं थी मगर जिनको समझ थी उन्होंने प्रमुखता दी। एनडी टीआरपी गेम से ऊपर हैं। यह भी सच है कि नारायण दत्त तिवारी ‘एनडी तिवारी’ को नई या अधेड़ होती पीढ़ी कायदे से नहीं जानती भी नहीं है, क्योंकि ज्ञान डिग्रियों में नहीं होता। हमने बचपने में एक कद्दावर मुख्यमंत्री को देखा था, वैसा दूसरा मुख्यमंत्री नहीं देखा। दोबारा बतौर पत्रकार उनको देखा जब हमें उत्तराखंड में काम करने का मौका मिला मगर तब वह उतने चुस्त नहीं दिखते थे, जितना बचपन में देखा था। हमारा विश्वास है कि अगर वह देश के प्रधानमंत्री बनते तो उन तमाम लोगों का खाता भी नहीं खुलता जिन्होंने देश का बेड़ा गर्क किया।
हम वापस मुद्दे पर लौटते हैं कि हमने ‘पंडित’ की संज्ञा का प्रयोग क्यों किया? असल में वह पंडित यानी विद्वान थे। इतने विद्वान कि जिस विषय पर चर्चा करेंगे उस पर नपा-तौला जवाब मिलेगा जिसकी काट संभव नहीं। वह भूत और वर्तमान के ही नहीं बल्कि भविष्य दृष्टा थे। अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के साथ ही कानून के भी विशेषज्ञ थे। जनता और सरकारी मशीनरी के बीच कैसे सम्मानजनक संतुलन बनाकर नैतिक शासन चलाया जाए, उन्हें खूब आता था। इसकी ही नतीजा एनसीआर है। जो युवाओं का भविष्य है। गाजियाबाद जिला उन्होंने बनाया। नोएडा औद्योगिक क्षेत्र बनाकर उन्होंने दिल्ली से उजाड़े गए उद्योगों को बसाया। गुड़गांव और फरीदाबाद में औद्योगिक संभावनाओं के लिए वित्तीय मदद उन्होंने केंद्रीय वित्त मंत्री के रूप में दी। नतीजतन आज एनसीआर के बिना दिल्ली का कोई अस्तित्व नहीं है।
एनडी के मैत्री संबंधों को निभाने से लेकर उनके मानवीय दृष्टिकोण को निजी तौर पर हमने समझा। तमाम बड़े नेताओं को उनके शरणागत होते देखने का मौका मिला। यह उत्तराखंड और भारत देश का दुर्भाग्य ही था कि वह 1991 में चंद मतों से चुनाव हार गए, क्योंकि वह उस वक्त कांग्रेस के पीएम पद के उम्मीदवार थे। देश को नरसिंहाराव जैसा दुर्भाग्यपूर्ण दौर देखना पड़ा। उनके पांडित्य में ही तमाम सियासी जन पैदा हुए और पनपे। वैश्विक कूटनीति हो या फिर देशी सियासत, दोनों के महारथी होते हुए भी उन्होंने कभी दुरुपयोग नहीं किया। उनकी पत्नी डॉ. सुशीला तिवारी को हम देवी स्वरूप देखते क्योंकि उनकी प्रेरणा में एनडी बेहतर और ईमानदारी से करते थे। वह एक बड़े सियासतदां की पत्नी होकर भी इतनी सरल थीं कि उनका सुशीला नाम पर्यायवाची ही था। सेवा कार्यों में जुटे रहने के बाद भी उसके प्रचार के खिलाफ रहीं।
एनडी के साथ कभी भी भ्रष्टाचार शब्द का न नाता रहा और न ही किसी ने कभी सुना होगा। एनडी तीन बार यूपी के सीएम और एक बार उत्तराखंड के रहने के साथ ही केंद्र में कई बार अहम मंत्रालयों के मंत्री भी रहे। एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा, जब वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के टॉपर थे और फिर छात्रसंघ अध्यक्ष बनकर देश की आजादी की लड़ाई में कूदे तो अंग्रेजी पुलिस ने उन्हें इतना पीटा कि वह मर जाएं। उन्हें मरा समझकर पुलिस चली गई। एनडी को अस्पताल ले जाया गया तो वह बच गए, मगर उनको एक कान से सुनना बंद हो गया। सीएम रहने के दौरान एनडी के पास काम के लिए लोगों की भीड़ होती थी क्योंकि सीएम हाउस में कोई पाबंदी नहीं थी। कई बार सियासी मजबूरी वाले लोग आ जाते और एनडी कोई गलत काम नहीं करना चाहते थे तब वह उस शख्स को बहरे वाले कान में बात बताने को कहते। यह देखकर वह शख्स खुश होकर चला जाता कि उसका काम हो जाएगा मगर उसकी फाइल पर अफसर की आपत्ति लगी होती थी। जब वह व्यक्ति उनके पास आता तो वह कहते कि भाई क्यों तुम जेल जाने के चक्कर में हो, तुम भी फंसोगे और हमें भी फंसाओगे। पहले फाइल की आपत्तियां क्लियर करो।
एनडी से कई बार अंतरराष्ट्रीय विषयों पर बहुत कुछ जानने को मिलता। वह अर्थशास्त्र को समझाते हुए कहते थे कि यह बेहद अच्छे तरीके से लोगों को जीने में मदद करने का शास्त्र है। कम टैक्स ज्यादा, मुनाफा मगर ईमानदारी से। सही क्रियान्वयन हो तो कोई संकट नहीं आएगा। उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से देश की आर्थिक दशा को संभाला था। यही कारण था कि उन्हें उस दौर में उत्तर प्रदेश (यूपी) का विकास पुरुष संबोधित किया जाता था। आज भी हर जिले में उनका नीव पत्थर मिल जाएगा। उन्हें यूपी के आखिरी कांग्रेसी सीएम के तौर पर याद किया जाता है। देश के वित्त मंत्री की कुर्सी छोड़कर वह वहां तब पहुंचे थे जब यूपी पटरी से उतर चुका था। उन्होंने विपरीत हालात में भी उसे सुधारा। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब लखनऊ से 1991 का चुनाव लड़ने गए तो उन्होंने एनडी तिवारी से आशीर्वाद लिया। उनके पांव छूकर यही कहा था कि आपके आशीष के बिना मैं जीत नहीं सकता। एनडी ने श्रेष्ठता का परिचय देते हुए उत्तर दिया अब तुमको कोई हरा नहीं सकता। यह माना जाता था कि लखनऊ के एक बड़े हिस्से में एनडी के नाम पर लोग चुनाव जीत जाते हैं। लखनऊ के उत्तराखंड वासी उनके पक्के अनुयायी थे।
एनडी ने बतौर पत्रकार भी काम किया। प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विशेष तौर पर उन्हें नेशनल हेराल्ड संभालने का जिम्मा सौंपा। उनकी अगुआई में तीन भाषाओं में अखबार ने प्रगति की। उस दौरान उन्होंने एक आदर्श अखबार बनाने की दिशा में काम किया। उनकी निष्पक्षता के कारण कई कांग्रेसी नाराज होकर गए तो उन्होंने विनम्रता से कहा कि तो क्या आपकी मेहनत की कमाई के इस अखबार को बर्बाद हो जाने दूं। सियासी लोगों से रहा नहीं गया और एनडी हट गए। नतीजा यह हुआ कि अखबार नीचे और नीचे चला गया। उनकी विनम्रता और सहजता पूर्ण विद्वता को याद करके आज हमारी आंखें नम हैं। विनम्र श्रद्धांजलि!
जय हिंद।
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)