गुजरात विधानसभा का 15 वां चुनाव सिर पर हैं। इस पर देश-विदेश के लोगों की टिकी नज़रें अस्वाभाविक नहीं है। क्योंकि गुजरात, भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है। मोदी जी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा ) गुजरात में लगातार चार बार जीत चुकी है। आगामी चुनाव में मोदी जी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा ही नहीं राजनितिक भविष्य भी दांव हैं। भाजपा गुजरात चुनाव जीत गई तो अगला लोकसभा चुनाव मोदी जी के ही नेतृत्व में लड़ने का रास्ता साफ हो जाने की पूरी संभावना है। भाजपा, गुजरात चुनाव हार गई तो मोदी जी के नेतृत्व के खिलाफ उठ रही आवाज और बढ़ सकती है। निर्वाचन आयोग ने गुजरात चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा अभी नहीं की है। लगभग तय है कि गुजरात के चुनाव उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड , पंजाब और गोवा राज्यों के साथ ही कुछ ही माह बाद अगले बरस की तिमाही में कराये जाएंगे। चुनाव परिणाम भी एकसाथ ही निकलने की संभावना है।
गुजरात विधान सभा के 2017 के पिछले चुनाव में बतौर निर्दलीय जीते दलित नेता, जिग्नेश मेवानी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ( जेएनयू ) छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार के साथ इस बरस शहीदे -आजम भगत सिंह की जयंती पर कांग्रेस शरणं गछामी के गदगद भाव में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की उपस्थिति में उनके दल में औपचारिक रूप से भर्ती हो चुके है। कांग्रेस ने ही नहीं बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी लिबरेशन ( भाकपा माले ) ने भी 2017 के पिछले चुनाव में जिग्नेश का समर्थन किया था। माले विधायक सुदामा प्रसाद गुजरात में बड़गाँव विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीते जिग्नेश मेवानी की जीत के लिये चुनावी सभाओं में भाग लिया था।
गुजरात के चुनाव, उत्तर प्रदेश के साथ ही करा दिए जाएँ ये जरूरी नहीं है। सब कुछ निर्वाचन आयोग पर निर्भर है , जिसके मौजूदा तीनों आयुक्त मूलतः उत्तर प्रदेश के ही हैं। मोदी सरकार ने उन्हें सोच समझ कर ही निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया है। मोदी जी के लिए गुजरात ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश का भी चुनाव जीतना बेहद जरूरी है।
वर्ष 2017 के पिछले गुजरात चुनाव के परिणाम 28 दिसंबर निकले थे। उसी दिन हिमाचल प्रदेश विधान सभा के चुनाव परिणाम भी आए थे, जिसके लिए मतदान गुजरात से माह भर पहले 9 नवम्बर को ही संपन्न हो गए थे। दोनों राज्यों के चुनाव कायदे से साथ ही होने थे। लेकिन निर्वाचन आयोग ने मोदी जी के इशारे पर गुजरात में चुनाव हिमाचल प्रदेश के बाद कराये। इसका आधिकारिक कारण यह बताया गया कि गुजरात में आई बाढ़ की वजह से वहां हिमाचल प्रदेश के साथ चुनाव करना संभव नहीं था।
पिछली बार गुजरात में 4.33 करोड़ मतदाता थे और वोटिंग दो चरण में काराये गए। पहले चरण में विधान सभा की 182 सीट में से 89 के लिए 9 दिसंबर और शेष 93 सीटों के वास्ते 14 दिसंबर को मतदान कराये गए थे। उस बार के चुनाव में पहली बार एलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों ( ईवीएम ) में वोटर वेरिफाइबल पेपर ऑडिट ट्रेल पेपर ( वीवीपीएटी ) के साथ एक प्रिंटर लगा था जिनसे निकली कागजी पर्ची हरेक मतदाता को देने का निर्देश था। ये पर्ची भौतिक साक्ष्य सुनिश्चित करती है कि किसी मतदाता का वोट ईवीएम के चिप में उसी के खाते में दर्ज हुआ है जिसके लिए उस मतदाता ने वोटिंग मशीन पर बटन दबाया।
गुजरात के सभी 50128 पोलिंग बूथ पर डाले वोट के तो नहीं पर कुछ बूथों पर ईवीएम से कराये मतदान और मतगणना का मिलान निर्वाचन आयोग के पास इन पर्चियों की ऑटोमेटिक रूप से बैलट कम्पार्टमेंट में सुरक्षित सॉफ्ट कॉपी से करने की व्यवस्था थी। आयोग ने इस पर्ची की व्यवस्था ईवीएम के जरिये मतदान और मतगणना में गड़बड़ी की बढ़ती देशव्यापी शिकायतों के मद्देनज़र उच्चतम न्यायलय के आदेश पर किए। वीवीपीएटी की व्यवस्था का प्रयोग पूर्ण या सीमित रूप से गुजरात के बाहर भी गोवा समेत कुछ जगहों पर हो चुका था।
बॉम्बे के पेट से निकला है गुजरात-
1956 में भारत कर राज्यों के भाषाई पुनर्गठन के तहत बॉम्बे राज्य से 1960 में विभाजित महाराष्ट्र और गुजरात में से गुजरात विधानसभा के लिए यह 14 वां चुनाव है। भाजपा इस राज्य की सत्ता में पहली बार 1995 में केशूभाई पटेल के नेतृत्व में आई। लेकिन वह दो बरस ही मुख्यमंत्री रह सके। उनकी सरकार भाजपा में शंकर सिंह बाघेला के नेतृत्व में हुए विभाजन से गिर गई। सन 2001 में भाजपा ने राज्य की सत्ता की कमान मोदी जी के हवाले कर दी जो तब से 2014 तक लगाकर गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। उनके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद गुजरात का यह दूसरा चुनाव होगा।
गुजरात में मोदी जी के मुख्यमंत्रित्व काल में जो भी विकास कार्य हुए उसे गुजरात मॉडल कहा जाने लगा। वह खुद भी गुजरात मॉडल का बखान करते नहीं थकते। ऐसे में इस बात पर नज़र जाना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों भाजपा ने चुनावी प्रचार में विकास के मुद्दे से ज्यादा अन्य मुद्दों को उठाया है जिनमें सांप्रदायिक पत्ते भी हैं ?
मोदी जी ने प्रधानमंत्री बन जाने के बाद ऐलानिया कहा था अब वह चुनाव प्रचार के लिए नहीं बल्कि अपना वोट देने ही गुजरात आएंगे। लेकिन मोदी जी चुनाव में प्रचार किये बगैर रह ही नहीं सकते है। उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में वदोदरा और वाराणसी, दोनों सीट से जीते जाने पर अपने गृह राज्य की लोकसभा सीट छोड़ उत्तर प्रदेश की वाराणसी की सीट संभाले रखी पर वह मतदाता गुजरात के ही है। वह अहमदाबाद नगर के पूर्वी क्षेत्र, मणिनगर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से 2002 से पहली बार जीते थे और हर बार वहीँ अपना वोट देते आए हैं।
मोदी जी के प्रधानमंत्री बन जाने पर उनकी जगह श्रीमती आनंदीबेन पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। उन्होंने आरक्षण के मुद्दे पर गुजरात में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रसूख़दार पाटीदार ( पटेल ) समुदाय के हार्दिक पटेल के नेतृत्व में जातिवादी उत्पीड़न के खिलाफ और जिग्नेश के नेतृत्व में संघर्ष छिड़ने के बाद राज्य में क़ानून-व्यवस्था की बिगड़ी स्थिति के बीच चुनाव से दो बरस पहले मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। वह अभी उत्तर प्रदेश की राज्यपाल है। उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा का कारण अपनी वृद्धावस्था बताया था। राजनितिक प्रेक्षक मानते हैं कि भाजपा ने विधानसभा चुनाव की अपनी तैयारी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ने के लिए ही उन्हें इस्तीफा देने कहा और फिर विजयभाई रुपाणी को नया मुख्यमंत्री बना दिया। भाजपा ने पिछले चुनाव में औपचारिक तौर पर श्री रुपाणी को अगले मुख्यमंत्री के बतौर अपना उमीदवार घोषित नहीं किया था पर कहा था कि वह चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ रही है. भाजपा ने हाल में रुपानी को मुख्यमंत्री पद से हटाकर उनकी जगह पाटीदार (पटेल ) समुदाय के ही को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी है।
ऐसे में श्री मोदी ने यह चुनाव जीतने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। वह गुजरात में चुनावी प्रचार में ऐसे लगे कि खुद अपना कहा जुमला भूल गए कि वह प्रधानमंत्री बन जाने के बाद चुनाव प्रचार के लिए नहीं सिर्फ वोट देने गुजरात आएंगे।
भाजपा ने पहले की तरह 2017 के भी चुनाव में मतदाताओं के साम्प्र्दायिक धुवीकरण के लिए असत्य के प्रयोग की अपनी रणनीति के तहत धार्मिक मुद्दों को खूब हवा दी। वरना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के गुजरात चुनाव के दौरान सोमनाथ मंदिर जाने को मुद्दा नहीं बनाया जाता। भाजपा ने जोर -शोर से प्रचार किया कि राहुल गांधी के सोमनाथ मंदिर में प्रवेश के लिए उनका पंजीकरण ‘ गैर -हिन्दू ‘ के रूप में कराया गया । भाजपा के एक प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने तो राहुल गांधी को बाबर और खिलजी का वंशज तक कह डाला।
गुजरात चुनाव के दौरान ही राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष से अपनी माँ सोनिया गांधी की जगह पार्टी अध्यक्ष बन जाने को भी भाजपा ने वंशानुगत शासन का औरंगजेब स्टाईल करार दे दिया।
इसके पहले भाजपा ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की अपनी तरकीब में यह प्रचार शुरू कर दिया कि चुनाव में अगर कांग्रेस जीत जाती है तो अगले मुख्यमंत्री अहमद पटेल ( अब दिवंगत ) बनेंगे। कांग्रेस अध्यक्ष के निजी सचिव और तमाशाख़ेज़ हालात में गुजरात से ही राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए अहमद पटेल मुस्लिम थे। गौरतलब है कि गुजरात में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय ही नहीं ईसाई , जैन , बौद्ध और जोरास्ट्रियन समेत विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं।
गुजरात के चुनावी इतिहास की तह में जाएँ तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चुनाव में साम्प्र्दायिक ध्रुवीकरण के लिए धार्मिक कार्ड आज़माने में भाजपा अव्वल रही है। इस मामले में निर्वाचन आयोग , प्रधानमंत्री कार्यालय और उच्चतम न्यायालय तक के रिकॉर्ड भरे पड़े हैं। इन दस्तावेजों से पता चलता है कि मोदी जी के मंत्रिमंडल ने वर्ष 2002 में गोधरा के साम्प्र्दायिक दंगे के तुरंत बाद राज्य विधानसभा का चुनाव कराने का निर्णय किया। लेकिन निर्वाचन आयोग ने दृढ निर्णय लिया कि गोधरा काण्ड से उत्पन्न माहौल में तुरन्त राज्य में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित नहीं किये जा सकते. मोदी जी ने एक सार्वजनिक सभा में तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयुक्त जेम्स माइकल लिंगदोह को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरह क्रिश्चियन बोल हिंदुत्व की हुंकार भरी। लिंगदोह साहिब ने अगले दिन सिर्फ इतना कहा कि जो नहीं जानते कि वह नास्तिक हैं उनसे उनको कुछ नहीं कहना।
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सख्त हिदायत के बाद मोदी जी ने असत्य के प्रयोग की अपनी उस कोशिश के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांग ली। वाजपेई जी कहते थे कि मुख्यमंत्री रूप में मोदी जी ने राजधर्म का निर्वाह नहीं किया।
लेकिन मोदी जी माने नहीं और उनकी सरकार ने गुजरात में तुरंत विधानसभा चुनाव कराने की उनकी ख़्वाहिश पर लिंगदोह साहिब की रोकथाम के खिलाफ उच्च न्यायालय में फ़रियाद कर डाली। बहरहाल , उच्चतम न्यायालय ने निर्वाचन आयोग की इस बात को सही ठहराया कि गोधरा दंगों के तुरंत बाद गुजरात विधानसभा के नए चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से नहीं कराया जा सकता। मोदी जी के चुनावी असत्य के प्रयोग की उच्चतम न्यायालय में वह पहली हार थी।
लिंचिंग
भारतीय वांग्मय में ‘ लिंचिंग ‘ शबद नहीं है लेकिन एक जिक्र है।
४५८.क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः ।
क्व वो गावो न रण्यन्ति ॥२॥
ऋग्वेद संहिता , प्रथम मंडल सूक्त ३८
व्याख्या
हे मरुतो आप कहां है? किस उद्देश्य से आप द्युलोक मे गमन करते हैं ? पृथ्वी में क्यों नही घूमते ? आपकी गौएं, आपके लिए नही रंभाती क्या ?
कुछेक वर्ष पूर्व जब भारत में , विशेष रूप से गुजरात के ऊना क्षेत्र में, गौकशी के शक में ‘ लिंचिंग ‘ की वारदात बहुत बढ गई तो कुछ नये सवाल उठे। इनमें से एक तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक वक्तव्य के बाद उठा। प्रश्न था कि लिंचिंग को भारतीय भाषाओं में क्या कहा जाये ? मोदी जी ने अपने वक्तव्य में लिंचिंग अथवा उसके पर्याय या समानार्थी किसी का उपयोग नहीं किया था। उन्होने संकेत में इसकी चर्चा की थी। उनके मूल वक्तव्य में इंगित किया गया था कि लिंचिंग नहीं की जानी चाहिए, और यह एक अपराध है।
बाद में 26 जून 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण पर बहस के राज्यसभा में दिए जवाब में लिंचिंग शब्द का ही इस्तेमाल कर कहा कि झारखंड को मॉब लिंचिंग का अड्डा बताया गया। युवक की हत्या का दुख मुझे भी है और सबको होना चाहिए। दोषियों को सजा होनी चाहिए। हिंसा जहां भी हो चाहे झारखंड , पश्चिम बंगाल या केरल का सख्ती से निपटा जाना चाहिए।
मोदी जी के प्रथम वक्तव्य के कुछ समय बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) सरसंघचालक मोहन भागवत का बयान आया कि लिंचिंग फॉरेन कंस्ट्रक्ट ( विदेशी निर्मति ) है। उनका शायद यह आशय रहा होगा कि भारत के संदर्भ में लिंचिंग का कोई स्थान नहीं है, और इसलिये भारतीय वांग्मय में लिंचिंग शबद ही नहीं हैं। सवाल उठे पहले की बात छोड़ भी दें , तो फिर अब जब सरकार और न्यायालय भी मान चुकी हैं कि भारत में लिंचिंग के अपराध सामने आने लगे हैं तो उसे भारतीय भाषाओं में एक शब्द में क्या कहा जाए?
लिंचिंग के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में वर्णित अर्थ के अनुसार यह एक क्रिया है जिसमें उन्मादी भीड़ , किसी ब्यक्ति की पीट-पीट कर जान ले लेती है। इस वर्णित अर्थ में लिंचिंग और गौकशी के भारतीय सन्दर्भों में अंतर सम्बन्ध पूरी तरह स्पष्ट नहीं होते। सवाल यह भी उठना स्वाभाविक है कि गौकशी और गौहत्या में क्या अंतर है. क्या उन्हें एक दूसरे के पर्याय के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है ?
इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति के बाद बाज़ार के हितों को बढ़ाने के लिए मुख्यतः उत्तर भारत के सैन्य मार्गों के आस पास के कुछ क्षेत्रों में खड़ी बोली से विकसित की गई हिंदी और उसके बहुत पहले आमिर खुसरो के समय से ही प्रचलित हिंदावी में भी लिंचिंग के लिए कोई शब्द नहीं है तो क्या भी इतनी दरिद्र है कि उसमें इसकी अभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द नहीं गढ़ा जा सका है? अगर संस्कृत की भाषागत दरिद्रता नहीं है तो क्या उसके ग्रंथों को टटोल कर कोई कार्यशील एक शब्द चिन्हित किया जा सकता है?
इस स्तंभकार की नज़र संयोग से ऋग्वेद संहिता प्रथम मंडल ऋग्वेद संहिता प्रथम मंडल सूक्त 38 पर पड़ी। फिर प्रश्न कौंधा कि इसमें जों वर्णित है वो क्यों वर्णित है ? इंटरनेट पर संस्कृत और हिंदी के बढ़ते उपयोग के बावजूद कहीं भी लिंचिंग के लिये कोई सटीक एक शब्द है नहीं दिखा। हमने ऊना में लिंचिंग की बढ़ती वारदात के समय मिली एक फोटो का कैप्शन देने की कोशिश की। वह फोटो मरी हुई गायों से भरे एक क्षेत्र के बगल के रास्ते में अपनी नाक को रुमाल से ढक कर जा रहे एक श्वेत वस्त्रधारी विद्वान् का है। हमने इस सूक्त का संस्कृत में उसके हिंदी में भावानुवाद के साथ इस्तेमाल यही सोच कर किया कि हमलोग अपनी भाषाओं को समकालीन अर्थनीतिक, सामाजिक राजनीतिक और विधिक आवश्यकताओं के अनुरूप समृद्ध नहीं करते हैं, तो बहुत ग़लत करते हैं। हम लिंचिंग को संस्कृत में लॉन्चिंग ही नहीं कह सकते ? अगर नहीं तो क्यों? सोचिये यह संस्कृत की भाषागत दरिद्रता नहीं हमारी वैचारिक दरिद्रता तो नहीं है?
भारत में हत्या के अपराध के लिए मृत्युदंड का प्रावधान है. तो क्या हत्या बंद हो गई है? बलात्कार के अपराध के लिए फांसी की सजा का सिर्फ वैधानिक प्रावधान हो जाने से क्या बलात्कार बिल्कुल रुक जाएंगे? वी वांट जस्टिस की मांग तो ठीक है. लेकिन बलात्कार के आरोपियों की मोब लिन्चिंग ( भीड़ वध ) का समर्थन करने वाले सोचें कि इससे कानून का राज कामजोर तो नहीं होगा? क्या हम सच में भीड़तंत्र चाहते हैं? सड़ रहे हमारे समाज को इस तरह के फटाफट न्याय से ठीक करने की व्यवस्था क्या ठीक होगी?