राजस्थान के राजस्थान के कुलपति कलराज मिश्रा पुराने समय के नेता है और आजकल राजस्थान के राज्यपाल हैं, स्वाभाविक है अब कैमरे की चमक और हेडलाइन कम ही नसीब हो पाती हैं। सभी राज्यपालों का यही हाल है क्योंकि सक्रिय राजनीति से राज्यपाल बनने पर राजनैतिक मौत के जैसी ये ताजपोशी मानी जाती हैं।
इसलिए अक्सर ऐसे लोग किसी ना किसी बहाने चर्चा में बने रहना चाहते है, ऐसी ही एक चर्चा आज राजस्थान से निकली है। राज्यपाल कलराज मिश्रा 80 वर्ष के हो चले हैं। उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में राजभवन में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें प्रदेश भर के 27 सरकारी से सम्बन्धता वाले विश्विद्यालयों के कुलपतियों को आमंत्रण राजभवन से भेजा गया। ये कार्यकम 1 जुलाई को रखा गया। क्योंकि प्रदेश के विश्विद्यालयों का कुलपति राज्यपाल होता है इसलिए सभी ने इनमें शिरकत की।
इस कार्यक्रम में कॉफ़ी टेबल बुक का विमोचन किया गया, जिसमें मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला और कांग्रेस के नेता सीपी जोशी ने शिरकत की। उद्घाटन की तस्वीर मीडिया में मौजूद हैं। अब कहानी यहीं से शुरू होती हैं।
क्या है विवाद और क्यों हैं
कलराज मिश्र की जीवनी का नाम “निर्मित मात्र हूं” को विधिवत लांच किया गया। इसके पब्लिक डोमेन में आते ही विवाद छिड़ गया। क्योंकि इस किताब के लेखक के तौर पर गोविंद राम जायसवाल का नाम भी दर्ज है जो किसी जमाने में कलराज मिश्र के OSD रहे हैं। दूसरा विवाद इस किताब को लेकर इसलिए भी हैं, क्योंकि इस किताब के पब्लिशर ने खुद को भारत सरकार का रिसर्च संस्थान बताया हैं।
इस किताब को एक गैर सरकारी संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड इंटरप्रन्योरशिप ने किया है। कॉफी टेबल बुक फार्मेट में लिखी गई इस किताब में प्रकाशक ने संस्था के बारे भ्रामक और गलत दावा किया है। प्रकाशक ने आईआईएमई संस्था को भारत सरकार की संस्थाा बता दिया। प्रकाशक ने लिखा- आईआईएमई राष्ट्रीय स्तर का शोध संस्थान जो भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी मंत्रालय का वैज्ञानिक एवं औद्योगिक शोध संगठन है। जबकि यह सरकारी संगठन है ही नहीं।
अब तीसरा झूठ देखिये –
ये किताब व्यक्ति विशेष को चमचागीरी की हैसियत से छापी गई है जिसका सूत्रधार है खुद राज्यपाल का पुराना निजी सहायक। अब चोरी और सीनाजोरी देखिये इस किताब को वैज्ञानिक शोध बताया गया है। व्यक्ति पर शोध कब से वैज्ञानिक होने लगा ???
बैकग्राउंड में आरएसएस खेलती है ऐसे फर्ज़ीवाड़े-
आरएसएस के पहल पर सभी सरकारी सर्वोच्च संस्थानों में दलालों की एक टीम बैठी है जिसके पास अपने स्वयंसेवकों को सेटल करने लाभ पहुंचाने का आदेश है नागपुर में बैठे आकाओं से। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में जयंत सहसबुद्धे को ऐसे ही कामों के लिए बिठाया गया है।
किताब लिखवाई गई फिर उसका विमोचन करवाया गया, जाहिर है किसी ना किसी के इशारे और फायदे के लिए तो ये हुआ। अब मक्कारी देखिये इस किताब को जबरन 27 विश्विद्यालयों के कुलपति की गाड़ी में बिल के साथ डब्बों में भरकर रखवाया गया। राजभवन के कर्मचारियों के द्वारा। कुलपतियों को जो बिल मिला वो करीब 68 हज़ार का था, और तो और इसमें भाजपा के जुड़ने की अपील भी छपी है। क्या ये राज्यपाल के द्वारा किया जाना सही माना जा सकता है ??
27 सरकारी विश्वविद्यालयों को राज्यपाल की जीवनी की 19 कॉपी का बिल
प्रकाशक ने बिना ऑर्डर विश्वविद्यालयों को राज्यपाल की जीवनी का बिल थमाया
प्रकाशक ने कुलपतियों को दिए गए बिल में राज्यपाल की जीवनी की हर कॉपी की कीमत 10 फीसदी डिस्काउंट के बाद 3599 रुपए रखी।
19 किताबों के हिसाब से हर कुलपति को 68,383 रुपए का बिल थमाया गया। हर विश्वविद्यालय को 68,383 के हिसाब से 27 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को प्रकाशक ने कुल 18.46 लाख रुपए की किताबें बिना ऑर्डर जबरन विश्वविद्यालयों को दे दी।
मीडिया में बवाल होने पर अपनी गर्दन बचाने के लिए राजभवन ने ट्विटर पर सफाई देनी शुरू की, राजभवन में केवल लोकार्पण हुआ, किताब बेचने की गतिविधियों में राजभवन का लेना देना नहीं।
लेकिन सवाल बड़े ही गंभीर है –
बिना खरीद की प्रक्रिया अपनाए विश्विद्यालयों को सीधे जीवनी खरीदने को बाध्य करने पर सवाल सबसे बड़ा है
सरकारी विश्वविद्यालयों में किताबों की खरीद की एक तय प्रक्रिया है, उसके लिए बाकायदा परचेज कमेटी होती है,उस प्रक्रिया का पालन किए बिना खरीद नहीं हो सकती। यहां तो प्रकाशक संस्था ने सीधे कुलपतियों को ही बिल भेज दिए। इस पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। जनवरी में भी प्रकाशक संस्था ने राजभवन का हवाला देकर सभी 27 सरकारी विश्वविद्यालयों को 2-2 कॉफी टेबल बुक भेजी थीं। उस वक्त भी प्रकाया संस्था ने सभी कुलपतियों को चिट्ठी लिखकर जल्द बिल भुगतान करने को कहा था। अब उसी संस्था ने राज्यपाल की जीवनी छापकर बिना तय प्रक्रिया अपनाए ही सभी विश्वविद्यालयों को भेज दी।
कैसे इस संस्था को सरकारी प्लेटफार्म को इस्तेमाल में लाने की मंजूरी मिली। संस्था ने इस मंच का उपयोग खुद की मार्केटिंग के लिए किया। हर विश्वविद्यालय को बिना ऑर्डर जीवनी की 19-19 कॉपी भेज दी गई है। अब कुलपति इसके बिल भुगतान का रास्ता तलाश रहे हैं। और क्यों विश्विद्यालय राज्यपाल की जीवनी खरीदे सरकारी पैसों से !