सिलबट्टा हिंदुस्तानी रसोई घर की आन , बान और शान है। रखनी ही चाहिए सिलबट्टा हम सबको अगर भोजन में उन हिंदुस्तानी मसालों का स्वाद चाहिए जिनके वैश्विक व्यापार पर कब्जा करने के लिए *आदि उपनिवेशवादी * साम्राज्य , पुर्तगाल की महारानी के दिए अपार धन से भूमध्य महासागर से हिंद महासागर और अरब सागर से गुजर भारत के वैकल्पिक समुद्री रास्ता को खोजने के चक्कर में क्रिस्टोफर कोलंबस ने गलती से मसाला विहीन अमेरिका खोज लिया।
हिंदुस्तानी मसाले जिंदाबाद !
सिलबट्टा जिंदाबाद !!
एक फोटो मसालों के एक बिहारी कदरदान की दिल्ली रसोई में पाउडर मसालादानियों की बगलगिरी में तहजीब से मुस्तैद 50 बरस पुराने एक सिलबट्टा की। दूसरी फोटो उसी सनकी बिहारी के अरब सागर तटवर्ती मुम्बई के किचन में सही सलामत सिलबट्टा की।
उस बिहारी के पैतृक गांव का बाबा आदम के जमाने के सिलबट्टा की फोटो तत्काल उपलब्ध नहीं है।
पर सिलबट्टा के बारे में रूस जाकर रूसी पढ़ी बांग्ला मूल की एक गृहणी ललिता दास गुप्ता ने कहा : मेरी रसोई में सिल बट्टे की कमी महसूस होती है।
दिल्ली में पढ़ी एक महिला शिक्षक रुचिता सहाय ने कहा : अपने यहां का लोढ़ी सिलौटी। सिल को पूजते हैं अभी भी शादियों में बिहार में – सिल पोआई रस्म होती है। उसमें पुरखों का ही आवाहन होता है।
इस लेखक ने कहा : हमारे गांव में कुल 1056 गृहस्थी है अलग रसोई के साथ हाल में कोरोना कोविड महा मारी का सामना करने गांव में साबुन वितरण के लिए घर घर गया तो देखा सिलबट्टा सबके यहां है। लेकिन उपयोग नहीं के बराबर रह गया है. मसालों के पाउडर गांवों में भी घुस गए हैं. सिलबट्टा कूटने वालों ने फेरी लगानी बंद कर दी है।
कानपुर के एक्टिविस्ट ज्ञान प्रकाश ने कहा : आप बात सही है . सिलबट्टा का प्रयोग कम हो गया है। लेकिन पुराने गृहस्थी मे है।कई मौकों पर इसका पूजन भी देखा है।
भारतीय फौज की एक कर्नल की पत्नि और मेजर की मैथिल मां और कवि अनुपमा झा ने कहा : ये छोटा सा सिलबट्टा बस हथेली भर का है जो अभी मैं उड़ीसा में गोपालपुरा मिसाइल रेंज में अपने टेम्परेरी किचन में इस्तेमाल कर रही हूँ।
किसान टीवी में कार्यरत रहे बरेली ( उत्तर प्रदेश) के एक पत्रकार शोभित जयसवाल का कहना है : किचन के ओल्ड अपेरेटस को लेकर, क्या कोई महिला उतना इमोशनल होकर सोचती होगी, जितना कोई पुरुष। इसमें मेरा जवाब नहीं में है। जितना पुरुष स्वाद को लेकर पगलाए रहते हैं उतनी स्त्री नही होती।
इस लेखक पत्रकार ने जवाब देने की कोशिश की : भारत पुरुष प्रधान समाज है। पर सिलबट्टा महिला कब्जे में है. कोई शक?
और अंत में एक कविता
सिलबट्टा
* हेमन्त कुकरेती *
जाने कहाँ की सभ्यता से निकला है वह
पत्थर नहीं है वह केवल
एक दुनिया है उसकी
और हमारी रसोई में वह सबसे पुरानी धरती है
जिस पर सबसे पहली माँ
जीवन के स्वाद को बढ़ाने के लिए
पीस रही है प्राचीन वनस्पतियाँ
क्या वह पूजा-कथाओं का कोई देवता है ऐसा
जिस पर नहीं लगाना पड़ता हल्दी-चावल का तिलक
न उसे प्रसन्न करने के लिए
पढ़नी पढ़ती है कोई आदि कविता
उदास लगता है वह
एक कोने पर पड़ा हुआ
सुनता है मशीन का रौरव
जिसमें बाहर निकलने पर
मसाले अपने रस से छिटक जाते हैं
परिवार के इस बुजुर्ग से समय मिलने पर ही
हो पाती है बातचीत
और समय कितना कम है हमारे समय में
हमारी नसों में बसे नमक और बहते हुए खू़न में
उसका भी अंश है
हर दाने के साथ हमारे भीतर प्रवेश करता है
उसके कई घर हैं कई द्वार कई खिड़कियाँ
कई चेहरे हैं उसके
कई सदियों से जीवित है वह
जैसे पेड़ हर वर्ष अपने तने में बढ़ा लेते हैं एक वृत्त
वह हर बार हमारे लिए लेता है जन्म
उसकी कई कहानियाँ हैं अनेक संस्मरण
किसे याद करें जो भुला दिया हो
कुछ भी नहीं है ऐसा
कि दूर ही नहीं हुआ वह कभी
हमारे जीवकोषों से
वह पुरखा है हमारा
जो कई-कई सदियों से हममें बसा है
कविता पढ़ कर एक मर्मज्ञ साहित्यकार वीरेंद्र कुमार ने कहा : अति सुंदर कविता। सच अतीत हमारी रगों में बहते लहू की तरह शामिल रहता है। अतीत का विस्मरण आत्म विस्मरण की तरह मर्मांतक घटना साबित होगा। कविता पढ़ते समय सिलबट्टा एक स्नेहिल बुजुर्ग की तरह बातें करता लगा।
(लेखक स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार एवं पुस्तक लेखक है)