अमरेंद्र किशोर: इश्क न पुछे जात धर्म नूं…..इश्क न देखे ताज…….ये तो वो रंग है….जिसके जूनून की शोखियां माहौल को अतर के नशीलेपन में डुबो जाती है । और इस नशीलेपन को बेहद सहजता से स्वीकार करते हैं, भारत के आदिवासी। आदिवासी संस्कृति के अपने राग हैं और रंग भी। उसी संस्कृति के प्रतीक पुरुष हैं डॉ० रामदयाल मुंडा, जो आज भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उन्होंने भावनाओं के कैनवास पर अपनी आशिकी की रोशनाई से जिस रूहानी इश्क़ की रुबाईयाँ रची हैं….उस इश्क़ का रंग आज वक़्त गुजरने के साथ कहीं ज्यादा चटख और दमदार नजर आता है। उनकी विदेसन माशूका की ख़ूबसूरती और उस पर मर मिटे मुंडाजी के इश्क़ को झारखण्ड के लोग बेहद शिद्द्त से याद करते हैं। वहां का समाज डॉक्टर मुंडा को अपनी संस्कृति और समाज का पहरुआ मानता है।
झारखंड के बेहद पिछड़े इलाके के एक गॉंव में पैदा हुए रामदयाल मुंडा अमेरिका विश्वविद्यालय में पहले पढ़ते हैं और फिर वहीं पढ़ाने लगते हैं -और थोड़े समय में वह दुनिया भर के भाषाविदों की पंगत में बैठकर नामचीन नृविज्ञानी बन जाते हैं – जैसे सपनों में सजा एक ऐसा संसार उन्होंने अपने इर्द-गिर्द बसा लिया, जिसपर भारत का हर आदिवासी रश्क़ कर सकता है।
रामदयाल जी मस्तमौला थे, जवान थे, लिहाजा उनका भोला सलोना रूप उनके साथ काम करनेवाली हेज़ल को भा गया। इसके बाद तो रूहानी इश्क़ की लहर तमाम वजूद को अपने अंदर समेटने लगी।साथ उठना बैठना, फिर साथ में ज्यादा से ज्यादा वक़्त गुजरना और इसके बाद अपने-अपने मन और दिल की बात कहना, रामदयाल मुंडा जी और हेज़ल एक दूसरे की मजबूरी बन गए।
इश्क़ में साथ-साथ होना आखिरकार मजबूर करता है, समर्पण करने को। तो समर्पण का सिलसिला लंबा चला– फिर तो रोज नीली मादक हवाओं में गूँथी आदिम चाहना के साथ भावनाओं में डूबकर जीने लगे दोनों ……किरणों की पगडंडियों पर महुआ रस में डूबी हवाओं की तरह हेज़ल उतर आतीं थीं रामदयालजी की चाहतों के शिखर पर। वह शिखर मोहब्बत का था, जो देह की हलकी आंच पर पका था…… शिराओं में हौले-हौले पसरती थी और कोमल मिठास के साथ नशा छोड़ जाती थी। सच है, प्रेम इंसान को चुनता है, इंसान प्रेम को नहीं– प्रेम घटित होता है और हमसब उसके साथ हो लेते हैं। साथ हो लेना भी प्यार को स्वीकार करना होता है।
समाज की अनुमति लेकर वह हेज़ल के संग अपने गॉंव आये। मोहब्बत में ख़ुम्सी रूहानी खुशबू और हवाओं में बजते मन के जल-तरंग की नाजुक ठुनक महसूस करते हुए मुंडाजी ने आख़िरकार अपने –आदि-धर्म की रीतियों के मुताबिक मैडम हेज़ल से शादी कर ली।
हेज़ल के संग लंबा समय बीता– कोई 15 साल। दोनों की मुहब्बतें झारखण्ड की नदियों की धार बन गयी। बांसुरी की धुन बन गयी। और, की मांदर की थाप हो गयी।
रामदयालजी, भाषाविद बनकर दुनिया भर में नामचीन हो रहे थे। मगर……हेज़ल अकेली सी हो गयी। न जाने किसकी नजर लग गयी……हेज़ल कहतीं हैं ‘मेरे लिए मुंडाजी के पास वक़्त नहीं था, किसी ने सही कहा है प्रेम को बांधना चाहोगे तो वह जरूर खो जाएगा। यह तो भावनाओं की उँगलियों में फंसी रूहानी एहसास से भरी खुश्बू का वह झोंका है जो मुक्त होकर दूर तक फैलता है। इसे मुट्ठियों में कैद करें तो मर जाता है रंगीन मचलती मखमली तितलियों की तरह। ऐसा बार-बार महसूस किया हेज़ल ने। नियति ने जैसे दुश्मनी साध रखी थी उन दोनों के प्यार से। हेज़ल बार-बार माँ बनने की हद तक जाकर निराश होतीं थी।
‘तीन -तीन बार मिसकैरेज हुआ– मैं अब माँ नहीं बन सकती थी’– हेज़ल ने बताया।
रामदयाल मुंडा अपने परिवार की इकलौती संतान थे। वह बच्चा गोद लेना नहीं चाहते थे। उन्हें अपने मुंडा समाज का डर रहा होगा या मन से खुद पैदा किये संतान की चाहत रही होगी। भाग्य के आगे दोनों लाचार होते गए और……आखिरकार हेज़ल तलाक लेकर अपने वतन लौट गयी । ज़िन्दगी जीने केलिए हेज़ल ने वहां जाकर शादी रचा ली और यहाँ डॉक्टर मुंडा ने भी ज़िन्दगी चलाने के लिए भारत में अपने समाज में शादी कर ली।
दुनिया भर में देसज मूल्यों की हिफाजत करने वाले डॉ० रामदयाल मुंडा बेहद ऊर्जस्वी, उत्साही और समर्पित थे लेकिन ज़िंदगी के एक ख़ास मोड़ पर आकर न सिर्फ लाचार हुए बल्कि नियति के सामने घुटने टेकने को मजबूर हुए। हेज़ल का अपनी ज़िंदगी से जाना जैसे इच्छाओं का पानी बन जाना महसूस होता रहा-उन्हीं के शब्दों में ‘बहुत मुश्किल था हम दोनों का एक दूसरे से अलग होना।
अपनी अपनी दुनिया में रच बस गए रामदयाल और हेज़ल अतीत को भूल नहीं पाए। और बेरहम वक़्त की मार देखिये– डॉक्टर मुंडा कैंसर के रोगी हो गए। फिर धीरे-धीरे मौत के गिरफ्त में जाना– गहरी उदासी दे जाता है। लोक-संस्कृति की आत्मा और आदवासी समाज की आवाज बने डॉक्टर मुंडा की ज़िंदगी के आखिरी कुछ महीने बेहद निराशा में गुजरे।
हेज़ल से अलगाव से उपजी उदासी एक कहानी बन गयी, ऐसी कहानी जो वक़्त के पखेडू पर सवार होकर अमेरिका के बुद्धिजीवी वर्ग के बीच और यदा-कदा झारखंड के लोकमानस में आज भी चर्चित है। झारखंड के आदिवासी समाज से रामदयाल जी का जाना एक ऐसी कसक है जो रह-रहकर वहां के सांस्कृतिक आयोजनों में खालीपन दे जाता है । डॉक्टर मुंडा न सिर्फ जन्मजात आदिवासी थे बल्कि उस आदिवासीपन में आजीवन जीते रहे, उस पहचान को बचाये रखने में सफल रहे, जिस पहचान को लेकर समाज का रवैया बेहद निर्दयी और निर्मोही है । इस तरह डॉक्टर रामदयाल मुंडा ने अपने समाज के लोगों को आदिवासी बने रहकर जीने का साहस दिया।
मैडम हेज़ल ने हिन्दुस्तान को रामदयालजी की नज़रों से देखा। उसके साथ आदिवासी समाज से प्रेम और लगाव रखा। आदिवासियों से प्रेम और झारखण्ड की फिजाओं का मोह उनके अंदर आज भी बरकरार है। उनकी ज़िन्दगी में आज सब कुछ है…..झारखण्ड की वही माटी है, वही जंगल और वही पनघट है जिसे उन्होंने उत्साह और रवानगी से भरी ज़िन्दगी के साथ जी लिया– लेकिन आज नहीं है तो साथ जीने-मरने की कसमें खाने वाले डॉक्टर मुंडा।
प्रोस्टेट कैंसर के चलते इस दुनिया से विदा हुए डॉक्टर मुंडा अपने पीछे छोड़ गए हैं उस सम्बन्ध की गर्माहट जिसे महसूस करने हेज़ल बार-बार हिन्दुस्तान चली आतीं हैं।