विजय शंकर सिंह | आज तक देश के किसी भी गृहमंत्री के साथ दंगाइयों की इतनी तस्वीरे सोशल मीडिया पर नहीं नज़र आयीं जितनी आज कल नज़र आ रही है। यह शख्स जहां जाता है, वहां दंगा और उन्माद फैल जाता है। चाहे वह राजधानी हो या बंगाल। अजीब सरकार है।
प्रधानमंत्री को तमाम राजनीतिक और आर्थिक एजेंडे के बीच यह ध्यान रखना होगा कि, जब तक कानून व्यवस्था की स्थिति सामान्य नही होती तब तक किसी भी प्रकार के आर्थिक, सामाजिक औऱ भौतिक विकास की कल्पना नहीं की जस सकती है। जिस चौराहे पर रोज रोज बवाल होता है उस चौराहे पर गोलगप्पे वाला भी अपना ठेला लगाने से मना कर देता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि कोई सरकार यह धारणा बना ले कि देश मे, किसी भी मसले पर कोई जन उभरेगा ही नहीं, सर्वत्र स्वर्गिक संतोष व्याप्त रहेगा और किसी भी प्रकार का कोई आंदोलन नहीं होगा तो, न केवल यह सोच ही एक अकर्मण्य शासन की पहचान है, बल्कि यह एक प्रकार से अलोकतांत्रिक और तनाशाहो सोच भी है।
लगभग 65 दिन से चल रहे किसान आंदोलन को, जब सरकार बातचीत से हल नहीं करा पाई तो, अब वह इस आन्दोलन को, उन असामाजिक तत्वों के भरोसे खत्म कराने की कोशिश कर रही है जिनके फ़ोटो और विवरण सरकार के बड़े मंत्रियों के साथ घटना के तुरंत बाद ही सोशल मीडिया में बवंडर की तरह छा जाते हैं। सारी योजना खुल जाती है। क्या इससे सरकार की क्षवि खराब नहीं हो रही है ?
इस तमाशे से पुलिस की साख और क्षवि पर कोई बहुत प्रभाव नही पड़ता है। क्योंकि कि पुलिस की साख और क्षवि तो अब जन सामान्य में जो बन चुकी है उसे यहां बताने की ज़रूरत नही है। हर व्यक्ति उक्त क्षवि से रूबरू है और अपनी धारणा अपने अनुभवों के अनुसार, बना ही रहा है। लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल की साख और क्षवि पर ज़रूर असर पड़ रहा है। विशेषकर उस दल पर, जो खुद को अ पार्टी विद अ डिफरेंस कहती रही है।
किसानों का यह धरना एक न एक दिन हट भी जाएगा। यह भी हो सकता है कि किसानों की मांग सरकार ले और यह भी हो सकता है कि बिना मांग पूरी कराये किसान हट जांय और अपने अपने घर चले जांय। पर इन सबके बावजूद अगर इन तीन कृषि कानूनो पर उठ रही किसानों की शंकाओं का समाधान नहीं हुआ तो यह अंसन्तोष तो बरकरार ही रहेगा।
मूल समस्या, किसानों द्वारा किया जस रहा, दिल्ली का घेराव नहीं है। वह एक तात्कालिक समस्या है। यह मूल रूप से एक प्रशासनिक समस्या है। पर असल समस्या है इन कानूनों के बाद कृषि और कृषि बाजार पर इनका असर क्या पड़ेगा ? आंदोलन खत्म कराने के लिये विभाजनकारी एजेंडे और सरकार के नजदीकी गुंडों का साथ लेना एक बेहद गलत परंपरा की शुरुआत है। इसका बेहद दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और इसे यह गुंडे नही झेलेंगे, सरकार और जनता को यदि कोई समस्या हुयी तो झेलना पड़ेगा।
यदि किसी लोकतांत्रिक जन आंदोलन का समाधान राजनीतिक रूप से निकालने के बजाय किराए के सरकारी गुंडों के द्वारा किया जा रहा है तो यह सत्ता के राजनैतिक सोच और विचारधारा का दिमागी दिवालियापन तो है ही, साथ ही प्रशासनिक अक्षमता का भी प्रदर्शन है। इसीलिए मैं बार बार कहता हूं कि, सरकार में आने के बाद सरकार के मंत्री को ऐसे तत्वों से दूरी बना लेनी चाहिए और सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसे लोकतांत्रिक आंदोलनों का राजनैतिक समाधान ढूंढे।
(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी रहे है ,समसामयिक विषयों पर गहरी नजर और पैठ पर अपनी कलम के साथ सक्रिय है।)