उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि गर्भावस्था के कारण किसी महिला को रोजगार से वंचित नहीं किया जा सकता है। अदालत ने उस नियम को रद्द कर दिया जो गर्भवती महिलाओं को सरकारी नौकरियों के लिए उपयुक्त मानने से रोकता था। उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि मातृत्व एक “महान आशीर्वाद” है।
अदालत का यह फैसला मिशा उपाध्याय द्वारा दायर याचिका के जवाब में आया, जिन्हें गर्भावस्था के कारण नैनीताल के बीडी पांडे अस्पताल में नर्सिंग अधिकारी के पद से वंचित कर दिया गया था। चिकित्सा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण महानिदेशक द्वारा उन्हें नियुक्ति पत्र जारी किए जाने के बावजूद,
अस्पताल ने फिटनेस प्रमाणपत्र का हवाला देते हुए उन्हें ज्वाइन करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया और उन्हें “ज्वाइन होने के लिए अयोग्य” घोषित कर दिया था। प्रमाणपत्र में गर्भावस्था के अलावा कोई अन्य स्वास्थ्य समस्या नहीं बताई गई थी।
उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के उस नियम को ही रद्द कर दिया जिसमें 12 सप्ताह या उससे अधिक की गर्भवती महिलाओं को रोजगार के लिए “अस्थायी रूप से अयोग्य” माना गया था। इस नियम में महिला को प्रसव की तारीख के छह सप्ताह बाद एक पंजीकृत चिकित्सक द्वारा जांच करने और फिटनेस का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी। हाई कोर्ट ने इस नियम पर ‘गहरी नाराजगी’ जताई और इसे ‘असंवैधानिक’ बताया।
अदालत ने राज्य की कार्रवाई को “महिलाओं के ख़िलाफ़ बेहद संकीर्ण” माना और कहा, “यह निश्चित रूप से संविधान के अनुच्छेद 14, 16 और 21 का उल्लंघन है।”
पीठ ने मातृत्व अवकाश को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देते हुए “गर्भावस्था के आधार पर रोजगार से इनकार करने में विरोधाभास” की ओर इशारा किया।
न्यायाधीश ने कहा, “अगर ऐसी स्थिति की कल्पना की जाती है कि एक महिला जो नई नियुक्ति पर सेवा में शामिल होती है और शामिल होने के बाद गर्भवती हो जाती है, तो उसे मातृत्व अवकाश मिलेगा, तो फिर एक गर्भवती महिला नई नियुक्ति पर अपनी ड्यूटी क्यों नहीं ज्वाइन कर सकती? ज्वाइन करने के बाद वह भी मातृत्व अवकाश की हकदार होंगी।”