उत्तर प्रदेश के कानपुर में ज़ीका वायरस बेहद तेजी से अपने पाँव पसार रहा है। वायरस के 24 घंटे में 30 नए मामले आने से हड़कंप मच गया है। ज़ीका वायरस कोविड-19 महामारी के बीच एक बड़ा खतरा बनकर उभरा है। ज़ीका वायरस के दस्तक ने लोगों के मन में यह भय पैदा कर दिया है कि कहीं यह कोरोना वायरस की तरह महामारी का रूप न अख़्तियार कर ले। वैसे भी हाल ही में फेडरल यूनिवर्सिटी ऑफ अमेजोनास, ब्राज़ील के जीव विज्ञानी मार्सेलो गोर्डो ने यह संभावना जताई थी कि अगली महामारियों में ज़ीका वायरस भी हो सकता है। कानपुर में ज़ीका के लगातार बढ़ते मामलों ने प्रशासन की नींद उड़ा दी है। डीएम के आदेश पर नमूने लेने और जांच करने का काम काफी तेज कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य विभाग की टीम बुखार के मरीजों और गंभीर रूप से बीमार लोगों को चिह्नित कर उनका उपचार कर रही है।
ज़ीका वायरस मुख्य रूप से संक्रमित एडीज़ एजिप्टि और एडीज़ एल्बोपिक्टस प्रजाति के मच्छरों के काटने से फैलता है। ध्यान देने की बात यह है कि एडीज़ एजिप्टि मच्छर के काटने से ही हम डेंगू, चिकनगुनिया और येलो फीवर जैसी बीमारियों के गिरफ्त में आते हैं। इसलिए, ज़ीका वायरस से संक्रमित होने के लक्षण भी डेंगू, चिकनगुनिया बीमारियों जैसे ही होते हैं जैसे बुखार, जोड़ों में दर्द, शरीर पर चकत्ते पड़ना, लाल आंखे, सिरर्दर्द वगैरह-वगैरह।
2016 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जीका को सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट (पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी) घोषित किया था। हाल ही में ब्राजील के मानौस स्थित फेडरल यूनिवर्सिटी ऑफ अमेझोनास के जीव विज्ञानी मार्सेलो गोर्डो ने कहा था कि अगली महामारियों में जीका वायरस भी हो सकता है।
सन् 1947 में वैज्ञानिकों को पहली बार अफ्रीकी देश युगांडा के ज़ीका जंगलों में रिसस मकाक नामक बीमार बंदरों में शोध के दौरान ये वायरस मिले थे। चूंकि इस वायरस को ज़ीका जंगलों में पहली बार पाया गया था, इसलिए इस वायरस को आम तौर पर सन् 1982 से ‘ज़ीका’ के नाम से संबोधित किया जाने लगा। भले ही ये वायरस बंदरों में 1947 में ही मिले थे, लेकिन 1950 के दशक में ही इसे औपचारिक तौर पर एक खास वायरस माना जाने लगा। इस वायरस से संक्रमित होने का पहला मामला 1954 में एक नाइजीरियाई नागरिक में सामने आया। पहली बार ज़ीका वायरस ने बड़े पैमाने पर 2007 में अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में दस्तक दी। 2014 में यह प्रशांत महासागर से फ्रेंच पॉलीनेशिया तक और उसके बाद 2015 में यह मैक्सिको, सेंट्रल अमेरिका तक भी पहुँच गया।
भारत में ज़ीका का पहला मामला 2016 में गुजरात में सामने आया था। हालांकि वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों में पाया है कि ज़ीका वायरस 1953 से ही भारत में लोगों को बड़ी तादाद में संक्रमित करता रहा है। 2016-17 में इस नई बीमारी को लेकर 196 में लोगों का टेस्ट किया गया तो ज़ीका वायरस प्रतिरोध को लेकर 33 लोगों में इम्यूनिटी पाई गई।
ज़ीका वायरस फ्लाविविरिडएसी विषाणु परिवार (वायरस फैमिली) से संबंध रखता है। यह आमतौर पर दिन के समय सक्रिय रहता है। चूंकि इस वायरस के लक्षण हूबहू डेंगू, चिकनगुनिया जैसे होते हैं और उन्हीं की तरह ये फैलते हैं, इसलिए यह कभी-कभार डायग्नोसिस में मिस हो जाता है। ऐसा कई बार हो चुका है जब लक्षणों के आधार पर बीमारी को डेंगू, चिकनगुनिया समझा जाता रहा, लेकिन ब्लड टेस्ट में ज़ीका वायरस का आरएनए पाया गया।
ज़ीका वायरस का सबसे ज्यादा असर गर्भवती महिलाओं पर होता है। अगर कोई गर्भवती महिला इस वायरस से संक्रमित हो जाती है तो यह नवजात शिशु में न्यूरोलॉजिकल और ऑटोइम्यून डिसऑर्डर का खतरा उत्पन्न करता है और मस्तिष्क के विकास को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। दरअसल, ज़ीका वायरस गर्भ में पल रहे भ्रूण के मस्तिष्क पर हमला करता है। इसकी वजह से बच्चे छोटे सिर के साथ पैदा होते हैं। इस रोग को माइक्रोसेफली के नाम से जाना जाता है जो एक न्यूरोलॉजिकल बीमारी है इसमें बच्चे का दिमाग पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता है। माइक्रोसेफली जन्म के साथ हो सकता है या जीवन के शुरुआती कुछ सालों में भी हो सकता है। माइक्रोसेफली से ग्रसित बच्चे में कई तरह की समस्याएं पैदा हो सकती हैं: जैसे क्रोमोसोम एब्नार्मेलिटीज, मस्तिष्क की असामान्य वृद्धि, चेहरे पर झुर्रियां व ढीलापन, काम करने की क्षमता और बोलने की रफ्तार धीमी, विकलांगता वगैरह।
माइक्रोसेफैली के अलावा गिलैने बारे सिंड्रोम भी ज़ीका वायरस से होने वाली एक न्यूरोलॉजिकल बीमारी है। इस बीमारी से ग्रसित व्यक्ति का शरीर अपनी ही प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) और तंत्रिकाओं पर हमला करना शुरू कर देता है। इससे लकवा (पैरालायसिस) हो सकता है और शरीर के निचले अंग ढीले (लूज) पड़ सकते हैं। आम तौर पर इसके लक्षण ज़ीका संक्रमित मरीज में कुछ हफ्तों बाद दिखाई पड़ते हैं। इसका कोई कारगर इलाज अभी तक खोजा नहीं जा सका है, लेकिन बीमारी की गंभीरता को कम करने के लिए मरीज को इम्यूनोग्लोब्यूलिन की खुराक दी जाती है।
ज़ीका वायरस का संक्रमण गर्भवती माँ से बच्चे में होने के अलावा सेक्स के दौरान भी एक साथी से दूसरे तक पहुँच सकता है। मोटे तौर पर ज़ीका के प्रसार के चार मुख्य कारण हैं: मच्छर, सेक्स, गर्भ में माँ से शिशु में संक्रमण और रक्तदान। इसलिए ज़ीका वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए लोगों को मच्छरों के काटने से बचने की सलाह दी जाती है। ज़ीका के यौन संचरण को रोकने के लिए कॉन्ट्रसेप्टिव जैसे कंडोम के इस्तेमाल के लिए कहा जाता है। इसी के मद्देनजर ज़ीका प्रभावित क्षेत्रों की महिलाओं को गर्भवती न होने और रक्तदान न करने की भी सलाह दी जाती रही है।
आम तौर पर ज़ीका वायरस संक्रमित व्यक्ति के खून में तकरीबन एक हफ्ते तक रहता है लेकिन कुछ मामलों में यह लंबे वक्त तक भी रह सकता है। फिलहाल ज़ीका का कोई खास इलाज या टीका उपलब्ध नहीं है। डॉक्टर लक्षणों के आधार पर संक्रमित मरीज का ट्रीटमेंट करते हैं। ज़ीका कोई बहुत जानलेवा वायरस नहीं है। लगभग 80 फीसदी संक्रमणों के लक्षण प्रकट भी नहीं होते। जीका के लक्षणों के प्रकट होने के बाद 5 से 7 दिनों के बीच में आरटी-पीसीआर टेस्ट करवाना जरूरी होता है। गौरतलब है कि संक्रमित होने वाला प्रत्येक पाँच में से एक व्यक्ति ही बीमार पड़ता है। और आमतौर पर मरीज को अस्पताल में भर्ती की जरूरत कम ही पड़ती है।
ज़ीका का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह गर्भ में पल रहे शिशु के मस्तिष्क को निशाना बनाता है। अभी तक हम कोरोना के तमाम वैरिएंट्स से ही जूझ रहे थे कि अब ज़ीका वायरस ने भी दस्तक दे दी है, लिहाजा इसको लेकर सरकार और लोगों की चिंताएं बढ़ना लाज़िमी है।
(लेखक साइंस ब्लॉगर और विज्ञान संचारक हैं)