धर्म की राजनीति के साथ ही जाति की राजनीति ने भी भारत को बुरी तरह उलझन में डाल रखा है। अगले साल की पहली तिमाही के दौरान देश में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड,पंजाब ,गोवा और मिजोराम राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इन राज्यों में विधानसभाओं के कार्यकाल पर नजर दौडाएं तो अगले साल फरवरी – मार्च में चुनाव संपन्न होने हैं। अभी तारीखों का ऐलान नहीं हुआ है, लेकिन राजनीतिक दलों ने चुनाव दम ठोंक कर उतरने की तैयारी पूरी कर ली है। अगले होने वाले चुनाव के सन्दर्भ में देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में जब चुनाव की राजनीति पर चर्चा होती है तब कोई भी राज्नीतिक दल इस राज्य के जातीय समीकरण को भूल पाने की गलती नहीं कर सकता।
समझना होगा कि जिस तरह देश की सत्ता में काबिज होने का रास्ता लोकसभा में बहुमत हासिल करने से होकर गुजरता है और उसके लिए उत्तर प्रदेश 80 लोकसभा सीटों से ज्यादा से ज्यादा सीट जीतने वाली पार्टी को केंद्र में सरकार बनाने का मौका ज्यादा आसानी से मिल जाता है, ठीक उसी तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता में काबिज होने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को विधानसभा की (403) सीटों में बहुमत हासिल करना अनिवार्य होता है, और इसके लिए जातीय समीकरण का संतुलन स्थापित करना भी जरूरी है। इस जातीय समीकरण को साधने के लिए ओबीसी वोट बैंक पर निर्भरता भी आवश्यक है। कह सकते हैं कि इस वोट बैंक के सपोर्ट के बिना उत्तर प्रदेश में सत्ता पर काबिज होना किसी पार्टी के लिए टेढ़ी खीर होने जैसा ही है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर किसी तरह की चर्चा करने से पहले यह जान लेना जरूरी होगा कि इस प्रदेश में धर्म और जातीय आधार पर मतदाताओं की स्थिति क्या है। उपलब्ध आंकड़ो के हिसाब से प्रदेश में करीब 18 फीसदी मुसलमान, 12 फीसदी जाटव और 10 फीसदी यादव हैं। इसके अलावा 18 फीसदी मतदाताओं में सवर्ण ,दलित और दूसरी जातियों को गिना जाता हैं। साल 2017 के चुनाव में समाजवादी पार्टी को 22 फीसदी , बहुजन समाज पार्टी को 18 फीसदी वोट मिले थे। यूपी में इन दिनों सभी राजनीतिक दल छोटी-छोटी जातियों के वोटों को अपने पाले में लाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। भाजपा का दावा है कि मौजूदा समय में राज्य के पिछड़ी जातियों के वोट बैंक में 60 फीसदी वोट में से ज्यादातर वोट उसके साथ हैं, इसी तरह के दावे अन्य पार्टियों ने भी किये हैं।
यह तो वक़्त आने पर ही पता चल सकेगा कि किसके दावों में दम है लेकिन कोशिश सभी की यही है कि ओबीसी , दलित और पिछड़ी जातियों के ज्उयादा से वोट उनको मिलें। एक अनुमान के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग का है। लगभग 52 फीसदी पिछड़ा वोट बैंक में 43 फीसदी वोट बैंक गैर-यादव बिरादरी का है, जो कभी किसी पार्टी के साथ स्थाई रूप से नहीं खड़ा रहता है। यही नहीं पिछड़ा वर्ग के वोटर कभी सामूहिक तौर पर किसी पार्टी के पक्ष में भी वोटिंग नहीं करते हैं। इस बार भाजपा ने रणनीति के तहत यादव समुदाय के तीन लोगों को जिला पंचायत अध्यक्ष बनाया है। सरकार भी यादव मंत्रियों की संख्या कम नहीं है। इसका सीधा मतलब है कि भाजपा यादवों के वोट में पैठ करने की बड़े स्तर पर तैयारी कर रही है।
यादव समुदाय के बाद जातिगत आधार पर ओबीसी में दूसरे नम्बर की हैसियत कुर्मी समुदाय की है। सूबे के सोलह जिलों में कुर्मी और पटेल वोट बैंक छह से 12 फीसदी तक है। इनमें मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिले प्रमुख हैं। पिछड़े वर्ग के मतदाताओं में मौर्या-शाक्य-सैनी और कुशवाहा जाति का दबदबा भी कम नहीं है वोट बैंक में इनकी आबादी 7 से 10 फीसदी है। इन जिलों में फिरोजाबाद, एटा, मिर्जापुर, प्रयागराज, मैनपुरी, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, बदायूं, कन्नौज, कानपुर देहात, जालौन, झांसी, ललितपुर और हमीरपुर हैं। इसके अलावा सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और मुरादाबाद में सैनी समाज निर्णायक है.इसी तरह देश के सबसे बड़े राज्य में मल्लाह समुदाय के वोटर 6 फीसदी है, जो निषाद, बिंद, कश्यप और केवल जैसी उपजातियों से नाम से राज्य के फतेहपुर, चंदौली, मिर्जापुर, गाजीपुर, बलिया, वाराणसी, गोरखपुर, भदोही, प्रयागराज, अयोध्या, जौनपुर और औरैया सहित जिलों में पाए जाते हैं। मछली पालन और और नाव चलाना में इनका मुख्य पेशा है। ओबीसी में एक और बड़ा वोट बैंक लोध जाति का है, इसे भाजपा का का परंपरागत वोट बैंक माना जाता है। यूपी के कई जिलों में लोध वोटरों का दबदबा है, जिनमें रामपुर, ज्योतिबा फुले नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, महामायानगर, आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, पीलीभीत, लखीमपुर, उन्नाव, शाहजहांपुर, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर, हमीरपुर, महोबा ऐसे जिले हैं, जहां लोध वोट बैंक पांच से 10 फीसदी तक है।
अन्य पिछड़ा वर्ग की इन प्रचलित और परंपरागत जातियों के साथ ही उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में कई ऐसी जातियां भी हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में नोनिया के नाम से जाना जाता है। विशेषकर मऊ, गाजीपुर बलिया, देवरिया, कुशीनगर, आजमगढ़, महराजगंज, चंदौली, बहराइच और जौनपुर के अधिकतर विधानसभा क्षेत्रों में इनकी संख्या अच्छी खासी है। पूर्वांचल की सियासत में सपा और बीजेपी दोनों ही इन समुदाय को साधकर अपने राजनीतिक हित साधना चाहते हैं। इसी प्रकार राज्य के पूर्वांचल क्षेत्र के ही गाजीपुर, बलिया, मऊ, आजमगढ़, चंदौली, भदोही, वाराणसी व मिर्जापुर में राजभर नामक की भी धाक है।
इस बिरादरी के नेता के तौर पर ओम प्रकाश राजभर ने अपनी अलग पहचान भी बनाई है। राजभर वोटों के लिए सपा और भाजपा ही नहीं बल्कि बसपा की भी नजर है। उत्तर प्रदेश की ओबीसी समुदाय में पाल समाज अति पिछड़ी जातियों में आता है, जिसे गड़रिया और बघेल जातियों के नाम से जाना जाता है। बृज और रुहेलखंड के जिलों में पाल समुदाय काफी अहम माने जाते हैं। यह वोट बैंक बदायूं से लेकर बरेली, आगरा, फिरोजाबाद, इटावा, हाथरस जैसे जिलों में काफी महत्व रखते हैं. इसके अलावा अवध के फतेहपुर, रायबरेली, प्रतापगढ़ और बुंदेलखड के तमाम जिलों में 5 से 10 हजार की संख्या में रहते हैं। इस राज्य की सियासत में लोहार और कुम्हार दोनों ही समुदाय ओबीसी की अति पिछड़ी जातियों में आती है, लोहार जाति के लोग खुद को विश्वकर्मा और शर्मा जाति लिखते हैं तो जबकि कुम्हार समुदाय को लोग खुद को प्रजापति लिखते है। अवध और पूर्वांचल के इलाकों में इन दोनों समुदाय अकेले दम जीतने की ताकत नहीं रखते हैं, लेकिन दूसरे दलों के खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं।