आजकल देश में बड़ी चर्चाओं में देशभक्ति की बातें कही जाती है और सुनाई जाती है। 2014 में NDA की जीत में भाजपा की और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लॉटरी खुली, प्रचंड बहुमत के बदौलत देश की बागडोर जनता ने सौंपी, लंबे चौड़े वादे और भरोसा कहना उचित नहीं माहौल बनाया गया मोदी की तुलना प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ होने लगी। कहा गया 56 इंच का सीना है दुश्मनों के छक्के छुड़ा देंगे, पाकिस्तान थरथर कांपने लगेगा पर 7 सालों में ऐसा कुछ नहीं दिखा बातें चाहे चीन के साथ संबंधों की हो या अन्य मसलें। एक बात जरूर दिखी की सेना और सैनिकों की वर्दी को भरपूर बेचा गया। नरेंद्र मोदी और मिसेज गांधी की तुलना भी बेमानी हैं।
इंडिया में इंदिरा गांधी जैसा कोई और मजबूत प्रधानमंत्री नहीं हुआ और निकट भविष्य में होता नहीं दिखता हैं। ख़ासकर महिला राजनीतिज्ञों की बात करें तभी भी यहीं बात बरकरार रहेगी। 1984 में देश की अखंडता को बचाने की कीमत मिसेज गांधी को अपनी जान और खून के एक -एक कतरे के रूप में चुकानी पड़ी। देश को खालिस्तान और पाकिस्तान जैसे जहर उगलने वाले दुश्मन झेलने पड़ते। आज 37 साल पूरे हुई है उस घटना को घटे। ऑपरेशन ब्लू स्टार के अलावा एक कारवाई और हुई थी जिसे ऑपरेशन थंडर के नाम से जाना जाता है।
क्या है ये ऑपरेशन ब्लू स्टार और क्या हुआ –
1984 में 1 जून से 10 जून तक सेना के अलग अलग अभियान चलाये गये थे, वजह थी अमृतसर में श्री हरमंदिर साहिब को अलग देश और झंडे की मांग करने वाले उग्रवादियों से आज़ाद करवाना इस नाजायज़ मांग को खत्म करने के लिए सेना को इस कारवाई की जिम्मेदारी दी गई। सेना का दिया कोर्ड वर्ड है “ऑपरेशन ब्लू स्टार” । शायद ये देश का अब तक का सबसे बड़ा सेना का अभियान रहा है। इस विवाद की शुरूआत ही भारत की आजादी से शुरू हुई और पंजाब को दो हिस्सों हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांट दिया गया। आज जो पंजाब है वो कभी दिल्ली तक हुआ करता था।
कब शुरू हुआ था ‘खालिस्तान आंदोलन’
साल 1947 में जब अंग्रेज भारत को दो देशों में बांटने की योजना बना रहे थे। तब कुछ सिख नेताओं को लगा कि अपने लिए अलग देश की मांग का ये सही समय है. इसी कड़ी में उन्होंने भी अपने लिए अलग देश (खालिस्तान) की मांग की।
आजादी के बाद इसे लेकर हिंसक आंदोलन भी चला, जिसमें कई लोगों की जान गई थी। पंजाबी भाषी लोगों के लिए एक अलग राज्य की मांग की शुरुआत ‘पंजाबी सूबा’ आंदोलन से हुई थी।
पहला मौका था जब पंजाब को भाषा के आधार पर अलग दिखाने की कोशिश हुई थी। इसी दौरान अकाली दल का भी जन्म हुआ था और कुछ ही वक्त में इस पार्टी ने बेशुमार लोकप्रियता हासिल कर ली थी। अलग पंजाब के लिए जबरदस्त प्रदर्शन शुरू हुए और अंत में 1966 में ये मांग मान ली गई।भाषा के आधार पर पंजाब, हरियाणा और केंद्र शाषित प्रदेश चंडीगढ़ की स्थापना हुई।
हालांकि पंजाबी भाषी लोगों की इस मांग को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने खारिज कर दिया था. इंदिरा गांधी का कहना था कि यह ‘देशद्रोही’ मांगें हैं। ये कोई ऑटोनोमी की मांग नहीं है, बल्कि उसकी आड़ में अलग देश की संरचना बनाने की योजना है. इसके बाद, 1980 के दशक में ‘खालिस्तान’ के तौर पर स्वायत्त राज्य की मांग ने जोर पकड़ लिया था। धीरे-धीरे ये मांग बढ़ने लगी और हिंसक होता चला गया।
इसकी नींव रखी गई 1982 में जरनैल सिंह भिंडरावाले के जरिये 1983 के मध्य तक भारत को विभाजित करने की अपनी योजना के लिए समर्थन हासिल करने में कामयाब रहा।
भिंडरांवाले दमदमी तक्साल नाम के एक सिख धार्मिक पंथ का प्रमुख था। स्वर्ण मंदिर परिसर में 1984 में हुए ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान भिंडरांवाले और उसके समर्थकों को भारतीय सेना ने मार गिराया था। भिंडरावाले की मौत के साथ ही ये लड़ाई खत्म हुई। 6 जून को भिंडरावाले के साथ उसके सहयोगियों को सेना ने मार गिराया लगातार चली गोलाबारी और जबाबी कारवाई में इन आतंकियों की ज्यादा नहीं चली।
जुलाई 1982 में सिख राजनीतिक दल अकाली दल के अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल ने भिंडरावाले को गिरफ्तारी से बचने के लिए स्वर्ण मंदिर परिसर में रहने की इजाजत दी। बाद में भिंडरावाले ने पवित्र मंदिर परिसर को शस्त्रागार और मुख्यालय बना दिया। जहाँ से अलग खालिस्तान के लिए तैयारियां की जा रही थी, खालिस्तान की अपनी करेंसी तक छाप कर बांटे गए थे। अंदर ही अंदर तैयारियां चल रही थी।
भारतीय खुफिया एजेंसियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को बताया इस पूरे ऑपरेशन में तीन प्रमुख व्यक्ति, शबेग सिंह, एक कोर्ट-मार्शल भारतीय सेना का अधिकारी, बलबीर सिंह और अमरीक सिंह भिंडरावाले के सहयोगी थे, भिंडरावाले ने 1981 और 1983 के बीच पाकिस्तान में कम से कम छह यात्राएं की थीं।
शबेग सिंह द्वारा अकाल तख्त साहिब में हथियारों का प्रशिक्षण कराया जा रहा था। साथ ही इंटेलिजेंस के जरिये मिसेज गांधी को ये भी पता चला कि जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के गुरुद्वारों में प्रशिक्षण दिया जा रहा था।
ठीक यही जानकारी (सोवियत संघ) आज का रूस की इंटेलिजेंस एजेंसी केजीबी ने भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ (RAW) को (CIA) सीआईए और (ISI) आईएसआई के पंजाब के लिए एक योजना पर मिलकर काम करने की सूचना दी। पाकिस्तान सेना के 1 हज़ार से ज्यादा ट्रेनिग लिए हुए कमांडर भिंडरावाले के लिए भारत आये थें।
इनइनपुट्स के आधार पर सरकार चौकनी हो गई , फिर भी सरकार ने हिम्मत रखते हुए बिना मंदिर में प्रवेश किये इस मसले को सुलझाने की कोशिश की पर 1 जून 1984 को, उग्रवादियों के साथ वार्ता विफल होने के बाद, इंदिरा गांधी ने आनंदपुर प्रस्ताव को खारिज कर दिया और सेना को ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू करने का आदेश दिया, साथ ही साथ पूरे पंजाब में सिख गुरुद्वारों पर कड़ी सुरक्षा और संघन अभियान चलाया गया छुपे उग्रवादियों को पकड़ने के लिए। भारतीय सेना के उनके पास उपलब्ध जानकारी के हिसाब से ऑपरेशन ब्लू स्टार की कार्यवाही शुरू की। इस कारवाई के पहले सेना ने आम नागरिकों को चेतावनी देके गुरुद्वारा साहिब खाली करने का निर्देश भी दिया। कारवाई से पहले मीडिया का ब्लैकआउट कर दिया गया। आधीरात को होटल से उठाकर पत्रकारों को हरियाणा के बॉर्डर पर लाकर छोड़ा गया। उस पूरे कारवाई को तीन पत्रकारों ने BBC के लिए रिपोर्ट किया जिनमें मार्क टुली, सतीश जैकब और रघु राय थे।
सेना के अलग अलग दस्ते और अर्धसैनिक बलों ने स्वर्ण मंदिर परिसर को घेर लिया। 5 जून तक कोई आतंकी आत्मसमर्पण के लिए शाम के 7 बजे तक बाहर नहीं आया। भिंडरावाले पूरी तरह आश्वस्त था कि सेना गुरुद्वारों के अंदर कदम नहीं रखेंगी। इसलिए वो निश्चित थे। पर कोई हल नहीं निकलता देखकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सेना को कार्रवाई करने के निर्देश दिए।
ऑपरेशन ब्लू स्टार को दो भागों में बांटा गया
1. ऑपरेशन मेटल: यह स्वर्ण मंदिर तक ही सीमित था, लेकिन इसने ऑपरेशन शॉप को भी जन्म दिया। पंजाब के बाहरी इलाके से संदिग्धों को पकड़ा गया।
2. ऑपरेशन वुडरोज- पूरे पंजाब में शुरू किया गया था। भारतीय सेना द्वारा टैंक, तोपखाने, हेलीकॉप्टर और बख्तरबंद गाडियों का पूरा इंतजाम किया गया।
ऑपरेशन ब्लू स्टार की वजह-
ऑपरेशन ब्लू स्टार का मुख्य उद्देश्य जरनैल सिंह भिंडरावाले को अन्य उग्रवादियों के साथ खत्म करना और अमृतसर में श्री हरमंदिर साहिब पर नियंत्रण हासिल करना था। क्योंकि उन्होंने इस पर कब्जा कर लिया था। अकाली दल के बुलावे पर भिंडरावाले साथ 200 से ज्यादा लोगों को लेकर गुरुद्वारे में घुसा था।
सेना ने आतंकवादियों के पास मौजूद गोलाबारी को कम करके आंका था, जिनके हथियारों में बुलेट प्रूफ जैकेट को छेदने क्वाले चीनी निर्मित रॉकेट-चालित ग्रेनेड लांचर शामिल थे। टैंकों और भारी तोपखाने का इस्तेमाल उग्रवादियों पर हमला करने के लिए किया गया था, जिन्होंने भारी किलेबंद अकाल तख्त से टैंक-विरोधी और मशीन-गन की आग से जवाब दिया था। 24 घंटे की गोलाबारी के बाद, सेना ने मंदिर परिसर पर नियंत्रण कर लिया। सेना के लिए आधिकारिक हताहत के आंकड़े 83 मृत और 249 घायल हुए थे। हालांकि, बाद में राजीव गांधी ने सितंबर 1984 में खुलासा किया कि 700 सैनिक मारे गए थे। सरकार द्वारा जारी श्वेत पत्र में कहा गया है कि 1592 उग्रवादियों को पकड़ा गया और 554 आतंकवादी और नागरिक स घटना में घायल हुये। सरकार के अनुसार, इन उग्रवादियों ने गुरुद्वारा साहिब के अंदर मौजूद तीर्थंकरो को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल किया, भारतीय सेना ने 3 जून 1984 को हजारों तीर्थयात्रियों और प्रदर्शनकारियों को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति दी थी और उसी दिन रात 10:00 बजे कर्फ्यू लगाने के बाद प्रवेश बंद कर दिया था।
देश के दिनों सदनों में सभी सांसदों ने भिंडरावाले की गिरफ्तारी की मांग रखी, देश के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह थें, खुद सिख थे। ऐसे में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने घोषणा की कि वह सिख भावनाओं को ठेस पहुंचाने के डर से गुरुद्वारों में प्रवेश नहीं कर सकती है। लेकिन जिस तरह की सूचना और परिस्थितियों में सेना का ये ऑपरेशन हुआ और सफलता से एक आतंकी समूह का खात्मा किया गया वो देश के सर्वोच्च पद की सहमति और सहयोग के बिना नहीं संभव था। इंदिरा गांधी और ज्ञानी जैल सिंह की ये युक्ति का परिणाम ये रहा कि आज देश को खालिस्तान जैसे नासूर को नहीं झेलना पड़ रहा पर गाहे बगाहे वो खबरों में बने रहते है। नरेंद्र मोदी की सरकार को भी प्रचंड बहुमत है वो भी ऐसे बचे लोगों का खात्मा कर सकते है जो अलग खालिस्तान की मांग कर रहे है। पर शायद वो ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि कभी भिंडरावाले को सहयोग देने वाली पार्टी अकाली उनकी सांझेदार है राजनीति में।