विगत 30 मई 2021 को केंद्र की मोदी सरकार ने सात साल पूरे कर लिए। सरकार ने सात साल का यह सफ़र दो चरणों में पूरा किया। इसके पहले चरण की शुरुआत मई 2014 में तब हुई थी। जब पहली बार देश की उस समय की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने संसद के निचले सदन लोकसभा में केवल अपने दम पर दो तिहाई बहुमत जुटाकर केंद्र में भाजपा नीत गठबंधन सरकार का गठन करने में सफलता हासिल की थी।
भाजपा की सरकार तो इससे पहले भी देश में बन चुकी थी , अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहले कुछ दिन के लिए 1996 में ,फिर एक – डेढ़ साल के लिए 1998 में और उसके बाद 1999 से 2004 तक पूरे पांच साल तक अटल जी भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री रह चुके हैं . पर आज की भाजपा सरकार और पूर्ववर्ती भाजपा सरकार में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पहले भाजपा को बहुमत साधे रहने के लिए समान विचारधारा के शिरोमणि अकाली दल , शिवसेना , जनता दल ( यू ) , टीआरएस , द्रमुक या अन्नाद्रमुक में से कोई एक , अगप , बीजद और तृणमूल कांग्रेस सरीखे कई क्षेत्रीय दलों के सहयोग और समर्थन की जरूरत पड़ती थी जिसकी वजह से इनमें से जब कोई दल नाराज होकर बाहर निकल जाता था, तो सरकार गिरने की नौबत आ जाती थी।
पूर्ण बहुमत के अभाव में ही 1996 में अटल जी की सरकार 13 दिन में ही गिर गई थी और उसके बाद 1998 में दूसरी बार गठित अटल बिहारी सरकार , 1999 में तृणमूल कांग्रेस नेत्री ममता बनर्जी और अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता की नाराजगी के चलते अधबीच गिर गई थी। यह अलग बात है कि 1999 में 1996 के बाद दूसरी बार संपन्न लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में भाजपा और सहयोगी दलों के गठबंधन को सरकार बनाने लायक बहुमत आसानी से मिल गया था और यह सरकार पूरे पांच साल चली भी थी।
इसके विपरीत मौजूदा सन्दर्भ में भाजपा अपने बल ही लोकसभा की इतनी सीटें जीत जाती है कि उसे सरकार बनाने के लिए किसी अन्य पार्टी के सहयोग की जरूरत ही नहीं पड़ती लेकिन गठबंधन का धर्म निभाये रखने के लिए आज की भाजपानीत गठबंधन सरकार में सहयोगी दलों को अनुपातिक हिस्सेदारी दी अवश्य जाती है। नरेन्द्र मोदी सरकार का प्रथम चरण अगस्त 2014 से शुरू हुआ था और 2019 के लोकसभा चुनाव तक बना रहा था। उसके बाद इस सरकारका दूसरा चरण शुरू हुआ था और इसने भी दो साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। अटल अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली दो भाजपा सरकारों के बीच यही मूल अंतर है।
इस अंतर को समझने के साथ ही यह समझना भी नितांत जरूरी है कि नरेन्द्र मोदी की दो सरकारों के बीच काफी फर्क है। इस फर्क की पहचान नरेन्द्र मोदी के 15 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री की हैसियत से लालकिले की प्राचीर से दिए गए उस भाषण से की जा सकती है जिसमें उन्होंने एक अलग ही अंदाज में भाषण दिया था। उनका यह अंदाज देश के अन्दर ही नहीं देश के बाहर भी पूरी दुनिया में बहुत सराहा गया था , कहना गलत नहीं होगा कि हिंदुत्ववाद और राष्ट्रवाद के नारे के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे नरेन्द्र मोदी ने अपने इस भाषण में न केवल देश की आर्थिक स्थिति और तस्वीर बदलने का इरादा व्यक्त किया था बल्कि उन्होंने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सरीखे अपने विचार धर्मी राजनीतिक संगठनों के कार्यकर्ताओं , पदाधिकारियों और सक्रिय सदस्यों से यह विनम्र आह्वान भी किया था कि अब वो कम से कम अगले 10 साल तक किसी तरह का सामाजिक और जातीय तनाव पैदा न होने दें।
यही नहीं श्री मोदी के उस भाषण की एक खासियत यह भी थी कि तब उन्होंने पाकिस्तान के साथ भी युद्ध विहीन सद्भाव पूर्ण सम्बन्ध बना कर रखने की बात कही थी। इस बारे में उनका यह स्पष्ट मानना था कि बहुत हो लिया , पाकिस्तान के साथ 4 – 5 युद्ध भी हो गए अब शान्ति होनी चाहिए। उनका यह भाषण उनकी बहु प्रचारित और चिर परिचित छवि के एकदम विपरीत था इस कारण देश – दुनिया में सराहा भी बहुत गया था। उनकी सरकार के पहले चरण का यह भाषण उसके बाद इस रूप में कभी नहीं देखा गया। इसके व्यवहार में इसके एकदम विपरीत पाकिस्तान के साथ संबंधों में तनाव की की स्थितियां भी बनी रहीं और देश में भी आंतरिक स्तर पर जातीय , सामाजिक और साम्प्रदायिक तनाव की घटनाओं में इजाफा ही हुआ। सबसे बड़ा सवाल यही है कि प्रधानमंत्री के न चाहने के बावजूद यह सब क्यों हुआ और इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? अपनी सरकार के पहले कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी ने अच्छे दिन आने का नारा देकर जनता को एक भरोसा दिया था। वो भरोसा कायम नहीं रहा सका क्यों , यह भी एक बड़ा सवाल है ? पहली सरकार में नरेन्द्र मोदी अकेले आये थे , वो सरकार के मुखिया थे और उनके सखा अमित शाह सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के अध्यक्ष के रूप में काम कर रहे थे। दूसरे सरकार में अमित शाह गृहमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी सरकार का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। दूसरी बार सत्ता में आने के इन दो साल में सरकार ने काम भी बहुत किये हैं और सरकार के सामने चुनौतियां भी जबरदस्त रही हैं। दूसरे कार्यकाल में सरकार ने कोरोना संकट के बीच आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया।
इन दोनों साल में सरकार की सबसे बड़ी चुनौती तो कोरोना संकट का सामना करने के रूप में देखी जा सकती है लेकिन जिस तरह पहले साल सरकार कोरोना समस्या का सफलता से सामना करते हुए दिखाई दी उस तरह कोरोना की दूसरी लहर का सामना करते हुए नहीं दिखाई दी। कोरोना के बाद सरकार की दूसरी बड़ी चुनौती देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति का सामना करने की है। सरकार कोशिश तो बहुत कर रही है लेकिन वांछित सफलता नहीं मिल पा रही है। दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने पांच बड़े काम किये हैं। इनमें सबसे बड़ा काम जम्मू – कश्मीर को संविधान की धारा 370 के तहत मिलने वाले विशेष प्रावधान से छुटकारा दिलाने के साथ ही इस सीमान्त राज्य को दो केंद्र शासित राज्यों / क्षेत्रों में विभाजित करने का है।
दूसरी बार सत्ता में आने के मात्र 2 महीने 6 दिन के बाद 5 अगस्त 2019 के दिन वो काम कर दिया गया जो कई दशक से सोचा ही जा रहा था। इन दोनों राज्यों में अभी विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन का काम चल रहा है इसलिए चुनाव की प्रक्रिया बंद है। परिसीमन के काम में सबसे बड़ी बाधा कोरोना है। जम्मू – कश्मीर से 370 की मुक्ति के बाद इस सरकार ने दूसरा बड़ा काम अयोध्या में राममंदिर के दूसरी बार शिलान्यास का किया है . इस बार ख़ास बात यह थी कि प्रधानमंत्री 5 अगस्त 2020 को इस मौके पर खुद वहाँ मौजूद थे .दूसरे चरण में ही केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति भी लागू की जिसमें 10 + 2 की जगह 5 + 3 + 4 पद्धति को लागू किया गया है ।
इसके अलावा मुस्लिम महिलाओं को खुश रखने के लिए लाये गए क़ानून तीन तलाक नागरिकता संशोधन क़ानून और कृषि संशोधन विधेयकों के जरिये भी सरकार से विकास की दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश तो जरूर की है लेकिन इन्हीं फैसलों की वजह से नागरिकों की आबादी का एक बड़ा तबका सरकार से नाराज भी हुआ है। कोरोना काल में ही सांसद के नए भवन का निर्माण कार्य शुरू होना और तमान विरोध के बावजूद यह निर्माण कार्य जारी रखना सरकार की एक अतिरिक्त उपलब्धि ही कही जा सकती है।