ज्ञानेन्द्र पाण्डेय:आज एक अप्रैल ( 1 अप्रैल ) के दिन देश के दो राज्यों- असम और बंगाल में दूसरे चरण के विधानसभा चुनाव के लिए वोट डालने का काम होना है। वोट डालना एक गंभीर , महत्वपूर्ण और दायित्वपूर्ण काम माना जाता है, क्योंकि वोट देकर ही जनता ग्रामसभा से लेकर ब्लाक, जिला और पंचायत स्तर के स्थानीय निकायों के साथ ही राज्य विधानसभा और देश की संसद के लिए अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है। जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जिस पार्टी के ज्यादा होते हैं उसे ही
ग्राम, जिला प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर सरकार बनाने का मौका मिलता है। इस पृष्ठभूमि में देखें तो चुनाव में वोट डालने की गंभीरता अपने आप ही समझ में आने लगती है। इसे एक विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि इतना गंभीर और दायित्वपूर्ण काम असम और बंगाल जैसे राज्यों के कुछ इलाकों में
( 1 अप्रैल ) को संपन्न होना है जिसे पूरी दुनिया मूर्ख दिवस के रूप में जानती है।
मूर्ख दिवस मनाने जैसा ऐसा कोई आधिकारिक आदेश तो दुनिया की किसी सरकार या दुनिया के अलग – अलग देशों की सरकारों के सहयोग से बने संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन ने जारी नहीं किया है। लेकिन सदियों से चली आ रही एक परंपरा का पालन करते हुए साल के चौथे महीने की यह पहली तारीख फूल्स डे ( मूर्ख दिवस ) के रूप में मनाने का चलन जरूर है। फूल्स डे की जन मान्यता इतनी प्रबल और आम आदमी में इतनी गहराई तक घुसी हुई है, कि इस दिन किए गए किसी भी काम को गंभीर नहीं माना जाता मजाक ही समझा जाता है। यही कारण है कि जब इस तारीख को किसी व्यक्ति को कोई काम सौंपा जाता है तब उसे यही लगता है कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। इन हालात में कई बार ऐसा भी होता है कि गंभीर से गंभीर बात और जिम्मेदारी के काम भी फर्स्ट अप्रैल को मजाक भरे ही नजर आते हैं। इस पृष्ठभूमि में जब भारत का चुनाव आयोग 1 अप्रैल को किसी राज्य विधानसभा के कुछ ही इलाकों में सही चुनाव कराने का कार्यक्रम सुनिश्चित करता है तो उसे क्या समझा जाए कि उस इलाके के लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है या यह कि उस इलाके के लोग राजनीति का मजाक उड़ा रहे हैं। बंगाल और असम के जिन विधानसभा क्षेत्रों में मूर्ख दिवस के दिन वोट डालने का काम होने जा रहा है , उन इलाकों की स्थिति वैसी ही है।
प्रसंगवश एक जानकारी वर्धक और महत्वपूर्ण सूचना यह भी है कि मध्य प्रदेश के मालवा अंचल में विश्व मूर्ख दिवस ( 1 अप्रैल ) के अवसर पर कई दशक से टेपा सम्मेलन के आयोजन का सिलसिला बदस्तूर जारी है। मालवा के उज्जैन में करीब पांच दशक पहले वहाँ के एक व्यवसायी और समाजसेवी लाला अमरनाथ खत्री और प्रसिद्द फिल्म व्यंग्यकार शिव शर्मा ने टेपा सम्मेलन के आयोजन का सिलसिला शुरू किया था। इन दोनों महानुभावों के परलोक गमन के बाद उनके बेटों ने इस विरासत को आगे बढ़ाया। शिव शर्मा के बेटे मनीष शर्मा और अमरनाथ खत्री के बेटे आज भी उसी श्रद्धा , दायित्वबोध और निष्ठा के साथ इस कार्यक्रम का आयोजन करते हैं जिस निष्ठा भाव से उनके स्वर्गीय पिताश्री इसका आयोजन करते थे। पिछले साल और इस साल कोरोना के चलते टेपा सम्मेलन का आयोजन नहीं हो सका है। इस वार्षिक आयोजन में मंडल आयुक्त , जिलाधिकारी , पुलिस कप्तान , स्थानीय विधायक और सांसद समेत सभी वरिष्ठ अधिकारी और जनप्रतिनिधि तो शामिल होते ही हैं इसके साथ ही खेल , साहित्य , फिल्म और पत्रकारिता जगत की महान हस्तियों को भी जनता के सामने उपस्थित होने का मौका मिलता है। इस मौके पर इन क्षेत्रों के चुने हुए प्रतिनिधियों के कामकाज का मूल्यांकन करने के साथ ही ऐसी ही कुछ हस्तियों को पुरस्कृत और सम्मानित भी किया जाता है। टेपा का मतलब होता है एक सीधा सा मूर्ख व्यक्ति और ऐसा सम्मान पाने वाले व्यक्ति को एक अभिनन्दन पत्र के हवाले से उसके टेपा होने के तमाम गुणों से परिचित भी करा दिया जाता है। इस मौके पर दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान टेपाधिराज के नाम से होता है। कहने का मतलब यह कि बातों ही बातों में उसे उसकी अच्छाइयां और बुराइयां सब कुछ बता दी जाती हैं और उसे बुरा मानने का कोई मौका भी नहीं दिया जाता।
उज्जैन के टेपा सम्मेलन में न केवल स्थानीय स्तर के लोगों को इस सम्मान से नवाजा जाता है बल्कि राष्ट्रीय स्तर के भी कई नामचीन व्यक्तित्व इस पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। इन महान व्यक्तियों में आलोक मेहता , दिवंगत डॉक्टर कन्हैया लाल नंदन और स्वर्गीय प्रभाष जोशी जैसे हिंदी के कई सम्पादक भी शामिल हैं। अब देखना है कि बंगाल और असम की जनता किसे टेपा बनाती है ?
चुनाव क्षेत्रों से मिल रही जानकारियों के हिसाब से तो ऐसा लग रहा है कि इन दोनों राज्यों में इस बार 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में केंद्र और असम में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए अनुकूल स्थितियां नहीं हैं। मसलन बात बंगाल की करें तो एक तथ्य आसानी से समझा जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को ममता बनर्जी के खिलाफ वाम मोर्चे और कांग्रेस के एक होकर चुनाव लड़ने का फायदा मिला था। इस लड़ाई में जो वोट भाजपा को मिले थे वो ममता की पार्टी का नुकसान था। यानी भाजपा को ममता के नुकसान का फायदा मिला था। इस बार ममता विरोधी गठबंधन की स्थिति पहले से कहीं बेहतर है और ममता के साथ ही राज्य के मतदाताओं की भाजपा के साथ भी नाराजगी बढ़ी है ऐसे में कांग्रेस और वाम मोर्चे को पिछले चुनाव की तुलना में जितने ज्यादा वोटों का फायदा होगा वो भाजपा को पिछले चुनाव में मिले वोटों का नुकसान पहुंचाएगा। इसके संकेत इससे भी मिलते हैं क्योंकि पहले तो ममता की पार्टी से टूट कर नेताओं का भाजपा में जाने का सिलसिला शुरू हुआ था अब भाजपा छोड़ कर लोग वापस ममता की पार्टी में जाने लगे हैं। इससे साफ़ है कि भाजपा के प्रति लोगों में नाराजगी बढ़ने लगी है। उधर कांग्रेस और वाम मोर्चे में स्थितियां पहले जैसी ही हैं। इन दोनों पार्टियों को अपने परंपरागत वोट बैंक पर भरोसा है जो कहीं नहीं जा रहा है।
इन हालात में कांग्रेस – वाम मोर्चा गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में चाहे न हो लेकिन वह भाजपा को सरकार बनाने से रोकने में पूरी तरह सक्षम है। असम में तो इसलिए भी स्थितियां भाजपा के अनुकूल नहीं हैं क्योंकि इस राज्य में ये पार्टी सरकार में है और सत्ता विरोधी नाराजगी इस राज्य में साफ़ तौर पर दिखाई भी दे रही है। यह नाराजगी कई कारणों से से है असम की जनता के भाजपा से नाराज होने के कई कारणों में एक कारण यह भी है कि उसे केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा बनाया गया वह क़ानून बिलकुल पसंद नहीं है जिसे नागरिकता संशोधन क़ानून कहा जाता है। स्थानीय लोगों को लगता है कि इस क़ानून के लागू होने से बाहर के लोगों के वहाँ आने से असम की भारतीयता की पहचान ख़त्म हो जाने का खतरा बढ़ जाएगा।