ज्ञानेन्द्रपाण्डेय: उत्तराखण्ड के सीमांत चमोली जिले के तपोवन क्षेत्र में ऋषिगंगा परियोजना स्थल पर प्रकृति का जो कहर फूटा है उसने विकास की रोशनी छीन ली है। अब रोशनी नहीं चारों तरफ घुप अंधेरा ही अंधेरा है । आम तौर पर विकास की योजनायें अंधेरा चीर कर रोशनी दिखाने के लिए बनाई जाती हैं लेकिन जब इंसान अपने स्वार्थ के नशे में प्रकृति का ताबड़तोड़ दोहन करता है तब प्रकृति भी उससे बदला लेती है। चमोली जिले की यह घटना भी कमोबेस ऐसा ही कुछ है और यह पहली बार नहीं हुआ है । इससे पहले भी जब कभी विकास के नाम पर अंधाधुंध तरीके से पहाड़ के साथ खिलवाड़ किया गया तब – तब प्रकृति ने भी इंसान को इस तरह के हादसों से यह समझाने की कोशिश की है कि प्रकृति के साथ इस तरह का खिलवाड़ न किया जाए लेकिन इंसान है की वो मानता ही नहीं अपने आज के फायदे के लिए कुदरत के साथ खिलवाड़ करता ही रहता है और समय – समय पर ऐसे हादसों का शिकार भी होता रहता है। न जाने क्यों हिमालय के साथ ही ऐसी घटनाएं कुछ ज्यादा ही होती हैं और यह सिलसिला बहुत पुराना भी है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि हिमालय दुनिया का सबसे नया , युवा और् विकसित होता हुआ पहाड़ है , अभी यह बनने की प्रक्रिया में है , ठीक वैसे ही जैसे रहने के लिए बनाई जाने वाली कोई इमारत निर्माण की अवस्था में होती है। जिस तरह किसी निर्माणाधीन इमारत में बहुत ज्यादा जोर लगा कर कोई काम नहीं किया जाता है उसी तरह हिमालय के साथ भी विकास के नाम पर किसी तरह की लूट – खसोट उसके वजूद के लिए नुकसानदायक ही साबित होगी , यह बात दुनिया जहां के वैज्ञानिक और विशेषज्ञ सदियों से कहते आये हैं लेकिन उनकी बात सुनाने को ही कोई राजी नहीं है तो पल- पल में ऐसे हालात का सामना तो करना ही पड़ेगा।
इसी इलाके में 7- 8 पहले ही तो केदारनाथ आपदा आयी थी केदारनाथ आपदा से करीब डेढ़ दशक पहले कैलाश मान सरोवर मार्ग पर मालपा नामक स्थान में भूमि स्खलन की एक ऐसी घटना हुई थी जिसमें पूरा पहाड़ ही रात के अन्धेरे में दरदरा कर गिर गया था और उसका मलबा पानी की तेज धार में बह कर कहाँ चला गया था ,किसी को पता भी नहीं चला था। मालपा की इस पहाडी में मान सरोवर यात्रियों के टेंट लगे हुए थे। इस हादसे में कोई भी यात्री नहीं बच सका था।
ऐसा ही कुछ इस बार तपोवन के इस इलाके में भी हुआ। परियोजना स्थल में काम कर रहे और रह रहे लोगों के साथ ही अरबों – करोड़ रुपये की लागत से तैयार होने वाली यह परियोजना भी बाढ़ में बह गयी। कैसी अजीब विडम्बना है कि रैनीउत्तराखंड गढ़वाल के चमोली जिले का यह वही गाँव है जहां आज से कोई पांच दशक पहले साल 1972 – 73 में पहाड़ को बचाने के लिए ही चिपको नामक आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। इस भोटिया गाँव की एक बुजुर्ग महिला गौरा देवी के नेतृत्व में सैकड़ों महिलायें जंगल काटने आये ठेकेदार के मजदूरों के कहर से पेड़ों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गयीं थीं। पेड़ को काटने से बचाने और जंगल सुरक्षित रखने के पीछे भी यही मकसद था कि पर्यावरण सुरक्षित रखने के साथ ही पहाड़ को भी अवैध तरीके से होने वाले क्षरण से बचाया जा सके। पहाडी इलाके में पेड़ को बचाना इसलिए भी जरूरी माना जाता है क्योंकि पेड़ के जड़ें मिट्टी को पकड़ कर रखती हैं इससे जमीन की पकड़ बनी रहती है और भूस्खलन के खतरे भी कम हो जाते हैं। पहाडी इलाकों के विकास की सबसे बड़ी शर्त यही मानी जाती है कि पहाड़ को काटने – तोड़ने के बाद विकास के जो भी निर्माण कार्य किये जाएँ पहाड़ की चोटियों पर ही किये जाएँ , पहाड़ की जड़ों में नहीं। इसी वैज्ञानिक नियम के अनुपालन में ही पहाड़ के गाँव भी बसते हैं। पहाडी गाँव की ज्यादातर आवासी बस्तियां उचाई वाले इलाकों में ही होती हैं और सबसे नीचे की तरफ नदियों के किनारे पहाडी खेत होते हैं। खेती के इलाके और घरों के बीच में दो स्तर पर पालतू पशुओं को रखने का स्थान और सब्जी आदि बोने का इंतजाम होता है। नैनीताल और मूसूरी जैसे पहाडी शहरों को बसाए जाते समय अंग्रेजों ने भी इस नियम का ध्यान रखा था औरर तम्मं इमारतों का निर्माण पहाडी चोटियों या उचाई वाले स्थानों में ही किया था। उस समय सडकों के निर्माण में भी इस बात का ध्यान रखा गया था कि सड़क बनाते समय पहाडी में बिस्फोट कम से कम से कम किये जाएँ पहाडी इलाकों में सडकों का चौड़ा कम होना भी इसका एक बड़ा कारण बताया जाता है।
विकास की नई परिभाषा गढ़ने वाली आज की जमात ने दो पहाड़ों का सन्धि स्थल कही जाने वाली घाटियों में बाँध और उर्जा परियोजनाओं के निर्माण को एक नई गति दे रखी है. एक तरफ ऋषिगंगा परियोजना , दूसरी तरफ टिहरी समेत अनेक बाँध परियोजना और आने वाले समय की पंचेश्वर जैसी सिंचाई और उर्जा परियोजनाओं के साथ ही उत्तराखंड में चारधाम मार्ग को आल वेदर रोड के नाम पर चौड़ा करने का जो महाअभियान आजकल चल रहा है वो भी इलाके के विकास से कहीं ज्यादा विनाश की तरफ बढ़ते कदम ही दिखाई देते हैं।
विकास के नए मानदंड और मापदंड रचने वाली यह पीढ़ी न तो अतीत से सबक लेती है और न ही विशेषज्ञों की राय पर ही अमल करती है। ऐसे ही लोगों की गलत योजनायें अंततः विनाश का कारण बनाती हैं। ऐसे लोगों ने ही न तो तिहरी बाँध के समय वैज्ञानिकों की राय को माना और न ही अन्य योजनाओं के समबन्ध में वैज्ञानिक विमर्श का ख्याल रखा। तपोवन की इस परियोजना के समबन्ध में भी एक साल पहले ही वैज्ञानिकों ने चेताया था लेकिन किसी ने भी उस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा सामने है ये लोग इतिहास के हवाले से भी यह जानना नहीं चाहते कि आज से पचास साल पहले भी “गौना ताल” टूटने की ऐसी ही एक घटना में 70 लोग बह गए थे. गौरतलब है कि 50 साल पहले 20 जुलाई 1970 के दिन उत्तराखंड के इसी चमोली जिले में अलकनंदा घाटी में बिरही गंगा पर बना ताल टूट गया था। तब 70 लोग बह गए थे। खेत, खलिहान बहे। गाड़ियां बही और पशु धन की भी बड़ी क्षति हुई थी। इसी इलाके में अंग्रेजों के समय आज से 127 साल पहले 1893 में भी गुना गाँव के निकट एक पहाडी के टूटने से अलकनंदा की सहायक नदी बिरही गंगा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया। बड़ी भारी झील बन गई। चमोली, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, गोचर, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर से लेकर देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार तक सनसनी फैल गई।अंग्रेजों ने इस घटना से सबक लिया और ऐसे इंतजाम भी किये ताकि ऐसी घटनाओं की आवृत्ति फिर न हो लेकिन आजादी के बाद की सरकारों ने विकास के नाम पर बर्बादी का सिलसिला ही शुरू कर दिया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और तक्षकपोस्ट के Counsulting Editor है।) पोस्ट की सभी सामग्री पर तक्षकपोस्ट का एकाधिकार है।