बिहार में एक बार फिर से जहरीली शराब ने कुछ लोगों को अपने आगोश में ले कर हमेशा के लिए सुला दिया है। जिसके बाद से बिहार में शराबबंदी की विफलता एक बार फिर से सामने आई हैं। यह ऐसा पहली बार कोई वाकया नहीं है, पहले भी बिहार में जहरीली शराब से मौत की घटनाएं हुई है। जहरीली शराब से पूर्व में हुई मौत की घटनाओं से शायद ही नीतीश की सरकार ने कोई सबक सीखा होगा, लेकिन सवाल यह होता है भला उस राज्य में शराबबंदी सफल कैसे हो सकती हैं, जिस राज्य के सीमावर्ती राज्य में शराबबंदी नही है।
बिहार के पश्चिम में है उत्तर प्रदेश, दक्षिण में है झारखंड, पूर्व में है पश्चिम बंगाल, और उत्तर में है नेपाल, बिहार में शराब की अवैध खेप इन्हीं सीमावर्ती राज्यों से होकर गुजरती हैं। बात अगर कीमतों की करें तो 500 रुपए में मिलने वाली शराब तकरीबन 1500 रुपए से ज्यादा मे भी बिक जाती है। सीमावर्ती राज्य से बिहार में शराब की अवैध खेप पहुंचाने में बिहार के पुलिस और स्थानीय प्रशासन का भी बड़े पैमाने पर सहयोग मिलता है, क्योंकि इससे शराब के चस्के के साथ उनकी भी अच्छी खासी कमाई भी हो जाती है।
बिहार में जब 1977 में जननायक कर्पूरी ठाकुर ने शराब पर प्रतिबंध लगाया था, तब इस प्रतिबंधित फैसला का तो बड़ा स्वागत किया गया था। लेकिन इसकी विफलता ने बिहार में शराबबंदी हटाने के को मजबूर कर दिया। पहली बार महज 7 दिनों के मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार जो आज बिहार के सातवीं बार के मुख्यमंत्री बने है, उन्होंने ने भी वही रुख अपनाने की कोशिश की। वर्ष 2015 में जब नीतीश कुमार पटना की रैली में रैली में गए थे, तो रैली संबोधन के बाद महिलाओं का एक बड़ा समूह उनसे मिलने की जिद कर बैठा था। आखिरकार नीतीश कुमार जाने से पहले उन महिलाओं से मिले और उन महिलाओं ने एक ही बात रखी बिहार में शराबबंदी लागू की जाए। नीतीश कुमार ने उन महिला संगठनों की बात को मान करके 1 अप्रैल 2016 से बिहार में देसी शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया।
इसके बाद तो मानो जैसे बिहार में नीतीश कुमार को सभी महिलाओं अपार जनसमर्थन मिल गया। लेकिन घंटे भर में पूरे भारत में यह खबर फैल गई कि नीतीश कुमार ने बिहार में सिर्फ देसी शराब पर प्रतिबंध लगाकर के विदेशी शराब का प्रयोग करने की खुली छूट दे दी है। नीतीश कुमार के इस फैसले से विदेशी शराब के उत्पादकों और दुकानदारों को तो मानो मनचाही खुशी मिल गई थी। विरोध करने वालों ने तो यहां तक कह दिया ” न जाने कौन से पलने में पले नीतीश कुमार ने देशी वस्तुओं के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाकर विदेशी वस्तुओं के प्रयोग की खुली छूट दी है, ऐसा शर्मनाक और घटिया फैसला लेना वाला तो आज तक इस सूबे के लोगों ने देखा तक न होगा”। शायद नीतीश कुमार को यह लगा था की इस फैसले से राजस्व हानि से बचा जा सकेगा, क्योंकि सर्वाधिक राजस्व अंग्रेजी शराबों से ही मिलता है। नीतीश के इस फैसले से महिलाओं का संगठन भी उनके खिलाफ हो गया था। उन्होंने ने कहा था कि ” हमने तो शराब पर प्रतिबंध लगाने को कहा था, लेकिन आपने लगाया तो भेद पैदा करके। हमे तो आपसे ऐसे फैसले की उम्मीद ही नही थी। हम इसका विरोध तब तक करेंगे जब आप सभी तरह के शराबों पर प्रतिबंध नहीं लगाएंगे।” जब तक उन्हें अपने फैसले की गलती का अहसास हुआ, तब तक काफी देर हो चुकी थी। बिहार के साथ पूरे भारत में उनकी जबरदस्त किरकिरी हुई थी। किसी तरह से नीतीश कुमार ने 5 अप्रैल 2016 से बिहार में सभी प्रकार के शराबों की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था।
शराबबंदी तो बिहार में लागू हो गई लेकिन शराब की खेप पहुंचना बिहार में कम नहीं हुई। अवैध शराबों की उच्च कीमतों से परेशान लोगों ने इसी की आड़ में बिहार में लोकल स्तर पर शराब बनाने का काम बढ़ने लगा। इसे पुलिस और प्रशासन का भरपूर सहयोग मिलता रहा। बिहार में जब-जब जहरीली शराब से मौतें हुई हैं, तब-तब सरकार ने इसका जिम्मा पुलिस और स्थानीय प्रशासन के हवाले कर दिया है। हर बार पुलिस और स्थानीय प्रशासन को यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि सरकार कानून तो लागू करती है , लेकिन उसके क्रियान्वन की जिम्मेदारी पुलिस और प्रशासन की होती है। पुलिस और प्रशासनिक स्तर पर ही कोई न कोई कमजोरी है। सरकार अपने स्तर पर हमेशा से ही भरपूर प्रयास करती हैं, लेकिन पुलिस-प्रशासन कभी-कभी अपना बेहतर प्रयास नही दे पाती है। ठीक इसी तरह का बिहार भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष ने बयान दिया था।
बिहार में शराबबंदी के 2 साल बाद यानी 2018 तक कुल 1 लाख 20 हजार से ज्यादा लोग जेलों में बंद थे। इन्हीं में से सबसे ज्यादा दलित थे, मान करके चलें तो करीब 80 प्रतिशत। शराबबंदी ने सबसे ज्यादा निचले तबकों को परेशान किया है। उच्च तबके के लोग इसके तहत पकड़े गए, लेकिन वह कानूनी कार्रवाई से बच निकले है।
देखा जाए तो अन्य राज्यों में भी शराबबंदी लागू की गई थी, लेकिन कुछेक राज्यों ने राजस्व की कमी का हवाला देते हुए अपने राज्य में शराब की बिक्री पुनः शुरू कर दी है। गुजरात का उदाहरण लेते है, गुजरात इससे उलट है। गुजरात जब से अलग राज्य बना है, तभी से यहां शराबबंदी लागू है। गुजरात को भी शराबबंदी से होने वाली राजस्व कमी का सामना करना पड़ता है। इस कमी की पूर्ति के लिए उसे केंद्र सरकार से हर वर्ष ₹100 करोड़ की मदद मिलती है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2020 का एक रिपोर्ट कहता है कि “बिहार में शराबबंदी के बावजूद भी महाराष्ट्र से ज्यादा बिहार के लोग शराब पीते हैं, आंकड़े बताते हैं बिहार में 15.5% पुरुष शराब का सेवन करते हैं। जबकि महाराष्ट्र में शराबबंदी न लागू होने के बावजूद भी शराब का सेवन करने वाले पुरुषों की तादाद 13.9% ही है।” ऐसे में अब कल्पना ही कर लिया जाए कि जिस राज्य में शराबबंदी लागू है और उस राज्य में लोग शराब पीने के पीछे भाग रहे तो जरूरत है कि उस राज्य में शराबबंदी को खत्म कर दिया जाए। जिससे राज्य को राजस्व की कमी का सामना नहीं करेगा और इसकी भरपाई के लिए केंद्र के आगे गुजरात की तरह हाथ नही फैलाना पड़ेगा।
जिन महिला संगठनों के कहने पर नीतीश कुमार ने बिहार में शराबबंदी लागू की है। नीतीश कुमार को उन्हीं महिला संगठनों से अब जाकर यह सवाल पूछना चाहिए “शराबबंदी बाद उत्पन्न हुए जहरीली शराब के अवैध कारोबार से हुई मौत उन्हे स्वीकार है या शराब पीने के बाद किए गए गलत आचरण पर कठोर से कठोर सजा उन्हे स्वीकार है।” इस बात का सीधा अर्थ यही निकलेगा कठोर सजा का प्रावधान देखना ही पसंद किया जाएगा, भला कौन घर का चिराग बुझना पसंद करेगा।
नदी पर बांध बनाया जाता है और जरूरत पड़ने पर या संकट के समय उसे खोला जाता है। ठीक उसी तरह शराब को पाबंदी के साथ उचित समय पर बेचा जाए और अनुचित समय पर शराबबंदी लागू कर दिया जाए। अन्त में यही कहना चाहेंगे “शराबबंदी न सही तो पाबंदी के साथ शराब बेचिये!”